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शहीदों का बदला लेने के लिए जब इंडियन आर्मी ने सियाचिन से जिन्ना का नाम मिटा दिया!

1987 में पाकिस्तान फौज ने सियाचिन में एक ऊंची पीक से भारतीय फौज पर गोलीबारी शुरू की. एक जवान की शहादत का बदला लेने के लिए फौज ने जिन्ना के नाम वाली चोटी छीन ली

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siachen operation rajiv bana singh
1987 में सियाचिन की क़ायद चोटी पर कब्ज़ा कर भारतीय फौज ने उसका नाम बाना टॉप रख दिया था, इस जंग में परमवीर चक्र पाने वाले कैप्टन बाना सिंह के नाम पर (तस्वीर: इंडियन आर्मी)
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कमल
13 अप्रैल 2023 (Updated: 11 अप्रैल 2023, 07:15 PM IST)
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“जय माता दी साहिब, हमारे जवानों की लाश वापिस लानी है.”

हर रोज़ जब लेफ्टिनेंट जनरल बटालियन के मंदिर जाते, प्रसाद देते हुए कोई न कोई जवान उनसे ये शब्द कहता. ये साल था 1987 का. सियाचिन की पहाड़ी पर हर सुबह अपने साथ थोड़ी गर्मी लेकर आती थी. लेकिन सूरज की रौशनी में सामने अपने साथियों की लाश देखकर जवान सूरज को कोसते थे. उन्हें वापिस लाने का जूनून हर किसी के दिल में था लेकिन ये काम था बहुत मुश्किल. वजह - वो पहाड़ी जिस पर उनके साथी अंतिम नींद सोए थे, पाकिस्तान के कब्ज़े में आती थी. लेकिन क्या ऐसा संभव था कि सेना अपने साथियों को यूं की पीछे छोड़ दे?.
हरगिज़ नहीं. लिहाजा एक ऑपरेशन को अंजाम दिया गया. जिसमें सैनिक न सिर्फ अपने साथियों को वापिस लेकर आई. बल्कि उस चोटी को भी पाकिस्तान से हथिया लिया, जिसका नाम बड़े फख्र से उन्होंने क़ायद रखा था. मुहम्मद अली जिन्ना के नाम पर. (Operation Rajiv)

ऑपरेशन मेघदूत का बदला 

पूरी कहानी जानने के लिए थोड़ा बैकग्राउंड समझते हैं. साल 1984. ऑपरेशन मेघदूत के तहत भारत ने सियाचिन पर कब्ज़ा किया. पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल जिया उल हक़ को ये हार बर्दाश्त नहीं थी. 1986 में उन्होंने आदेश दिया और पाकिस्तानी सेना के स्पेशल सर्विस ग्रुप ने सियाचिन के पश्चिम में मौजूद एक पीक पर कब्ज़ा कर लिया. SSG को तब कमांड कर रहे थे परवेज़ मुशर्रफ, जो तब सेना में ब्रिगेडियर हुआ करते थे. (Siachen)

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लेफ्टिनेंट जनरल रमेश कुलकर्णी 1956 में गढ़वाल राइफल्स में कमीशन हुए (तस्वीर: harpercollins )

जीती हुई पीक का नाम उन्होंने क़ायद रखा. मुहम्मद अली जिन्ना के नाम पर. क़ायद पीक पर कब्ज़ा होते ही पाकिस्तान फायदे की स्थिति में आ गया. यहां से भारत की सोनम और अमर नाम की दो पोस्टों पर साफ़ नज़र रखी जा सकती थी. हालांकि इस पीक की कमान संभालना बहुत मुश्किल काम था. सोचिए 20 हजार फ़ीट की ऊंचाई, जिसके चारों ओर 500 मीट बर्फ की दीवार है, ऊपर चढ़ने के लिए 85 डिग्री की सीध पर चढ़ाई चढ़कर आप पहुंचेगे एक ऐसे जगह पर जहां रात को तापमान -50 डिग्री पहुंच जाता है.

हालत इतने भयावह थे कि 1986 में एक बर्फीले तूफ़ान ने पूरी पाकिस्तानी गैरिसन को साफ़ कर दिया. सिर्फ एक फौजी बचे, लेफ्टिनेंट ज़फर अब्बासी, उन्हें भी अपने हाथ और पांव गंवाने पड़े. इसके बावजूद पाकिस्तानी फौज इस पीक पर डटी रही. यहां से उन्हें 1984 में मिली हार का बदला लेना था. कोशिश शुरू हुई अप्रैल 1987 में. पाकिस्तानी सेना ने सोनम पोस्ट पर गोलीबारी की. जिसमें भारतीय फौज के दो जवान मारे गए. इसके अलावा रसद पहुंचाने के लिए आते हुए भारतीय हेलीकाप्टर पर भी गोलीबारी की जाने लगी. भारत के पास अब कोई ऑप्शन नहीं था. अगर क़ायद नाम की इस पीक पर कब्ज़ा न किया तो पाकिस्तान जीना हराम कर देगा. 

बर्फ की दीवार के पार 

पीक पर कब्ज़े की जिम्मेदारी मिली जम्मू कश्मीर लाइट इन्फेंट्री की आठवीं बटालियन को. मिशन को लीड करने वाले थे सेकेण्ड लेफ्टिनेंट राजीव पांडे. उनका ऑब्जेक्टिव था, चोटी के नजदीक पहुंचकर पाकिस्तानी फौज की टोह लेना. राजीव और उनकी टीम ने खड़ी बर्फ की दीवार पर चढ़ाई शुरू की. और वहां रस्सी और कब्ज़ों से निशानदेही भी कर दी. लेकिन इसी दौरान पाकिस्तानी फौज की नज़र उन पर पड़ी और गोलीबारी शुरू हो गई. लेफ्टिनेंट राजीव समेत भारत के 10 सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए.

सेना के सामने अब दो चुनौतियां थी. उन्हें अपने साथियों के शव वापिस लेकर आने थे और साथ ही पाकिस्तानी फौज को क़ायद पीक से हटाना था. जब तक ऐसा न होता न रसद आ सकती थी न हेलीकॉप्टर. अपनी किताब सियाचिन 1987 : बैटल फॉर द फ्रोज़न फ्रंटियर में लेफ्टिनेंट जनरल रमेश कुलकर्णी लिखते हैं,

“पोस्ट पर सिर्फ एक महीने का केरोसीन बचा था. केरोसीन के बिना स्टोव नहीं जल सकते थे. और स्टोव जलाए बिना न पानी मिल सकता था, न खाना. यहां तक कि माचिस का स्टॉक भी ख़त्म होने की कगार पर था”

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ऑपरेशन विजय के लिए मेजर वरिंदर सिंह को वीर चक्र से नवाजा गया (तस्वीर: ट्विटर/@TigerCharlii)

इससे पहले कि सेना आगे कोई कदम उठाती, सोनम और अमर, इन दो पोस्टों तक रसद पहुंचानी जरूरी थी. ये काम सिर्फ हेलीकाप्टर से हो सकता था. वो भी पाकिस्तानी गोलीबारी से बीचोंबीच. इस मिशन की जिम्मेदारी दी गई.फ्लाइट कमांडर कर्नल टॉम दुलत को. दुलत के पास 6 हेलीकॉप्टर और 12 पायलट थे. लेफ्टिनेंट जनरल रमेश कुलकर्णी ने उनकी टीम को मामले की गंभीरता समझाते हुए कहा,

“बॉयज मैं जानता हूं ये मिशन जीने और मरने का सवाल है. लेकिन अगर ये नहीं किया गया तो पोस्ट पर मौजूद हमारे 40 साथी बर्फ में जिंदा दफ़्न हो जाएंगे”

कर्नल टॉम दुलत ने उड़ान भरने से ठीक पहले कुलकर्णी से कहा, “इंशाअल्लाह हम वापिस आएंगे”. इंशा-ए- अल्लाह ही थी कि जिस मिशन में कैज़ुएलिटी की सम्भवना 60 % थी, उसमें एक भी पायलट हताहत न हुआ.

ऑपरेशन राजीव 

चोटियों तक रसद पहुंचाने के बाद अब अगले कदम की बारी थी. सेकेण्ड लेफ्टिनेंट राजीव पांडे और बाकी 9 जवानों के शव वापिस लाने थे. जिन्हें उनके साथी सोनम और अमर पोस्ट से एक महीने तक देखते रहे थे. जून के महीने तक सबका लहू उबाल मारने लगा था. इसलिए जब क़ायद की छोटी को फ़तेह करने के लिए एक मिशन की घोषणा हुई, गैरिसन का हर मेंबर इस मिशन का हिस्सा बनने के लिए आतुर हो गया. 

लेफ्टिनेंट जनरल रमेश कुलकर्णी लिखते हैं, जैसे ही मिशन के लिए वालंटियर्स का नाम मांगा गया, वहां मौजूद 120 लोगों में से सबके हाथ खड़े हो गए. जिनमें से एक नाम नायब सूबेदार बाना सिंह का भी था. बाना बेस कैम्प में स्टोर की देखरेख करते थे. लेकिन जैसे ही उन्हें मिशन का पता चला वो सीधे अपने सीनियर्स के पास पहुंच गए. कुलकर्णी लिखते हैं कि उन्हें इंकार करना बहुत मुश्किल था. बाना के साथ कुल 60 लोगों को ऑपरेशन के लिए चुना गया और इसे नाम दिया गया, ऑपरेशन राजीव.

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परमवीर चक्र विजेता नायब सूबेदार बाना सिंह को बाद में कैप्टन की मानद उपाधि दी गई (तस्वीर: ट्विटर/@banasinghpvc) 

इस ऑपरेशन को लीड करने वाले थे 8 जम्मू कश्मीर लाइट इन्फेंट्री के मेजर वरिंदर सिंह. ऑपरेशन के तहत जवानों को सोनम की पीक से क़ायद के बेस तक लिफ्ट किया जाना था. यानी 15 हजार से सीधे 20 हजार फ़ीट की ऊंचाई तक. चीजें इतनी मुश्किल थीं कि हर दो जवान जिन्हें लिफ्ट किया जाता, उनमें से एक की तबीयत इतनी ख़राब हो जाती कि उन्हें तुरंत वापिस लेकर आना होता. इस चक्कर में जून महीने में हेलीकॉप्टर्स को 200 सार्टी मारनी पड़ी. 23 जून तक जब सब लोग बेस तक पहुंच गए, ऑपरेशन का आख़िरी चरण शुरू हो गया. इस चरण में क़ायद तक सीधी चढ़ाई चढ़नी थी. दुश्मन की निगाह से बचने के लिए ये काम रात को होना था. लेकिन रात को पारा इस कदर नीचे आ जाता था कि जवानों की बंदूकों ने ही काम करना बंद कर देतीं. तीन दिन तक इस माहौल में मेजर वरिंदर और उनके साथी बर्फ की इस दीवार में फंसे रहे.

क़ायद टू बाना टॉप 

चौथे दिन जनरल रमेश कुलकर्णी ने आर्डर दिया कि आगे की चढ़ाई उन्हें दिन में ही करनी होगी. क्योंकि अगर रात का इंतज़ार किया तो बिना नींद और खाने के उनकी टीम का खड़े रहना मुश्किल हो जाएगा. मेजर वरिंदर ने फाइनल असॉल्ट की तैयारी की. अगले घंटों में एक के बाद एक तीन टीमें क़ायद की पीक की ओर बढ़ी लेकिन ऊपर से हो रही हेवी फायरिंग के चलते दोनों टीमों को लौटना पड़ा. कई जवान वीरगति को प्राप्त हुए. अब तक दोपहर के तीन बज चुके थे. सिर्फ चंद घण्टे की रौशनी बची थी. ऐसे में अगर जल्द ऊपर न पहुंचा जाता तो ऑपरेशन के फेल होने का खतरा था.

“बाना सिंह, खब्बे पासे मशीन गन दा फायर आ रहा है. अमर से. ख्याल रखी.” 

ये वो आख़िरी सन्देश था जो रेडियो से मेजर वरिंदर की टीम को भेजा गया था. नायब सूबेदार बाना सिंह तीसरी टीम को लीड कर रहे थे. और अमर पोस्ट से उन्हें कवर फायर दी जा रही थी. उन्होंने रेडियो पर जवाब दिया, “कोई गल नहीं”. और सीधे चोटी पर पहुंच गए. यहां पाकिस्तानी फौज के साथ हुई हाथापाई ने उन्होंने अकेले ही कई सैनिकों को खेत किया और सूरज ढलने से पहले पहले क़ायद पीक पर कब्ज़ा कर लिया.

मायरा मैक्डोनाल्ड अपनी किताब, डिफीट इज़ एन ऑर्फ़न : हाउ पाकिस्तान लॉस्ट द ग्रेट साउथ एशियन वॉर, में इस जीत के बारे में लिखती हैं,

“किसी को उम्मीद न थी कि भारत इस ऑपरेशन में सफल होगा. 20 हजार फ़ीट की ऊंचाई पर, बर्फ की दीवार पर चढ़ते हुए, ग्रेनेड और संगीनों से लड़ते हुए, भारत ने पाकिस्तान से चोटी को जीत लिया. 1984 में सियाचिन बाद 1987 की हार पाकिस्तान के लिए एक और शर्मिंदगी का कारण बन गई. जिसने उनके आत्मविश्वास पर गहरा असर किया.”

ऑपरेशन विजय की जीत का सहरा सभी जवानों के सर था. लेकिन जिस एक नाम के बिना ये नामुमकिन काम मुमकिन हुआ वो था बाना सिंह का. उन्हें इस ऑपरेशन में अदम्य साहस दिखाने के लिए परम वीर चक्र से नवाजा गया. कयाद पीक को न सिर्फ जीता गया बल्कि उसका नामकरण बदल कर बाना सिंह के नाम पर बाना टॉप कर दिया गया. आगे इस पीक को हथियाने के लिए पाकिस्तान ने और कोशिशें कीं. जिन्हें असफल करते हुए भारतीय फौज ने ऑपरेशन वज्र शक्ति को अंजाम दिया. इसकी कहानी कभी और. 

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