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असाये की लड़ाई में बड़ी सेना और ज्यादा तोपों के बावजूद अंग्रेज़ों से क्यों हार गए मराठे?

बेहद कम सिपाहियों के साथ असाये की लड़ाई जीतने वाला वेल्सले बना ब्रिटेन का प्रधानमंत्री

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असाये के युद्ध की एक प्रतीकात्मक तस्वीर (तवीर : wikimedia)
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कमल
23 सितंबर 2021 (Updated: 22 सितंबर 2021, 05:16 PM IST)
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आज ही के दिन यानी 23 सितम्बर, 1803 में असाये की लड़ाई  हुई थी. किसके बीच हुई थी ये जंग? अंग्रेजों और मराठा सेना के बीच.
असाये, महाराष्ट्र के जलना ज़िले का छोटा सा गांव है. बहुत कम लोगों को पता है कि इस गांव में एक ऐसी लड़ाई हुई थी जिसे जीतने वाला कमांडर आगे चलकर ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना था. इतना ही नहीं इसी कमांडर ने 1815 में वॉटरलू की लड़ाई में नेपोलियन को हराया था. और इसके बावजूद उसने असाये की जीत को अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी जीत माना था. आफ़्टर टीपू सुल्तान क़िस्से की शुरुआत 1799 से. जब अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को हराकर दक्षिण में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली थी. इसके बाद नंबर था मध्य भारत का. जहां अंग्रेजों के सामने सिर्फ़ एक राइवल रह गया था. ये था मराठा साम्राज्य. 19 वीं सदी की शुरुआत तक मराठाओं ने दक्षिण और मध्य भारत के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था. लेकिन बड़ा साम्राज्य होने के कारण मराठाओं में आपसी सिर फुटव्वल भी शुरू हो गई.
इस लड़ाई में दो केंद्र थे. एक तरफ़ थे महाराजा यशवंत राव होलकर. दूसरी तरफ़ पेशवा बाज़ी राव-2 और दौलत राव सिंधिया.
असाये की लोकेशन जहां 1803 में वेल्सले ने मराठों को हराया
मैप पर असाये की लोकेशन और आर्थर वेल्सले (तस्वीर: google maps और wikimedia)


25 अक्टूबर 1802 में दिवाली के दिन इन दोनों ख़ेमों में भयंकर लड़ाई हुई. जिसे बैटल ऑफ़ पूना के नाम से जाना जाता है. इस जंग में दौलत राव सिंधिया वाले ख़ेमे की हार हुई. जिससे मराठा साम्राज्य में तनातनी कुछ कम हुई लेकिन एक बड़ा साइड इफ़ेक्ट भी हुआ.
हुआ यूं कि पूना की गद्दी दुबारा पाने के लिए पेशवा बाज़ी राव-2 ने अंग्रेजों के साथ जाकर संधि कर ली. तब भारत में ब्रिटिशर्स के गवर्नर जनरल ‘लॉर्ड मॉर्निंगटन’ हुआ करते थे. इस संधि से उन्हें मध्य भारत में ओपनिंग मिल गई. मार्च 1803 में उन्होंने अपने छोटे भाई मेजर जनरल ‘आर्थर वेल्सले’ को पूना की तरफ़ कूच करने भेजा. पूना में ब्रिटिश सेना को कोई ख़ास रेजिसटेंस फ़ेस नहीं करना पड़ा. और वहां अंग्रेजों की अधीनता में पेशवा बाज़ी राव-2 राज चलाने लगे. भारत के नेपोलियन के साथ डबल क्रॉस इससे दौलत राव सिंधिया पशोपेश में पड़ गए. एक ओर वो महाराजा होलकर के विरुद्ध थे लेकिन दूसरी तरफ़ उन्हें अंग्रेजों की अधीनता भी स्वीकार नहीं थी. महाराजा होलकर को तब भारत का नेपोलियन कहा जाता था. क्योंकि जिस प्रकार यूरोप में नेपोलियन एक के बाद एक युद्ध जीतता जा रहा था, वैसे ही होलकर भी हर मोर्चे पर सफल हो रहे थे.
मजबूरी में दौलत राव सिंधिया को महाराजा होलकर से हाथ मिलाना पड़ा. 4 जून 1803 को रघुजी भोंसले, दौलत राव सिंधिया और महाराजा होलकर ने एक मीटिंग की. और ये निर्णय लिया कि मध्य भारत में अंग्रेज़ो के बढ़ते कदमों पर लगाम लगाना ज़रूरी है. लेकिन दौलत राव सिंधिया होलकर को डबल क्रॉस करने के चक्कर में थे. उन्होंने पेशवा बाज़ीराव-2 को एक पत्र लिखा. जिसके अनुसार अंग्रेजों को हराने के बाद वो दुबारा होकलर के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी करते. ये चिट्ठी आर्थर वेल्सले के हाथ लग गई. और उन्होंने इसे महाराजा होलकर के पास पहुंचा दिया.
डबल क्रॉस का इरादा जानकर महाराजा होलकर ने खुद को दौलत राव और रघुजी भोंसले वाले गुट से अलग कर लिया. अब अंग्रेजों का सामना सिर्फ़ दौलत राव और रघुजी से होना था. वेल्सले ने दौलत राव से समझौते की कोशिश की. लेकिन दौलत राव राज़ी नहीं हुए. इसका वाजिब कारण भी था.
पेशवा बाजीराव द्वितीय, दौलत राव सिंधिया और आर्थर वेल्सले (बाएं से दाएं) पेशवा बाजीराव द्वितीय, दौलत राव सिंधिया और आर्थर वेल्सले (बाएं से दाएं) (तस्वीर: wikimedia)


दोनों सेनाओं की स्थिति पर नज़र डालिए,
ब्रिटिश सेना में 9500 सैनिक थे. जिसमें दो ब्रिटिश इन्फ़ंट्री रेजिमेंट और एक कैवलरी रेजिमेंट शामिल थी. इसके अलावा उनके पास 17 तोपें भी मौजूद थीं.
इसके मुक़ाबले दौलत राव सिंधिया की सेना में 10,800 सैनिकों की इन्फ़ंट्री शामिल थी, जो यूरोपियन लड़ाई के तौर तरीक़ों में ट्रेन्ड थी. इसके अलावा 20 हज़ार सैनिकों की एक इरेग्युलर इन्फ़ंट्री थी जिसमें अधिकतर भारतीय सैनिक थे. साथ ही 40 हज़ार सैनिकों की कैवलरी यानी घुड़सवार सेना और 100 तोपें भी थीं.
फ़ौज की ताक़त को देखते हुए सिंधिया ख़ेमा ज़्यादा ताकतवर था. उन्होंने समझौते से इनकार किया तो वेल्सले ने युद्ध का बिगुल बजा दिया. कौन जीता, तुम्हारा प्रोफ़ेशन क्या है कौन हारा कौन जीता और लड़ाई में क्या-क्या हुआ, ये जानने से पहले 300 फ़िल्म का सीन याद करिए. लियोनाइडेस 300 सैनिकों के साथ ज़र्कसीज़ से लड़ने जा रहा होता है. रास्ते में उसे आरकेडियन्स की सेना मिलती है. आरकेडियन्स का सरदार से कहता है,
हमें लगा था स्पार्टा अपनी पूरी ताक़त से लड़ने आएंगे. और तुम केवल 300 लोगों को लेकर आ गए हो.
लियोनाइडेस एक आरकेडियन सैनिक से पूछता है, “तुम्हारा प्रोफ़ेशन क्या है?” सैनिक जवाब देता है, "जनाब मैं कुम्हार हूं.” इसी सवाल के जवाब में एक दूसरा सैनिक कहता है, “जनाब मैं लोहार हूं.” एक तीसरा सैनिक बोलता है, “जनाब मैं मूर्तिकार हूं.”
इसके बाद लियोनाइडेस मुड़कर अपने 300 सैनिकों से चिल्लाकर पूछता है,
स्पार्टन्स! तुम्हारा प्रोफ़ेशन क्या है?
सैनिक अपना भाला उठाकर एक स्वर में हुंकार भरते हैं, हू.. हू.. हू
लियोनाइडेस आरकेडियन सरदार से कहता है,
"तुमने देखा, पुराने दोस्त. मैं तुमसे ज़्यादा सैनिक लेकर आया हूं.
मराठा फौज़ अंग्रेज़ों पर तोप के गोले दागती हुई
मराठा फौज़ अंग्रेज़ों पर तोप के गोले दागती हुई (तस्वीर: Wikimedia)


इस सीन की चर्चा हमने इसलिए की, क्योंकि इस लड़ाई की अरिथमैटिक भी कुछ ऐसी ही थी. कहने को दौलत राव की सेना में 70000 सैनिक थे लेकिन. इनमें से अधिकतर अनट्रेंड और आधुनिक युद्ध नीति से नावाक़िफ़ थे. दोनों तरफ़ की फ़ौज का फ़ॉर्मेशन भी देखिए. ब्रिटिर्शस की सेना पूरी तरह ऑर्गनाइज्ड थी. आर्मी जनरल से लेकर कर्नल तक ज़िम्मेदारियों का बंटवारा था. दौलत राव की घुड़सवार सेना भी संख्या में अधिक थी. लेकिन बचपन का वो गाना याद है ना. लकड़ी की काठी वाला. उसमें बीच की लाइन में गुलज़ार लिखते हैं.
घोड़ा अपना तगड़ा है देखो कितनी चर्बी है, रहता है महरौली में पर घोड़ा अपना अरबी है
यही अंतर था ब्रिटिश और मराठा कैवलरी में. ब्रिटिश सेना के घोड़े ज़्यादा तगड़े और बढ़िया नस्ल के थे. साथ ही मराठा सेना को और मज़बूत करने के लिए फ़्रेंच और बाक़ी यूरोपियन मर्सीनरी लड़ाकों को फ़ौज में ऊंचे ओहदे दे रखे थे. जिससे मराठा सरदारों में रोष था. इन सारे फ़ैक्टर्स के कारण जंग की इक्वेशन वैसी नहीं थी, जैसी पहले नज़र में दिख रही थी. और इसी ने लड़ाई पर बड़ा असर डाला.कैसे? आइए जानते हैं. वेल्सले का अटैक 21 सितम्बर 1803 को वेल्सले को मराठा सेना के कैम्प का पता चला. वो भोरकंदन में डेरा जमाए हुए थे. भोरकंदन, महाराष्ट्र के जलना ज़िले में पड़ने वाला एक गांव है. उसने कर्नल जेम्स स्टीवनसन के साथ मिलकर आक्रमण की योजना बनाई. प्लान था कि मराठा सेना पर दो तरफ़ से हमला कर उन्हें चौंका देंगे. जेम्स स्टीवनसन अपनी टुकड़ी लेकर पश्चिम की तरफ़ निकल गए. और वेल्सले अपनी सेना लेकर पूर्व की तरफ़.
23 सितम्बर की सुबह 20 किलोमीटर चलने के बाद सुबह क़रीब 11 बजे वेल्सले ने नौलनियाह गांव के पास डेरा जमाया. ये भोरकंदन से 16 किलोमीटर की दूरी पर था. प्लान के मुताबिक़ स्टीवनसन को यहां वेल्सले से मिलना था. और फिर वो साथ आक्रमण करते. लेकिन वेल्सले को उसके गुप्तचरों ने सूचना दी कि मराठा सिर्फ़ 8 किलोमीटर दूर हैं.
वेल्सले सेना का नेतृत्व करते हुए
वेल्सले सेना का नेतृत्व करते हुए (तस्वीर: wikimedia)

दौलत राव सिंधिया को ब्रिटिश सेना के मूवमेंट का पता था. लेकिन उन्हें लगा कि इतनी छोटी टुकड़ी के साथ वेल्सले हमला नहीं करेगा. इसलिए वो सेना का एक हिस्सा लेकर उसी सुबह आगे निकल गए थे. वेल्सले के इरादे कुछ और थे. उसे लगा अगर वो स्टीवनसन का इंतज़ार करता रहा तो एक अच्छा मौक़ा हाथ से निकल जाएगा. इसलिए उसने कुछ गार्डस को अपने कैम्प में रुकने को कहा और बाकी टुकड़ी लेकर वो कैलना नदी तक पहुंच गया. कैलना नदी और सहायक नदी जुआह के बीच में एक तिकोनी ज़मीन थी जिस पर मराठा सेना ने डिफ़ेन्सिव फ़ॉर्मेशन बनाया हुआ था. असाये की लड़ाई फ़ॉर्मेशन में पीछे इन्फ़ंट्री और आगे 100 के लगभग तोपें लगी हुई थी. सीधे नदी पार कर उनसे भिड़ने का मतलब था आत्महत्या. इसलिए वेल्सले ने मराठा सेना को आउट्फ़्लैंक करने के लिए एक दूसरा रास्ता ढूंढने की सोची. बग़ल में ही असाये गांव पड़ता था. क़िस्मत अच्छी थी के उसे वहां से नदी पार करने का एक दूसरा रास्ता मिल गया. यहां से नदी पार करने में कम ख़तरा था. क्योंकि मराठा सेना इतनी जल्दी अपना फ़ॉर्मेशन बदल कर ब्रिटिश देना की तरफ़ रुख़ नहीं कर सकती थी.
फिर भी फुर्ती दिखाते हुए मराठा गोलमदौजों ने तोप से ब्रिटिश सेना पर हमला किया. वेल्सले का घोड़ा भी इस हमले में मारा गया. लेकिन तब तक ब्रिटिश उन्हें आउटफ़्लैंक करने में कामयाब हो चुके थे.
जब तक मराठा सेना ने अपना फ़ॉर्मेशन चेज़ किया तब तक दोनों सेनाओं के बीच सिर्फ़ एक मील का फ़ासला रह गया था. तोप के गोलों से ब्रिटिश सेना को बहुत नुक़सान हुआ. लम्बी दूरी में तोप मारक हमला कर सकती थी लेकिन जैसे-जैसे दूरी कम होती गई, तोप के गोलों ने भी असर दिखाना बंद कर दिया. चंद मीटर की दूरी पर बैटल में तोप के बजाय बेयनेट यानी चाकू लगी हुई राइफ़ल ज़्यादा काम आती थीं. तोपों के नज़दीक पहुंचकर इन्हीं बेयनेट की मदद से ब्रिटिश सैनिकों ने ने गोलमदौजों को न्यूट्रिलाइज़ कर दिया. अब बारी थी इन्फ़ंट्री की. ब्रिटिश सेना ने अपने बेहतर हथियारों से तोपों को पार कर मराठा इन्फ़ंट्री पर चार्ज किया और उन्हें खदेड़ दिया. बाज़ी पलट जाती लेकिन.. बैटलफ़ील्ड के एक दूसरे हिस्से में अंग्रेजों की हालत अभी भी ख़राब थी. दरअसल ब्रिटिश टुकड़ी का एक हिस्सा असाये गांव में ही रुका था. ये लोग गांव के घरों की आड़ में छुपे हुए थे. लेकिन कच्चे मिट्टी के घर तोप के गोलों के सामने कब तक ठहरते. नतीजतन ब्रिटिश सेना को यहां बहुत नुक़सान हुआ. इसके अलावा मराठा कैवलरी ने भी उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया था.
बाज़ी पलटती हुई लग रही थी. लेकिन तब तक ब्रिटिश cavalry भी पहुंच चुकी थी. जैसा कि पहले बताया ब्रिटिश सेना के घोड़े तगड़े और आकार में बढ़े थे. घुड़सवारों के पास भी मराठा सैनिकों से बेहतर हथियार थे. इस कारण यहां भी मराठा सेना को हार का सामना करना पड़ा. एक बार ब्रिटिश cavalry ने चार्ज किया तो मराठा सेना के हौंसले टूट गए. और बचे-कुचे सैनिक भी नदी पार कर भाग निकले.
वेल्सले कैलना नदी पर
प्रतीकात्मक तस्वीर (सोर्स: wikimedia)


आर्थर वेल्सले जंग जीत चुका था लेकिन इस जंग में इतना खूनखराबा हुआ कि जुआह नदी का रंग लाल हो गया था. वेल्सले की सेना इतना थक चुकी थी कि उन्होंने उसी नदी से पानी पिया और वहीं आराम करने की ठानी. आगे बढ़ने से पहले वेल्सले चाहता था कि स्टीवनसन वहां पहुंच जाए. लेकिन उसे पहुंचने में एक दिन और लगना था.
अपनी वार रिपोर्ट में वेल्सले ने लिखा कि उस दिन वो वहीं लाशों के बीच सोया. रात भर उसे एक डरावना सपना जगाता रहा जिसमें उसे दिखाई देता कि उसने युद्ध में अपने सारे दोस्तों को खो दिया है.
इस जीत ने वेल्सले जो मशहूर बना दिया. आगे चलकर वॉटरलू की लड़ाई में उसने ब्रिटिश सेना को लीड किया और नेपोलियन को हराया. जिसके बाद ब्रिटेन के राजा ने उसे ड्यूक ऑफ़ वेलिंगटन की उपाधि से नवाज़ा. और आगे चलकर वो ब्रिटेन का प्रधानमंत्री भी बना. वेल्सले ने असाये की लड़ाई को अपनी ज़िंदगी की सबसे भयंकर लड़ाई और सबसे बड़ी जीत माना. उसने कहा,

“23 सितम्बर की लड़ाई में चाहे हमें जितना भी फ़ायदा हुआ हो, लेकिन ज़िंदगी का जैसा नुक़सान मैंने उस दिन देखा, वैसा दुबारा कभी नहीं देखना चाहता


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