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एक महारानी और नौकर का बवाल खड़ा करने वाला रिश्ता!

ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया और उनके सबसे खास मुलाजिम अब्दुल करीम का रिश्ता जिसे राज़ परिवार ने मिटा देना चाहा

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महारानी विक्टोरिया के देहांत के आठ साल बाद 46 साल की उम्र में अब्दुल भी दुनिया से चला गया. (तस्वीर: Getty)
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कमल
24 मई 2022 (Updated: 20 मई 2022, 11:23 PM IST) कॉमेंट्स
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आगरा के पचकुइंआ कब्रिस्तान में एक मकबरा है. हर साल एक खास तारीख को यहां उर्स लगता है. आसपास के लोग आते है. ये मकबरा है मुहम्मद अब्दुल करीम का. कौन थे ये? ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के खासम खास नौकर हुआ करते थे. जिंदगी का अधिकतर हिस्सा लन्दन में गुजारा. शाही महल में. फिर रानी की दुनिया से रुखसती हुई तो अब्दुल को भी महल से निकाल दिया गया.

दोष बस इतना था कि रानी से नजदीकियां बढ़ा ली थीं. इतनी कि एक बार तो रानी अब्दुल को नाइटहुड देने के लिए तैयार हो गयी थी. राजपरिवार के लोगों ने समझाया, दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की रानी और एक गुलाम नस्ल के बन्दे से रिश्ता. कोई राजा-महाराजा होता तो तभी देख लेते. लेकिन अब्दुल न राजा था न राजकुमार. एक खिदमतगार था. महारानी के खाने वक़्त टेबल के आसपास जो लोग खड़े रहते, उनमें से एक.

अब्दुल की कहानी खुली कैसे?

1990 के दौर में श्रावणी बसु भारतीय खान-पान पर रिसर्च कर रही थीं. खास तौर पर करी के इतिहास पर. इसी दौरान उन्होंने ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के एक निजी महल का दौरा किया. आइल ऑफ वाइट में बने ऑस्बोर्न होम में श्रावणी को एक तस्वीर दिखाई दी. एक पोर्ट्रेट. ब्रिटेन की राजशाही में ऐसी तस्वीरों को बनाने का रिवाज था. इसलिए श्रावणी को लगा ज़रूर किसी राजा-महाराजा की तस्वीर होगी. लाल और सुनहरे रंग की पेंटिंग में रंगा ये शख्स चेहरे से भारतीय लगता था.

अब्दुल को महज चंद महीने के लिए बकिंघम पैलेस भेजा गया था, लेकिन देखते ही देखते वह महारानी विक्टोरिया का हमराज, उर्दू सिखाने वाला उस्ताद और सलाहकार बन गया (तस्वीर: Wikimedia Commons)

थोड़ा और रिसर्च करने पर श्रावणी को पता चला कि पेंटिंग अब्दुल करीम की थी. जिसे 1887 में विक्टोरिया की खिदमत करने के लिए भारत से ब्रिटेन ले जाया गया था. लेकिन एक नौकर की पेंटिंग वो भी महारानी की तस्वीर के बगल में! अचरज की बात थी. आगरा से आया एक मुसलमान लड़का सर्वशक्तिमान ब्रिटिश राज्य की महारानी तक कैसे पहुंचा?अब्दुल पर महारानी की ऐसी अनुकम्पा कैसे हुई? और सबसे बड़ा सवाल ये कि ये बात इतने सालों तक छुपी कैसे रही?

पहले बात आज की तारीख की. आज ही के दिन यानी 24 मई 1819 को विक्टोरिया का जन्म हुआ था. 20 जून 1837 को विक्टोरिया ब्रिटेन की महारानी बनीं. उनके पति प्रिन्स एलबर्ट की मौत के के बाद एक नौकर जॉन ब्राउन से विक्टोरिया की नज़दीकी की खूब खबरें उड़ी. यहां तक कि कुछ जगह उन्हें मिस ब्राउन कहकर लिखा गया. 1883 में ब्राउन की मृत्यु हो गई.

आगरा का एक लड़का ब्रिटेन कैसे पहुंचा?

साल 1887 विक्टोरिया की ताजपोशी की गोल्डन जुबली का साल था. इस ख़ास मौके पर रानी ने एक इच्छा जाहिर की. रानी चाहती थी कि ब्रिटेन की कॉलोनियों से कुछ खिदमतगार ब्रिटेन लाएं जाए. विक्टोरिया हमेशा से ही भारत में खास दिलचस्पी रखती थीं. इसलिए भारत से दो ख़िदमतगारों को महारानी के सामने पेश किया गया. इनमें से एक था, अब्दुल करीम. 1863 में अब्दुल की झांसी में पैदाइश हुई और इसके बाद वो एक अस्पताल में बतौर असिस्टेंट काम करने लग गया था.

श्रावणी और अब्दुल और महारानी की कहानी पर बनी फिल्म (तस्वीर: getty)

जून 1887 में अब्दुल विंडसर के किले में पहुंचा. रानी विक्टोरिया का घर. 23 जून 1887 को अब्दुल ने रानी को पहली बार नाश्ता परोसा. अब्दुल से पहली मुलाक़ात के बारे में विक्टोरिया ने अपनी डायरी में अब्दुल के बारे में लिखा, “दूसरा जो उम्र में छोटा है, उसका रंग कमोबेश हल्का है. उसके पिता आगरा में डॉक्टर हैं”

गोल्डन जुबली समारोह के तुरंत बाद विक्टोरिया अपने आइल ऑफ वाइट वाले घर में गई. और साथ में अब्दुल को भी ले गई. यहां अब्दुल ने पहली बार उन्हें चिकन करी बनाकर खिलाई. विक्टोरिया के बायोग्राफर A.N. विल्सन के अनुसार, विक्टोरिया को ये डिश इतनी पसंद आई कि उन्होंने उसे अपने रोजमर्रा के खाने का हिस्सा बना लिया. विक्टोरिया भारतीय रहन-सहन में दिलचस्पी लेने लगी थी. इसलिए उन्होंने अब्दुल से बात करने के लिए हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू का मिलाजुला स्वरूप) सीखनी शुरू कर दिया.

साथ ही उन्होंने अब्दुल को इंग्लिश के ट्यूशन भी दिलवाने शुरू कर दिए. ताकि दोनों को बात करने में आसानी हो. हालांकि अब्दुल को ख़िदमतगार के रूप में रखा गया था. लेकिन जल्द ही रानी ने उसे मुंशी बना दिया. साथ में “इंडियन क्लर्क टू द क्वीन एम्प्रेस” का पद भी दे दिया. तनख़्वाह भी बढ़ा कर 12 पाउंड महीना कर दी गई. इतना ही नहीं महारानी जहां भी जाती, अब्दुल को अपने साथ ले जाती. देश विदेश के दौरों पर भी. अब्दुल का क़द इतना बड़ा हो गया था कि महल के बाकी नौकर उससे चिढ़ने लगे. राज परिवार के लोगों ने विरोध जताया तो विक्टोरिया ने अब्दुल का समर्थन किया. उन्होंने ये तक कह दिया कि बाकी लोग नस्लभेद के कारण अब्दुल की शिकायत करते हैं.

अब्दुल की महारानी से नज़दीकी

अब्दुल को भी महारानी से नज़दीकी का बहुत फ़ायदा मिला. वो रानी के सेक्रेटरी के पद तक पहुंच गया था. और अपने साथ एक तलवार लेकर चल सकता था. उसे अपने परिवार को भारत से ब्रिटेन लाने की इजाज़त थी. यहां तक कि एक बार अब्दुल के पिता ने विंडसर के क़िले में हुक्का भी पिया था. जबकि महारानी ने कभी किसी को विंडसर किले में हुक्का या सिगरेट पीने की इजाज़त नहीं दी थी.

साथ महारानी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

रानी विक्टोरिया ने ताउम्र भारत में कदम नहीं रखा. लेकिन अब्दुल के कारण उनका यहां से इतना लगाव हो गया था कि एक बाद जब राजपरिवार के एक सदस्य ने अब्दुल की शिकायत की तो रानी उस पर झल्लाते हुए बोलीं, “दिस इज़ टिपिकल ऑफ़ यू ब्रिटिश”.

अब्दुल का ओहदा क्या था, इसका एक और किस्सा है. हुआ यूं कि एक बार महारानी अपनी पोती की शादी में शामिल होने के लिए जर्मनी गई थी. यहां अब्दुल ने शादी में शरीक होने से इनकार कर दिया. इसलिए क्योंकि उसकी सीट नौकरों की दीर्घा में लगाई गई थी. जब महारानी से अब्दुल के इस व्यवहार ही शिकायत की गई तब भी उन्होंने अब्दुल का ही पक्ष लिया.

विक्टोरिया को अब्दुल में ऐसा क्या दिखा?

किताब “विक्टोरिया एंड अब्दुल” की लेखक श्रावणी बसु द टेलीग्राफ को दिए एक इंटरव्यू में बताती हैं,

“अब्दुल विक्टोरिया से ऐसे बात करता था जैसे एक इंसान दूसरे इंसान से करता है. जबकि बाकी सब लोग, यहां तक कि विक्टोरिया के अपने बच्चे भी उनसे रानी की तरह पेश आते थे. और यहां एक भारतीय था, जिसके बात करने के लहजे में एक मासूमियत थी. अब्दुल उन्हें भारत और भारतीयों के बारे में बताता था. साथ ही विक्टोरिया भी अब्दुल से अपने दिल की बातें शेयर कर सकती थी”

इस कहानी को बाहर आने में इतने साल क्यों लग गए?

विक्टोरिया और अब्दुल के बीच ये गहन रिश्ता राजपरिवार के लोगों के लिए मात्र एक स्कैंडल था. वो किसी भी तरह अब्दुल से पीछा छुड़ाना चाहते थे. लेकिन रानी विक्टोरिया के ज़िंदा रहते कुछ कर भी नहीं सकते थे. साल 1901 में महारानी विक्टोरिया की मृत्यु हुई. विक्टोरिया की इच्छा अनुसार अब्दुल को उनकी आखिरी यात्रा में शामिल होने दिया गया. लेकिन अगले ही दिन विक्टोरिया के बेटे एडवर्ड ने अब्दुल के पास अपने गार्ड भेजे. और उससे वो सारे ख़त छीन लिए जो विक्टोरिया ने अब्दुल को लिखे थे. उन सारे खतों को वहीं पर जला दिया गया.

जॉन ब्राउन रानी विक्टोरिया के साथ (तस्वीर: Wikimedia Commons)

साथ ही शाही रिकॉर्ड्स से अब्दुल के बारे में सारी जानकारी हटा दी गई. रानी ने अब्दुल को तोहफ़े में जो घर दिया था वो भी उससे छीन लिया गया. और अब्दुल को उसके परिवार समेत भारत भेज दिया गया. विक्टोरिया की बेटी बीयट्रिस ने विक्टोरिया के जनरल्स से भी अब्दुल का पूरा नामोनिशान मिटा दिया. शाही परिवार ने इस सफाई से अब्दुल का इतिहास मिटाया था कि इस बात को बाहर आने में पूरे 100 साल लग गए. श्रावणी ने 2006 में जाकर करीम की कहानी को खंगालना शुरू किया। चार साल की रिसर्च के बाद उन्होंने एक किताब लिखी, विक्टोरिया एन्ड अब्दुल. जिस पर बाद में एक फिल्म भी बनी.

मुंशी मेनिया.

अपनी चार साल के रिसर्च के दौरान श्रावणी ने महारानी के खतों को खंगाला. अब्दुल और महारानी के बीच ख़तों को नष्ट कर दिया गया था. ऐसे में श्रावणी को कुछ और खतों में अब्दुल का ज़िक्र मिला. ये खत महारानी ने अपने वाइसराय को लिखे थे. साथ ही इनमें वो दस्तावेज़ भी शामिल थे जिसमें डॉक्टर ने रानी की सेहत का ब्यौरा दिया था. सर जेम्स रीड महारानी विक्टोरिया के डॉक्टर हुआ करते थे. इन नोट्स से पता चलता है कि रीड्स विक्टोरिया और अब्दुल के रिश्ते से बहुत असहज महसूस करते थे. एक जगह वो अब्दुल के प्रति महारानी के व्यवहार को ‘मुंशी मेनिया’ का नाम देते हैं.

साथ ही श्रावणी को विक्टोरिया के कुछ जरनल्स मिले. इनमें कुछ पेज ऐसे थे जिनमें हिंदुस्तानी भाषा में लिखा हुआ था. इन हिस्सों को कभी खोला नहीं गया था. क्योंकि विक्टोरिया के बायोग्राफ़र्स को ये भाषा आती ही नहीं थी.

13 वॉल्यूम के इन जरनल्स में विक्टोरिया ने हिंदुस्तानी सीखने के बारे में लिखा है. साथी ही उन्होंने कुछ ऐसी बातों का ज़िक्र किया है जिनसे उनकी एक नई ही तस्वीर सामने आती है. मसलन अब्दुल जब बीमार पड़ा तो विक्टोरिया खुद उससे मिलने गई थीं. वो अब्दुल और उसकी पत्नी के साथ चाय पीती थीं और उनकी ज़बरदस्त इच्छा थी कि भारत जाकर आम खाएं.

महारानी की मौत के बाद अब्दुल का क्या हुआ? 

महारानी जानती थीं कि राजपरिवार उनके जाने के बाद उसे तंग करेगा. इसलिए उन्होंने भारत के वायसरॉय से कहकर आगरा में ज़मीन दिलवाई. और अब्दुल ने आगे की ज़िंदगी यहीं पर गुज़ारी. 20 अप्रैल 1909 को अब्दुल भी इस दुनिया से चल बसे. तब उनकी उम्र सिर्फ़ 46 बरस थी.

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