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उत्तर रामायण : अलग-अलग रामायणों में रामकथा कहां जाकर समाप्त होती है?

तुलसीदास, वाल्मीकि, कृत्तिवास जैसे महाकवि कौन-सी कहानी बता गए?

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ऐसा वर्णन मिलता है कि राम के दरबार में लव-कुश रामायण सुनाते हैं
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अमरेश
24 अप्रैल 2020 (Updated: 25 अप्रैल 2020, 06:29 PM IST) कॉमेंट्स
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लॉकडाउन के बीच लोग 'रामायण', 'महाभारत' जैसे पुराने सीरियलों में पूरी दिलचस्पी ले रहे हैं. 'रामायण' की मूल कहानी समाप्त होने के बाद अब 'उत्तर रामायण' सीरियल दिखाया जा रहा है. ऐसे में कई लोगों के मन में ये जिज्ञासा है कि आखिर ये 'उत्तर रामायण' क्या है? अलग-अलग महाकाव्यों में रामकथा कहां जाकर समाप्त होती है?

'उत्तर रामायण' को 'उत्तरकांड' समझिए

दरअसल, 'उत्तर रामायण' नाम से अलग से कोई महाकाव्य नहीं है. न तो गोस्वामी तुलसीदास ने अलग से रचा, न ही महर्षि वाल्मीकि ने. हां, सीरियल की बात अलग है. रामानंद सागर ने 'रामायण' सीरियल के समापन के बाद उससे आगे की कहानी दिखाने के लिए 'उत्तर रामायण' नाम चुना. जहां तक अलग-अलग रामायणों की बात है, इनमें 'उत्तरकांड' मिलता है, यानी सबसे बाद वाला अध्याय. इस 'उत्तरकांड' में रामकथा के समापन वाली कहानी में भी अंतर मिलता है.
'उत्तरकांड' से ठीक पहले का अध्याय है 'लंकाकांड'. चूंकि सीता के सतीत्व की परीक्षा वाली कड़ियां 'लंकाकांड' से भी जुड़ती हैं, इसलिए हम संदर्भ के लिए इन दोनों कांडों की चर्चा साथ-साथ कर रहे हैं.

'रामचरितमानस' की रामकथा कहां समाप्त होती है

पहले बात 'लंकाकांड' की. लंका विजय के बाद राम की सेना विजय का उत्सव मनाती है. विभीषण का राज्याभिषेक होता है. अयोध्या लौटने की तैयारी होती है. सीता जब राम की ओर बढ़ती हैं, तो राम 'अग्नि' का प्रबंध करने को कहते हैं.
चौपाई का अंश है-
सीता प्रथम अनल महुं राखी प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी
दरअसल, तुलसी के 'मानस' में ऐसा वर्णन है कि रावण जिस सीता को हरकर ले गया था, वो वास्तव में सीता की केवल छाया मात्र थीं. असल सीता को राम ने अग्निदेव के पास सुरक्षित रखा था. इस तरह, ऊपर जो चौपाई का अंश है, उसका मतलब है-
सीता के असल स्वरूप को पहले अग्नि में रखा गया था. अब इसके साक्षी भगवान उनको प्रकट करना चाहते हैं.
कहानी ये है कि सीता की आज्ञा से लक्ष्मण लकड़ी लाकर आग जलाते हैं. सीता अग्निदेव से प्रार्थना करती हुई आग से बाहर आ जाती हैं. देवता फूल बरसाने लगते हैं.
'उत्तरकांड' में ये वर्णन है कि सीता-राम की अयोध्या वापसी के बाद 'राम-राज्य' स्थापित हो गया. चारों ओर सुख ही सुख, वैभव ही वैभव. कहीं कोई रोग-शोक आदि नहीं. बाद में सीता के दो पुत्र हुए- लव और कुश. दोनों बड़े ही वीर और विनम्र. 'मानस' की कहानी यहीं तक है.

वाल्मीकि 'रामायण' में क्या है

लंकाकांड
लंका में युद्ध जीतने के बाद सीता की 'अग्नि परीक्षा' का प्रसंग वाल्मीकि 'रामायण' में भी है. सीता की शुद्धता की परीक्षा के लिए चिता तैयार की गई. सीता के चिता पर बैठने के बाद अग्निदेव ने पिता की तरह उन्हें गोद में उठाकर राम को सौंप दिया.
यहां राम कहते हैं कि उन्हें सीता की पवित्रता पर कोई संदेह नहीं है, वे केवल इतना ही चाहते हैं कि सीता की पवित्रता पूरे समाज से सामने साबित हो जाए.
सीता को अग्नि में प्रवेश करते किन-किन लोगों ने देखा, इस बारे में वाल्मीकि 'रामायण' का एक श्लोक है-
जनश्च सुमहांस्तत्र बालवृद्धसमाकुल: |ददर्श मैथिलीं दीप्तां प्रविशन्तीं हुताशनम् ||
मतलब,
वहां के महान जन-समुदाय ने उन दीप्तिमती सीता को जलती आग में प्रवेश करते देखा. उन लोगों में बच्चे और वृद्ध भी थे.
वाल्मीकि 'रामायण' में सीता की अग्नि-परीक्षा का वर्णन (साभार: गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक का अंश)
वाल्मीकि 'रामायण' में सीता की अग्नि-परीक्षा का वर्णन (साभार: गीताप्रेस, गोरखपुर)

उत्तरकांड
राम जानकी को लेकर अयोध्या आ गए. राज-काज में व्यस्त हो गए. इस बीच राम को सीता के बारे में एक 'लोकापवाद' की जानकारी मिली. अयोध्या के कुछ लोगों ने सीता की पवित्रता पर संदेह किया. इस बारे में भाइयों से चर्चा करने के बाद राम लक्ष्मण को आदेश देते हैं कि वे सीता को वन में जाकर छोड़ आएं. महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के आसपास. इस समय सीता गर्भिणी अवस्था में होती हैं.
वन में सीता महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहती हैं. वहीं लव और कुश का जन्म होता है.
इधर राम ने अश्वमेध यज्ञ करवाया. उनके यज्ञ में महर्षि वाल्मीकि भी आते हैं. वाल्मीकि के आदेश से लव-कुश भी वहां पहुंचते हैं और राम के सामने भरी सभा में रामायण का गान करते हैं. इसके बाद राम ने सीता को अयोध्या लाकर उनकी शुद्धता प्रमाणित करने पर विचार किया. वाल्मीकि राम को समझाते हैं. वे सीता के सतीत्व की पुष्टि करते हैं.
यहां भी राम वाल्मीकि से कहते हैं कि उन्हें सीता की शुद्धता पर तनिक भी संदेह नहीं. वे जानते हैं कि लव-कुश उनके ही पुत्र हैं. फिर भी वे चाहते हैं कि लोगों के सामने, एक बड़े समाज के बीच सीता की शुद्धता फिर से प्रमाणित हो जाए.
सीता को जब इस बात की जानकारी मिली, तो वे अयोध्या में राम की सभा में आईं. पूरे समाज के बीच अपने सतीत्व की शपथ लेती हैं और धरती माता से अपने लिए स्थान मांगती हैं. धरती से सुंदर सिंहासन आता है, जिस पर बैठकर वे रसातल में प्रवेश कर जाती हैं. राम बहुत दुखी होते हैं.
राम का अयोध्यावासियों समेत परलोक जाना
रामकथा का समापन इस तरह है. एक बार काल राम के यहां आए. काल ने राम के साथ वार्ता के लिए एक कठोर शर्त रख दी. शर्त ये कि जब दोनों की बात चल रही हो, कोई भी तीसरा बीच में न आए. राम इस शर्त के साथ वार्ता के लिए तैयार हो गए. इसी बीच दुर्वासा ऋषि राम से मिलने चले आए. दुर्वासा के शाप के भय से लक्ष्मण बाध्य होकर उस वार्ता के बीच ऋषि के आने की सूचना देने पहुंच जाते हैं. शर्त टूटने से नाराज होकर राम लक्ष्मण का त्याग कर देते हैं. इसके बाद लक्ष्मण सशरीर स्वर्ग चले जाते हैं.
मुनि वशिष्ठ के कहने पर राम ने लव-कुश का राज्याभिषेक किया. इसके बाद राम अपने भाइयों और अयोध्यावासियों समेत परमधाम चले गए.

'कृत्तिवास रामायण' के 'उत्तरकांड' में क्या है

जहां तक 'उत्तरकांड' की बात है, 'कृत्तिवास रामायण' की कहानी वाल्मीकि 'रामायण' जैसी ही है. इसमें भी सीता की दो-दो परीक्षाओं का जिक्र है. पहली परीक्षा युद्ध की समाप्ति के बाद वाली यानी 'अग्नि परीक्षा'. दूसरी परीक्षा लव-कुश के जन्म के बाद वाली. अयोध्या में राम की सभा के सामने, जिसमें पूरा जनसमूह मौजूद है.
'कृत्तिवास रामायण' बांग्ला भाषा में लिखी गई है. इस प्रसंग में बांग्ला में लिखी बात का अर्थ इस तरह है-
राम कहते हैं, 'सीता, ये वचन सुनो. देखो, ये यहां त्रिलोक के सारे लोग आए हुए हैं. तुमने पहले समुद्र के उस पार (लंका में) परीक्षा दी थी. ये बात देवगण जानते हैं, लेकिन ये संसार, ये समाज नहीं जानता है. तुम्हें फिर से सबके सामने परीक्षा देनी है. वैसी परीक्षा, जिसे देखकर सबको आश्चर्य हो.'
'कृत्तिवास रामायण' के उत्तरकांड में सीता की परीक्षा का वर्णन (साभार: भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक का अंश)
'कृत्तिवास रामायण' के उत्तरकांड में सीता की परीक्षा का वर्णन (साभार: भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ)

यहां भी राम दो-दो परीक्षाओं का औचित्य बताते हैं. राम कहते हैं कि पहली परीक्षा लंका के उस पार हुई थी, जिसके साक्षी देवगण थे. दूसरी परीक्षा इस लिए जरूरी है, जिससे कि सीता अयोध्या के समाज और श्रेष्ठ गुरुजनों के बीच निष्कलंक साबित हो जाए.
समापन भी वाल्मीकि 'रामायण' वाला ही है. सीता का पाताल गमन. अयोध्या में काल पुरुष का आना. लक्ष्मण का स्वर्ग जाना. अंत में राम का भाइयों और अयोध्या के लोगों के साथ परमधाम जाना. अंत में लव-कुश का राज.

फिर तुलसीदास ने क्यों नहीं कही आगे की कथा

ऊपर के सारे प्रसंग देखने के बाद सवाल उठता है कि आखिर तुलसीदास ने सीता को राम द्वारा वनवास दिए जाने की कहानी क्यों नहीं लिखी? कई साहित्यकारों और मानस मर्मज्ञों ने इसे लेकर काफी-कुछ कहा-लिखा है.
इस बारे में कानपुर के रहने वाले कवि और आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने 'दी लल्लनटॉप' से अपना मत जाहिर किया. उन्होंने कहा-
वाल्मीकि 'आदिकवि' कहे जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि वे राम के समकालीन थे. उन्होंने जो सच देखा, उसे अपनी रामायण में जगह दे दी. दूसरी ओर तुलसीदास ने जो भी लिखा, भक्तिभाव से लिखा. उन्होंने राम को 'मर्यादापुरुषोत्तम' के रूप में चित्रित किया है. ऐसी कोई भी बात, जो राम के समुज्ज्वल चरित्र के विपरीत जाती थी, उसे लिखने से तुलसी ने साफ परहेज किया. सीता का त्याग कर उन्हें वन में भेजने वाला प्रसंग और शम्बूक वध की कहानी इस बात के अच्छे उदाहरण हैं.
कुल मिलाकर, बात वही. 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता.' तुलसी बाबा तो पहले ही कह गए हैं. हरि अनंत हैं. उनकी कथाएं भी अनंत हैं. इन कथाओं को संत लोग बहुत तरह से कहते-सुनते हैं.
तुलसी ने अपने आराध्य के प्रति दास्य भाव से लिखा. सूर ने सख्य भाव से लिखा. मीरा ने माधुर्य भाव से लिखा. कवियों का मन तो अक्सर उनके आराध्य या अन्य पात्रों में प्रतिबिंबित होता रहा है. इसमें अचरज की कौन-सी बात है?


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