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'बिग बुल' के सहारे भी क्यों नहीं ‘बिका’ स्टार हेल्थ का IPO?

IPO के बारे में जानें सब कुछ.

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तस्वीरें पीटीआई से साभार हैं.
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प्रमोद कुमार राय
6 दिसंबर 2021 (Updated: 6 दिसंबर 2021, 06:23 PM IST)
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'उल्फ़त का अंजाम बुरा है, दाना अच्छा दाम बुरा है'

शायरी का शेयरों से क्या ताल्लुक! पर किसी जमाने में उर्दू मुशायरों की शान रहे कंवर महेंद्र सिंह बेदी सहर का कहा यह मिसरा स्टॉक मार्केट में ओवर-वैल्युएशन का शिकार हो रहीं कंपनियों और उनके IPO पर फिट बैठता है. देश की सबसे बड़ी इंश्योरेंस कंपनियों में से एक स्टार हेल्थ का IPO जिस जोश-ओ-ख़रोश के साथ आया, वह तीसरे दिन IPO की बोली बंद होने तक कायम न रह सका. बीते तीन साल में यह पहली कंपनी है, जिसका IPO सौ फीसदी भी सब्सक्राइब नहीं हुआ. निवेशकों ने कुल 4.49 करोड़ इक्विटी शेयरों में से सिर्फ 3.56 करोड़ के लिए ही बोली लगाई. इस तरह आखिरी दिन इसे महज 79 प्रतिशत सब्सक्रिप्शन से संतोष करना पड़ा, जो थोड़ा और नीचे (75% से कम) रहता तो IPO कैंसल करने की नौबत आ जाती. लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा हैरान करने वाली थी, वो यह कि IPO के साथ वह नाम जुड़ा था, जिसे दुनिया 'बिग बुल' के नाम से जानती है. वह जिस शेयर को हाथ लगा दें, आम आदमी ही क्या बड़े-बड़े इनवेस्टर भी उसे हाथोहाथ लेते हैं. अरबपति निवेशक राकेश झुनझुनवाला ने इस कंपनी में 17.5% की बड़ी हिस्सेदारी ले रखी है. इसलिए माना जा रहा था कि यह IPO कई गुना ज्यादा सब्सक्राइब होगा. लेकिन तीन दिन बाद भी करीब 30% शेयर निवेशकों की राह देखते रह गए. अब इसकी लिस्टिंग प्राइस को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हो चला है और कयास लगाए जा रहे हैं कि यह अपनी महंगी ऑफर प्राइस (870-900) से नीचे ही लिस्ट होगा. हम यहां इस IPO के सुस्त सब्सक्रिप्शन के कारणों की पड़ताल तो करेंगे ही, साथ ही आपको किसी भी IPO की हर बारीकी से वाकिफ कराएंगे. यह भी बताएंगे कि एक आईपीओ की कीमत कैसे तय होती है, शेयरों का आवंटन कैसे होता है, अगर सब्सक्रिप्शन एक सीमा से नीचे रहा या कैंसल होता है तो निवेशकों के पैसे का क्या होता है, किसी सुस्त IPO से पैसे वापस निकालने के लिए निवेशक के पास कितना समय होता है और इसका क्या प्रोसेस है?.

क्या दाम ने किया काम तमाम ? 

किसी IPO की नाकामी की कई वजहें हो सकती हैं. इसमें कंपनी की वित्तीय सेहत ही नहीं, IPO की मार्केटिंग से लेकर शेयर मार्केट के हालात तक मायने रखते हैं. इन मोर्चों पर स्टार हेल्थ का झंडा पहले ही बुलंद था. कोरोना से पहले तक वह लगातार मुनाफे वाली कंपनी थी और राकेश झुनझुनवाला के निवेश के बाद उसे किसी प्रचार-प्रसार की जरूरत नहीं रह गई थी. लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञों का कहना है कि इसकी ऑफर प्राइस (870-900) मौजूदा हालात में बहुत ज्यादा थी. खासकर इस खबर के बैकग्राउंड में कि बीते मार्च में ही कंपनी ने अपने प्रमोटर्स को 490 रुपये में शेयर अलॉट किए थे. लेकिन पिछली कुछ तिमाहियों के नतीजे अच्छे नहीं रहे हैं और कोविड क्लेम के चलते कंपनी को काफी नुकसान हुआ है. ऐसे में कंपनी निवेशकों को विश्वास में नहीं ले पाई कि किस आधार पर नौ महीने के भीतर ही प्रति शेयर दोगुनी कीमत मांगी जा रही है.

तो क्या इनवेस्टमेंट बैंकर ले डूबे ?

इनवेस्टमेंट बैंकर या अंडराइटर क्या होते हैं, इस पर आपको आगे विस्तार से समझाएंगे. अभी ये जानिए कि किसी भी IPO की नैया पार कराने की जिम्मेदारी इन्हीं के हाथ में होती है. स्टार हेल्थ ने भी नामी गिरामी बैंकर्स का हाथ थामा था. मार्केट एक्सपर्ट और chartviewindia.in के फाउंडर मज़हर मोहम्मद कहते हैं,
''स्टार इंडिया का IPO इनवेस्टमेंट बैंकरों और लालची मैनेजमेंट दोनों के लिए आंखें खोलने वाला वाकया है. हाई वैल्युएशन में छोटे और नए निवेशकों के लिए कुछ खास रह नहीं जाता. ऊंचे इश्यू प्राइस का एक मकसद प्राइवेट इक्विटी इनवेस्टर्स को निकलने का रास्ता मुहैया कराना भी हो सकता है. हाई वैल्युएशन के चलते ही स्टार हेल्थ के IPO से घरेलू फंडों ने दूरी बनाए रखी. ऐसे हालात में IPO को उबारने के लिए अंडरराइटर्स  का सहारा लिया जा सकता था, लेकिन तब कंपनी की प्रतिष्ठा को झटका लगता, कि वह मार्केट पार्टिसिपेंट्स का भरोसा हासिल नहीं कर पाई."

क्या लिस्टिंग में लगेगा झटका? 

मार्केट जानकारों का साफ कहना है कि अंडर-सब्सक्रिप्शन (IPO के लिए प्रस्तावित सभी इक्विटी शेयरों का नहीं बिक पाना) के मामले में अक्सर यह देखा गया है कि लिस्टिंग ऑफर प्राइस से नीचे ही होगी. स्टार हेल्थ के मामले में ऐसा ही रहने वाला है. निवेशकों को पहले ही दिन नुकसान के लिए दिमागी तौर पर तैयार रहना चाहिए. लेकिन कंपनी के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है. एक वजह तो वही, कि इसमें राकेश झुनझनवाला जैसे दिग्गज निवेशक की बड़ी हिस्सेदारी है. और दूसरी अहम बात यह कि जहां इसके दूसरे निवेशक अभी से निकलने की जल्दबाजी में हैं, झुनझुनवाला ने ऐसी कोई पहल नहीं की है. वह कंपनी के फंडामेंटल्स को लेकर बुलिश हैं.

क्या खराब लिस्टिंग पर खरीदें ? 

जिन ब्रोकेरेज हाउसेज ने इश्यू के दौरान इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी और कंपनी के हाई-वैल्युएशन के प्रति चेताया था, अब वे भी मानते हैं कि प्राइस की एक सीमा से नीचे कंपनी निवेश के लिए बुरी नहीं है. उनकी दलील है कि स्टार हेल्थ मेडिक्लेम और जनरल इंश्योरेंस दोनों में मार्केट लीडर है. पिछली कुछ तिमाहियों में होने वाला नुकसान कोविड क्लेम के दबावों के चलते हुआ है. एक बार मार्केट कोविड के झटकों से मुक्त हो गया तो कंपनी फिर मुनाफे में आ जाएगी. ऐसे में 700 रुपये के नीचे किसी भी लेवल पर खरीद की सलाह होगी. एक्सपर्ट इस IPO में पैसा लगा चुके खुदरा निवेशकों को भी सलाह दे रहे हैं कि शुरुआती लॉस के दौरान निकलने की कोशिश के बजाय कुछ महीने इंतजार करने की रणनीति अपनाएं. सभी ब्रोकरेज हाउसेज ने स्टार हेल्थ को लॉन्ग टर्म नजरिए से निवेश के लायक माना है.

क्या IPO से पैसा निकाल सकते हैं ?

एक बार आईपीओ में पैसा लगाने के बाद उससे बाहर निकलने का रास्ता तभी तक खुला होता है, जब तक इश्यू प्राइस खुला है. यह भी सिर्फ रिटेल इनवेस्टर यानी हमारे आपके लिए. हाई नेट वर्थ निवेशकों (2 लाख रुपये से ज्यादा निवेश करने वालों) और संस्थागत निवेशकों का निकलना मुश्किल होता है. आम तौर पर किसी भी कंपनी का इश्यू तीन से चार दिन के लिए खुला रहता है. जैसे स्टार हेल्थ का IPO 30 नवंबर से 2 दिसंबर के लिए खुला था. कामयाब IPO पहले ही दिन कई गुना ज्यादा सब्सक्राइब हो जाते हैं. इसके उलट अगर पहले दो दिनों में अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिल रहा तो IPO के भविष्य का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसे में अगर कोई खुदरा निवेशक (दो लाख से कम निवेश वाला) पैसा वापस लेना चाहे तो IPO बंद होने के दिन तक वह ऐसा कर सकता है. इसके लिए ऑनलाइन ऑर्डर कैंसल किया जा सकता है, या ब्रोकर से गुजारिश की जा सकती है. ज्यादातर ब्रोकरेज आखिरी दिन 2 बजे तक ही इसकी इजाजत देते हैं.

कोई IPO आधा सब्सक्राइब हो तो?

ऐसा भी हो सकता है कि किसी कंपनी के IPO को नाम मात्र सब्सक्रिप्शन ही मिले या इश्यू हुए आधे या इससे कुछ ज्यादा शेयर ही बिकें. ऐसे में क्या होगा? यह सवाल ज्यादातर छोटे निवेशकों को सालता रहता है. मार्केट रेग्युलेटर सेबी के नियमों के मुताबिक अगर कोई IPO 90 प्रतिशत से कम सब्सक्रिप्शन हासिल करता है, तो उसे लिस्टिंग की इजाजत नहीं होती. हालांकि इसमें भी कुछ शर्तों के साथ छूट है. मसलन 75 प्रतिशत तक सब्सक्रिप्शन हासिल कर लेने वालों को यह छूट होती है कि वे प्रमोटर्स व अन्य निवेशकों की इक्विटी में से कुछ और हिस्सा बेचने का ऑफर करते हुए संतुलन बना लें और IPO को कैंसिलेशन से बचा लें. स्टार हेल्थ के मामले में भी यही हुआ. कंपनी ने ऑफर फॉर सेल (OFS) का रास्ता चुना. लेकिन 75 प्रतिशत से कम सब्सक्रिप्शन के मामले में IPO कैंसल करना होता है और सभी निवेशकों का पूरा पैसा लौटा दिया जाता है. दिलचस्प बात यह है कि स्टार हेल्थ के IPO को छोटे निवेशकों ने अपने हिस्से (कुल शेयरों का 35%) का 1.1 गुना अधिक सब्सक्राइब किया. नॉन-इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर्स और कंपनी के स्टाफ ने ही इस इश्यू से दूरी बना ली. स्टार हेल्थ के कर्मचारियों को तो 80 रुपये प्रति शेयर डिस्काउंट दिया गया था.

कौन कितना खरीद सकता है? 

इसके लिए निवेशकों की तीन कैटेगरीज को समझें. सबसे पहले यह जान लें कि IPO है क्या ? जब भी कोई कंपनी पब्लिक से पैसा (निवेश) लेना चाहती है तो उसे शेयर मार्केट में लिस्ट होना पड़ता है. इससे पहले वह ज्यादा से ज्यादा एजेंल इनवेस्टर्स या वेंचर कैपिटल जैसे प्राइवेट निवेश का सहारा लेती रहती है. पब्लिक से मिलने वाले निवेश का दायरा बड़ा होता है और उसमें लगातार विस्तार की गुंजाइश रहती है. जब कंपनी अपनी हिस्सेदारी का दायरा पब्लिक के लिए खोलती है और शेयरों को एक खास मूल्य पर बेचने का वादा करती है, उसी को इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग (IPO) कहते हैं. सेबी के नियमों के तहत किसी भी IPO में ऑफर किए जाने वाले कुल शेयरों में निवेश कैटेगरी का कोटा तय है. आधा यानी 50 फीसदी शेयर क्वालिफाइड या इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर्स के लिए होता है, जैसे म्यूचुअल फंड, पेंशन फंड वगैरह. दूसरी कैटेगरी में 15 फीसदी शेयर हाई नेटवर्थ निवेशकों (2 लाख रुपये से ज्यादा के निवेश) के लिए होते हैं. तीसरी कैटेगरी खुदरा निवेशकों (2 लाख से कम निवेश) यानी हमारे-आपके लिए होती है, जिसके लिए अधिकतम 35 फीसदी शेयरों का कोटा होता है.

मर्चेंट बैंकर या अंडरराइटर कौन ? 

IPO लाने वाली कंपनी सबसे पहले कोई इनवेस्टमेंट बैंक या मर्चेंट बैंकर हायर करती है. IPO का वैल्युएशन तय करने से लेकर उसके वितरण और मार्केटिंग की रणनीति भी यही बैंकर तय करते हैं. इनकी नियुक्ति या डील कई तरह की शर्तों पर होती है. मान लीजिए कंपनी मार्केट से 2000 करोड़ रुपये उगाहना चाहती है. इनवेस्टमेंट बैंकर कहे कि हम मार्केट से आपके लिए 2000 करोड़ रेज कराएंगे. अगर आय 2000 करोड़ से कम हुई तो बाकी रकम हम भरेंगे, लेकिन इससे ज्यादा पैसा निकल आया तो ऊपर की रकम हम ले लेंगे. इसी को अंडरराइटिंग और उस बैंकर को अंडरराइटर कहते हैं. दूसरे तरीके के तहत इनवेस्टमेंट बैंकर इस तरह की गारंटी नहीं लेते. वे वैल्युएशन और प्राइस बैंड तय करने से लेकर संस्थागत निवेशकों का इंतजाम भी करते हैं, लेकिन कंपनी की लिस्टिंग या गेन-लॉस से नाता नहीं रखते.

कैसे तय होता है प्राइस बैंड?

मान लीजिए किसी कंपनी की टोटल वैल्यू 10 हजार करोड़ रुपये है. उसने तय किया कि 20 प्रतिशत शेयर डायल्यूट करेगी यानी उसे पब्लिक को बेचेगी. इस तरह मार्केट से 2000 करोड़ रुपये उगाहने के लिए वह प्रति शेयर मूल्य 200 रुपये तय करती है. यानी वह कुल 10 करोड़ शेयर बेचेगी. IPO में अगर आप चाहें कि हजार-पांच हजार रुपये एक मुश्त निवेश करें, तो यह संभव नहीं. यहां शेयरों के बजाय उनके लॉट बिकते हैं. मसलन 10 हजार रुपये में 50 शेयरों का एक लॉट बने तो किसी भी निवेशक को मिनिमम एक लॉट लेना होता है. यानी वह मिनिमम 10 हजार निवेश कर सकता है. यह भी जानते चलें कि जब कंपनी ने हर शेयर का दाम 200 रुपये फिक्स्ड कर दिया तो उस IPO को फिक्स्ड प्राइस IPO कहा जाता है. दूसरे तरह का इश्यू बुक बिल्डिंग इश्यू कहलाता है, जब शेयर का मूल्य एक रेंज में तय होता है. मसलन यहां प्रति शेयर 180-200 रुपये जैसे मूल्य ऑफर किए जाते हैं. दोनों मूल्य के बीच 20 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर नहीं हो सकता. ज्यादातर IPO इसी कैटेगरी के आ रहे हैं.

ओवर और अंडर सब्सक्रिप्शन ?

मान लीजिए किसी कैटेगरी के निवेशकों के लिए कुल एक लाख शेयर-लॉट ऑफर में थे और इतनी ही संख्या में बिड आई, तो हर निवेशक को 1-1 लॉट आसानी से मिल जाएगा. ऐसे में कहेंगे कि सब्सक्रिप्शन 100 प्रतिशत रहा. जितने शेयर ऑफर में थे, उससे ज्यादा एप्लिकेशन या बोली आई तो यह ओवर-सब्सक्राइब्ड होगा. 1 लाख शेयर के लिए 5 लाख बिड मिली तो IPO पांच गुना सब्सक्राइब्ड माना जाएगा. लेकिन शेयरों से कम बोली आई तो यह अंडर-सब्सक्राइब्ड कहलाएगा. अगर शेयर लॉट एक लाख हो और बोली 1 लाख 25 हजार आई तो पहले तो सभी को एक-एक लॉट अलॉट होंगे और बाकी शेयरों के वितरण के लिए कंप्यूटराइज्ड  लॉटरी का सहारा लिया जा सकता है. इसी तरह कम शेयर और ज्यादा बोली के मामले में भी लॉटरी ही विकल्प होता है. IPO में जिन्हें शेयर अलॉट नहीं होते, उनके पैसे आवंटन के अगले दिन खाते में आ जाते हैं. जिन्हें अलॉटमेंट हो जाता है, लिस्टिंग के दिन उनके डीमैट खाते में शेयर आ जाते हैं. आम तौर पर आवंटन के एक हफ्ते के भीतर ही लिस्टिंग होती है. कई बार आवंटन के एक दो दिन बाद ही लिस्टिंग हो जाती है.

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