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महामहिम: दो प्रधानमंत्रियों की मौत और दो युद्ध का गवाह रहा राष्ट्रपति

इस राष्ट्रपति ने अपने सामने आई हर दया याचिका को स्वीकार किया.

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17 अप्रैल 2021 (Updated: 16 अप्रैल 2021, 05:17 IST)
Updated: 16 अप्रैल 2021 05:17 IST
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भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के बारे में कहा जाता है कि वो धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे और इस वजह से उनकी पंडित नेहरू के साथ पटरी नहीं बैठती थी. आपको कभी इस बात पर आश्चर्य नहीं हुआ कि 1957 में नेहरू प्रसाद की जगह राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे. उन्होंने 1962 में यह करके भी दिखा दिया. राधाकृष्णन, जिनकी पहचान एक हिंदू दर्शनशास्त्री के रूप में थी.

इस तथ्य से एक बात तो तय है कि पंडित नेहरू को राष्ट्रपति पद किसी आस्तिक आदमी से कोई दिक्कत नहीं थी. तो दिक्कत की असल वजह थी क्या? कहानी कि शुरुआत 26 जनवरी, 1950 से ही हो जाती है. राजेंद्र प्रसाद के हिसाब से ज्योतिष के हिसाब यह दिन ठीक नहीं था. आजाद खयाला पंडित नेहरू को यह तर्क नागवार था. उन्होंने 26 जनवरी के दिन ही देश को उसका संविधान सौंप दिया, लेकिन वो राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनने से नहीं रोक पाए थे. ये खींचतान की शुरुआत थी.

1951 में सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन करने पहुंच गए. इसी तरह 1952 में प्रसाद अपनी बनारस यात्रा के दौरान पंडों के पैर पखारने लगे थे. इसकी तस्वीर अखबारों में छपी. नेहरू इस बात से खफा थे. उनका मानना था कि भारत के राष्ट्रपति को अपने धार्मिक रुझाने का प्रदर्शन सार्वजानिक तौर पर नहीं करना चाहिए. इसके अलावा हिन्दू कोड बिल पर भी प्रसाद और नेहरू के बीच सहमति नहीं थी. प्रसाद के हस्तक्षेप से तंग आकर नेहरू ने इस्तीफे की पेशकश भी कर दी थी.

एक मौलाना की समझाइश

1950 और 1952 में नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में सिर्फ इसलिए स्वीकार कर लिया, क्योंकि पार्टी के सरदार पटेल और मौलाना आजाद जैसे सीनियर नेताओं का दबाव उन पर था. 1957 के चुनाव में नेहरू अपने मन का राष्ट्रपति चाहते थे.

राजगोपालाचारी को विकल्प की तरह पेश करने का हश्र वो 1950 में भुगत चुके थे. इसलिए उन्हें एक ऐसे उम्मीदवार की जरुरत थी, जिसको पार्टी में आसानी से स्वीकृति मिल जाए. उन्होंने उपराष्ट्रपति पद पर मौजूद राधाकृष्णन से बेहतर विकल्प उनके पास नहीं था. इस बीच 1956 में ही राधाकृष्णन साफ़ कर चुके थे कि वो उपराष्ट्रपति पद पर एक और कार्यकाल नहीं चाहते हैं. इसे राष्ट्रपति पद की दावेदारी जताने के तरीके के रूप में समझा जा सकता है.

उनकी यह दावेदारी हवाई नहीं थी. जनवरी 1955 में राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू से कहा था कि उनकी तबियत गवाही नहीं दे रही है कि राष्ट्रपति के पद पर बने रहें. उस समय नेहरू ने उनसे दरख्वास्त की थी कि वो कम से कम यह कार्यकाल पूरा कर लें. नेहरू को कोई उम्मीद नहीं थी कि उम्मीद से उलट राजेंद्र प्रसाद दूसरे कार्यकाल के लिए ताल ठोक देंगे.

दिसंबर 1956 में अचानक से अखबारों में यह खबर आने लगी कि राजेंद्र प्रसाद एक और कार्यकाल चाहते हैं. कांग्रेस के भीतर एक बार फिर से खींचतान शुरू हो गई. मोरारजी देसाई और नेहरू प्रसाद के विरोध में खड़े थे. 1950 में प्रसाद के साथ खड़े पटेल दुनिया से रुखसत हो चुके थे. इस चुनाव में मौलाना आजाद राजेंद्र बाबू के साथ खड़े हो गए. राजेंद्र प्रसाद के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलने लगे. अंत में भारी विरोध को देखते हुए नेहरू को अपने पांव पीछे खींच लेने पड़े.


मौलाना आजाद और राजेंद्र प्रसाद
मौलाना आजाद और राजेंद्र प्रसाद

इधर राधाकृष्णन इस बात से सख्त खफा हो गए. उन्होंने अपना इस्तीफा पेश कर दिया. बिगड़े हालात संभालने के लिए मौलाना को आगे किया गया. राजेंद्र प्रसाद ये साफ़ कर चुके थे कि अगर उनकी तबियत गवाही नहीं देती है, तो वो दूसरे कार्यकाल को बीच में छोड़ देंगे. मौलाना आजाद इसी दिलासे के साथ राधाकृष्णन के पास पहुंचे. आखिरकार राधाकृष्णन को मना लिया गया. 1962 में नेहरू ने इस बात को सुनिश्चित किया कि राधाकृष्णन के चुनाव में कोई दिक्कत ना आए.

1962 का राष्ट्रपति चुनाव एकतरफा रहा. विपक्ष की तरफ से कोई भी अधिकारिक उम्मीदवार खड़ा नहीं किया गया. निर्दलीय उम्मीदवारों के कारण वोटिंग की औपचारिकता बची थी. इसे 7 मई 1962 को निपटा लिया गया. कुल 562,945 में से राधाकृष्णन को 553,067 हासिल हुए. उनके निकटतम प्रतिद्वंदी चौधरी हरिराम थे, उन्हें महज 6,341 वोट हासिल हो सके.


इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाते राधाकृष्णन
इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाते राधाकृष्णन

राधाकृष्णन एक मात्र ऐसे राष्ट्रपति थे, जिन्होंने अपने कार्यकाल में दो प्रधानमंत्रियों की मौत देखनी पड़ी थी. 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का इंतकाल भी उन्हीं के कार्यकाल में हुआ. 1962 के भारत चीन युद्ध और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बतौर राष्ट्रपति वो गवाह रहे. इस दार्शनिक राष्ट्रपति के बारे में एक और बात ख़ास है कि वो कुछ जघन्य अपराधों को छोड़ कर फांसी की सजा को हटा देना चाहते थे. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने फांसी की सजा के खिलाफ आई हर दया याचिका को स्वीकार किया. 1954 में उन्हें राष्ट्रपति बनने से पहले भारत रत्न से नवाजा गया. चलते-चलते राधाकृष्णन की उस भाषण की कहानी, जिसे आज भी याद रखा जाना चाहिए.

14 अगस्त 1947, आधी रात को भारत सचमुच अपने भाग्य का विधाता बनने जा रहा था. संविधान सभा की ऐतिहासिक मीटिंग थी. इस मीटिंग में मौजूद थे राधाकृष्णन. मीटिंग शुरू हुई. नेहरू ने अचानक राधाकृष्णन से आकर एक दरख्वास्त की. उन्होंने राधाकृष्णन से आजादी के मौके पर भाषण देने को कहा. राधाकृष्णन मंच पर चढ़े और बिना किसी तैयारी के उन्होंने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया. उन्हें नेहरू की तरफ से हिदायत मिली थी कि जब वो अपना भाषण शुरू करें, तो आधी रात से पहले न रुकें. राधाकृष्णन ने भाषण शुरू किया और ठीक 11.59 पर अपना भाषण खत्म किया, ताकि नई सरकार शपथ ग्रहण कर सके. एस गोपालन के शब्दों में यह 'भाषण की समय सीमा में बंधी रिले दौड़ थी.'


संविधान सभा में भाषण देते राधाकृष्णन
संविधान सभा में भाषण देते राधाकृष्णन

संविधान सभा के मंच से राधाकृष्णन भाषण नहीं दे रहे थे, शब्दों के जरिए इस नए लोकतंत्र की नींव रख रहे थे. उन्होंने अपने भाषण में संस्कृत के एक श्लोक को स्वराज के संदर्भ के तौर पर इस्तमाल किया. यह श्लोक था-


सर्वभूता दिशा मात्मानम, सर्वभूतानी कत्यानी समपश्चम आत्म्यानीवै स्वराज्यम अभिगछति

माने स्वराज एक ऐसे सहनशील प्रकृति का विकास है, जो अपने मानव भाइयों में ईश्वर का रूप देखता है. असहनशीलता हमारे विकास की सबसे बड़ी दुश्मन है. एक दूसरे के विचारों के प्रति सहनशीलता एकमात्र स्वीकार्य रास्ता है.




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