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खालिस्तान आंदोलन की असली कहानी!

1980 के दशक में जिस खालिस्तान आंदोलन की आग में पूरा पंजाब जल उठा, उसकी नींव करीब आधे दशक पहले पड़ चुकी थी.

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Jarnail Singh Bhindranwale, Indira Gandhi
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1 मार्च 2023 (Updated: 1 मार्च 2023, 09:18 IST)
Updated: 1 मार्च 2023 09:18 IST
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अगर ऑप्शन दिया जाए कि इतिहास से कोई एक साल गायब कर दिया जाए, तो निस्संदेह भारत के लिए वो साल 1984 का होगा. ये वही साल था जब ऑपरेशन ब्लूस्टार(Operation Blue Star 1984) जैसी त्रासद घटना घटी. इसका नतीजा हुआ कि इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. इंदिरा की हत्या के बदले में सिखों का कत्लेआम हुआ. इसके अलावा भोपाल गैस कांड की घटना भी साल 1984 में ही हुई थी. भोपाल गैस कांड के अलावा बाकी तीनों घटनाएं आपस में गुत्थमगुत्था हैं. इस सब की शुरुआत हुई थी एक नाम से, एक मांग से. क्या थी ये मांग? - राज करेगा खालसा, खालसा बाग़ी या बादशाह. (Sikh separatist movement)

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1984 में खालिस्तान मूवमेंट की आग ने पंजाब को बर्बाद किया, जिसे बुझाने में पंजाब के कई दशक खो गए. इसके बाद भी ये आग रह रहकर अपना सिर उठाती रहती है. कभी भारत में तो कभी भारत से बाहर. क्या है खालिस्तान आंदोलन की पूरी कहानी. चलिए जानते हैं. 

सिख धर्म का इतिहास 

खालिस्तान आंदोलन की तह में जाने के लिए हमें सिख धर्म के इतिहास को समझना पड़ेगा. पन्द्रवीं सदी के आखिर में गुरु नानक ने सिख धर्म की स्थापना की. इस परंपरा में सिखों के कुल 10 गुरु हुए. जिनमें आख़िरी सशरीर गुरु गोविंद सिंह थे. गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की शुरुआत कर सिख धर्म को एक फॉर्मल रूप दिया. और इस धर्म के नियम कायदे तय किए. अपने छोटे से इतिहास में सिख गुरुओं को मुग़ल बादशाहों के हाथों क्रूरता का सामना करना पड़ा था. इसलिए गुरु गोविंद सिंह के कौल पर खालसा आर्मी की शुरुआत हुई. (Khalistan movement)

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Nawab Kapur Singh
नवाब कपूर सिंह ने सिखों को एक करने के लिए दल खालसा की स्थापना की (तस्वीर- Wikimedia commons)

गुरु गोविन्द सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को खालसा आर्मी का लीडर बनाया. बंदा सिंह बहादुर की मौत के बाद साल 1733 में मुगलों ने सिखों के साथ संधि की कोशिश की और सिखों के लीडर कपूर सिंह को नवाब की उपाधि सौंप दी. नवाब कपूर ने सिखों को एक करने के लिए दल खालसा की स्थापना की. दल खालसा को दो हिस्सों में बांटा गया था. बुड्ढा दल और तरुण दल. बुड्ढा दल में 40 की उम्र से ऊपर के अनुभवी लोग होते थे. और तरुण दल में 40 की उम्र से कम के लोग. बुड्ढा दल का काम धर्म का प्रचार प्रसार करना, और सिख गुरुद्वारों की रक्षा करना होता था. वहीं तरुण दल एक्टिव ड्यूटी पर तैनात रहता था.

आगे जाकर इन दोनों दलों को 12 छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा गया. हर छोटा दल अपने अपने सूबे की रक्षा करता और उसमें विस्तार भी करता. इस दौरान जीती गई जमीन का हिसाब हरमंदिर साहिब में जाकर लिखा जाता. बाकायदा दस्तावेज़ तैयार होते. आगे जाकर इन दस्तावेज़ों के आधार पर रियासतें तैयार हुई, जिन्हें मिस्ल कहा जाने लगा. चूंकि दल खालसा के 12 हिस्से थे. इसलिए सिखों की रियासत 12 मिस्लों के रूप में तैयार हुई. 18 वीं सदी के अंत तक ये मिस्लें यूं ही चलती रही और कई बार इन्हें आपसी लड़ाई का सामना भी करना पड़ा. फिर साल 1799 में रणजीत सिंह ने लाहौर जीता और 1801 में खुद को पंजाब का महराजा घोषित कर दिया. उन्होंने 12 मिस्लों को एक किया और सिख साम्राज्य की शुरुआत की. महराजा रणजीत सिंह ने अपने राज को सरकार खालसा का नाम दिया. और अगले दशकों में सिख साम्राज्य को तिब्बत और अफ़ग़ानिस्तान की सीमाओं तक पहुंचा दिया.

अंग्रेज़ों का राज और सिखों के लिए अलग देश की मांग 

ये साम्राज्य आधी सदी तक चला लेकिन 1849 में अंग्रेजों से हार मिलने के बाद सिख साम्राज्य कई टुकड़ों में बंट गया. जिसमें से लगभग सारा पंजाब अंग्रेजों के अधीन हो गया और उन्होंने उसका नाम पंजाब प्रोवेंस रख दिया. जो छोटे मोटे प्रिंसली स्टेट बचे भी, उन्होंने भी अंततः अंग्रेजों की दासता स्वीकार कर ली. सिखों और अंग्रेज़ों के बीच रिश्ते कुछ ख़राब नहीं थे. बाकायदा सिख, ब्रिटिश आर्मी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करते थे. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध और जलियांवाला बाग़ नरसंहार की घटना ने पंजाब के मन में ब्रिटिश हुकूमत के लिए नफरत भर दी. 1930 के आसपास, जब लगने लगा कि अंग्रेज़ भारत से चले जाएंगे, पंजाब में सिखों के बीच सिख होमलैंड की मांग उठने लगी. इस मांग को उठाने में सबसे आगे था ‘शिरोमणी अकाली दल’(Shiromani Akali Dal). 1920 में बना ये संगठन खुद को सिखों का प्रतिनिधि मानता था. और मनाता था कि सिखों का अपना अलग देश होना चाहिए.

1940 में लाहौर रेसोलुशन पास हुआ. जिसमें मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनाने की मांग उठाई. मौका देखकर अकाली दल ने भी सिखों के लिए अलग देश की मांग उठाना शुरू कर दिया. पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में लिखते हैं,

“सिखों में ‘अलग राज्य’ की कल्पना हमेशा से ही थी. रोज़ की अरदास के बाद गुरु गोविंद सिंह का ‘राज करेगा खालसा’ नारा लगाया जाता है. इस नारे ने अलग राज्य के ख्व़ाब को हमेशा जिंदा रखा.”

खुशवंत आगे लिखते हैं,

“सिख नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि अंग्रेज़ों के बाद पंजाब पर सिखों का हक है.”

लेकिन आजादी के बाद हुए विभाजन ने उनकी ‘अलग राज्य’ की उम्मीदों को धूमिल कर दिया था. आजादी के बाद भी सिख लगातार अलग देश या कम से कम भारत के अंदर एक आजाद सूबे की मांग उठाते रहे. लेकिन धर्म के आधार पर अलग देश की मांग को सरकार ने अस्वीकार कर दिया.ये स्ट्रटेजी फेल हो चुकी थी. लेकिन आजादी के कुछ साल बाद हुई एक घटना ने अकाली दल को एक और मौका दे दिया. हुआ ये कि 1953 में आंध्र प्रदेश को अलग राज्य बना दिया गया. जो भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य था. इससे ‘क्यू’ लेकर अकाली दल ने ‘सिखों’ के बदले ‘पंजाबी भाषा’ बोलने वालों के लिए अलग राज्य की मांग कर दी. इस स्ट्रेटेजी को बड़ी सफलता मिली जब 1 नवंबर, 1966 में उस वक्त के पंजाब को भाषा के आधार पर विभाजित करके पंजाब (पंजाबी भाषी) एवं हरियाणा (हिंदी भाषी) बना दिया गया. जैसा कि अक्सर होता है, यहां भी नर्क का रास्ता अच्छी नीयतों से तैयार हुआ था.

Jagjit singh chauhan
खालिस्तान की मांग करने वाले सिख अलगावादी नेता जगजीत सिंह चौहान (तस्वीर- Wikimedia commons)
खालिस्तान के मुद्दे को पाकिस्तान ने खूब भुनाया 

पंजाब बनने के बाद सिखों की मांग पूरी हो जानी चाहिए थी. लेकिन यहां से चीजें सुधरने के बजाय और बिगड़ती चली गई. पंजाब गठन के दौरान सरकार द्वारा चंडीगढ़ को पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी बना दिया गया. कुछ पंजाबी बोलने वाले इलाके हरियाणा राज्य को दे दिए गए. एक और बड़ी दिक्कत थी पानी को लेकर. केंद्र सरकार ने सतलज, रावी और ब्यास नदी पर बनी नहरों को अपने कंट्रोल में लेकर उनके मनमाने आवंटन कर दिए. इस चक्कर में इन नदियों का सिर्फ 23% पानी पंजाब को मिला. ये सब मुद्दे पंजाब में नए उबाल का कारण बन रहे थे. 1967 में हुए चुनावों में अकाली दल ने मांग उठाई कि पंजाब को जम्मू-कश्मीर की तरह धारा 370 के तहत विशेष स्टेटस दिया जाए.

इन चुनावों में अकाली दल को जीत मिली. हालांकि इस दौरान अकाली दल ने कभी अलग देश की मांग नहीं रखी. कम से कम लिखित तौर पर तो नहीं. वो बस पंजाब के लिए ज्यादा अधिकारों की मांग कर रहे थे. और इसी चक्कर में अकाली दल और कांग्रेस आमने सामने आकर खड़े हो गए. अब सवाल ये कि इस सब के बीच खालिस्तान की मांग पहली बार कहां से उठी. इसके लिए हमें चलना पड़ेगा देश के बाहर. 13 अक्टूबर, 1971 की बात है. अमेरिकी अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स में एक विज्ञापन छपा. इस विज्ञापन में खालिस्तान नामक नए देश की घोषणा की गई थी. और दुनिया भर में रहने वाले सिखों से मदद देने को कहा गया था. इस विज्ञापन को छपवाने वाले शख्स का नाम था, जगजीत सिंह चौहान. जगजीत एक समय में पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर रह चुका था.

1969 में चुनाव हारने के बाद वो ब्रिटेन गया. और यहां उसने खालिस्तान के समर्थन में अभियान चलाना शुरू किया. खालिस्तान का मतलब होता है, शुद्ध स्थान. जैसे खालिस घी, खालिस दूध वैसे ही खालिस्तान. जगजीत जिस खालिस्तान की मांग कर रहा था, उसमें पंजाब, हरियाणा, हिमांचल, और राजस्थान के भी कुछ हिस्से आते थे. ब्रिटेन में जगजीत की मुहीम को कोई खास समर्थन नहीं मिला. इसी बीच 1971 का युद्ध हुआ. और पाकिस्तान ने इस युद्ध में खालिस्तान आंदोलन को हवा देने की कोशिश की. जगजीत सिंह को पाकिस्तान आने का निमंत्रण मिला. यहां उसने फिर खालिस्तान की बात की. जिसे पाकिस्तान की प्रेस ने खूब जोर-शोर से उछाला.

जगजीत के अनुसार ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसे प्रस्ताव दिया था कि ननकाना साहिब खालिस्तान की राजधानी बनेगा. अगले कुछ सालों में जगजीत की मुहीम को यूरोप और अमेरिका के एक सिख धड़े द्वारा समर्थन मिलने लगा, और जगजीत की हैसियत बढ़ती गई. हालांकि जगजीत की कोशिशों के बावजूद हिंदुस्तान में अभी तक अलग देश की मांग नहीं पैदा हुई थी. साल 1973 में अकाली दल की कार्यसमिति ने आनंदपुर साहिब में आयोजित एक सम्मेलन में एक नीतिगत प्रस्ताव अपनाया. जिसे आनंदपुर रेसोलुशन कहा जाता है. इस प्रस्ताव में कहा गया था कि केंद्र सरकार को डिफेंस, मुद्रा और विदेश नीति को छोड़कर बाकी मामले पंजाब पर छोड़ देने चाहिए. इसके एक पंजाबी संस्करण में सिखों को एक राष्ट्र के रूप बयान किया गया था. हालांकि ये संस्करण कभी प्रकाशित नहीं हुआ. इस प्रस्ताव पर केंद्र की भी प्रतिक्रिया आई. इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) ने इस प्रस्ताव को ‘देशद्रोही’ बताया. उन्होंने कहा कि ये कोई ऑटोनोमी की डिमांड नहीं ये तो अलग देश की डिमांड है. इसके बाद ये प्रस्ताव ठन्डे बस्ते में चला गया और अगले एक दशक तक इसकी ज्यादा बात नहीं हुई. 

ज्ञानी जैल सिंह मुख्यमंत्री बने 

इधर अकाली दल पर नकेल कसने के लिए 1972 में इंदिरा ने सरदार ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया. जैल सिंह पंजाब में अकालियों का वर्चस्व तोडना चाहते थे. गुरुद्वारों, कॉलेज और स्कूलों में अकालियों का प्रभाव था. इसकी काट के लिए जैल सिंह ने सिख जनता को खुश करने के लिए सरकारी कार्यक्रम चलवाए. सिख गुरुओं के नाम पर सड़कों और स्कूलों के नामकरण हुए. शहीदी दिवसों पर सरकारी कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा. लेकिन ये सब भी काफी नहीं था. इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस की छवि इतनी खराब हुई कि 1977 में जैल सिंह पंजाब से रुखसत हो गए. अकाली दल एक बार फिर सत्ता में आ गया.

Jarnail Singh Bhindranwale
जरनैल सिंह भिंडरांवाले पंजाब में सिखों के धार्मिक समूह दमदमी टकसाल का प्रमुख लीडर था (तस्वीर- Getty)

1977 में ही एक और शख्स की वापसी हुई. जगजीत सिंह चौहान भारत लौटा. यहां उसने खालिस्तान की मांग को हवा दी. और 1979 में ब्रिटेन जाकर खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना कर दी. 1980 में उसने खालिस्तान नामक नए देश का ऐलान कर दिया. इतना ही नहीं खलिस्तान हाउस’ नाम की एक इमारत से उसने खालिस्तान के‘पासपोर्ट’, ‘डाक टिकट’ और ‘खालिस्तान डॉलर’ भी जारी कर दिए. उसने ब्रिटेन और यूरोप के दूसरे देशों में खालिस्तान के दूतावास भी बना डाले. इस दौरान वो जरनैल सिंह भिंडरांवाले(Jarnail Singh Bhindranwale) के संपर्क में आया. जिसका पंजाब में लगातार प्रभाव बढ़ता जा रहा था. भिंडरावाले के उभार को समझने के लिए एक घटना के बारे में जानिये.

भिंडरांवाले का उदय 

साल 1978. बैसाखी का दिन. इस तारीख का सिख धर्म में ख़ास महत्त्व है क्योँकि गुरु गोविन्द सिंह ने बैसाखी के दिन ही खालसा पंथ की शुरुआत की थी. उस रोज़ अमृतसर में उत्सव का माहौल था. बखेड़ा तब खड़ा हुआ जब निरंकारी पंथ का समूह सरकार के पास एक जुलूस की पर्मिशन लेने पहुंच गया. पंजाब में तब अकाली दल की सरकार थी और उन्होंने पर्मिशन दे भी दी. ये जानते हुए कि परंपरागत सिख इससे नाराज होंगे. ऐसा हुआ भी. जरनैल सिंह भिंडरांवाले, जो सिखों के धार्मिक समूह दमदमी टकसाल का प्रमुख लीडर था, उसने तत्काल दरबार साहिब के पास एक सभा बुलाई. सभा में निरंकारियों के खिलाफ जोरदार भाषण दिया गया. इसके बाद इधर से एक जुलूस निरंकारियों की तरफ बढ़ा. इन लोगों के पास कृपाण थे. तो दूसरी तरफ निरंकारियों के पास बन्दूक. झड़प हुई और 13 लोग मारे गए.

इस मामले में निरंकारी पंथ प्रमुख गुरबचन सिंह की गिरफ्तारी हुई. लेकिन मामले की नजाकत देखते हुए ट्रायल हरियाणा कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया. इस घटना के बाद भिंडरांवाले और उनके समर्थकों ने अकाली सरकार की नाक में दम कर दिया. पंजाब में भिंडरांवाले का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था. तब दिल्ली कांग्रेस की नजर भिंडरांवाले पर पड़ी. अपनी किताब ‘ट्रेजेडी ऑफ पंजाब’ में कुलदीप नय्यर इस पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा देते हैं. कुलदीप लिखते हैं कि तब पंजाब की कमान संजय गांधी के हाथ में थी. पंजाब में परंपरागत सिख धड़ा अकाली दल का समर्थक था. इसलिए संजय ने सुझाव दिया कि किसी ऐसे व्यक्ति को अकाली दल के चैलेंजर के रूप में खड़ा किया जाए, जो सिखों में खासी पकड़ रखता हो. इसके लिए दो लोगों को चुना गया. अंत में संजय गांधी ने फैसला किया कि जरनैल सिंह भिंडरांवाले को इस काम के लिए पुश किया जाए. कुलदीप नय्यर के हिसाब से ये बात कांग्रेस नेता कमलनाथ ने खुद उन्हें बताई थी.

बैसाखी घटनाक्रम के कुछ रोज़ बाद ही ‘दल खालसा’ नाम के एक संगठन ने चंडीगढ़ में प्रेस कांफ्रेंस की. ये भिंडरांवाले का ही एक पॉलिटिकल फ्रंट था. इस संगठन के माध्यम से भिंडरांवाले अपने पॉलिटिकल उद्देश्य को आगे रख सकते थे. और साथ ही उनके पास ये कहने का मौका भी रहता कि वो सिर्फ संत हैं और उनका पॉलिटिकल मामलों से कुछ लेना देना नहीं. सतीश जैकब अपनी किताब, “अमृतसर: मिसेज़ गांधी लास्ट बैटल” में लिखते हैं कि ‘दल खालसा’ ने जो प्रेस कांफ्रेंस की थी, उसका कुल खर्च 600 रूपये आया था. और इसका बिल भरने वाले और कोई नहीं, तब कांग्रेस के नेता और आगे जाकर भारत के राष्ट्रपति बनने वाले ज्ञानी जैल सिंह थे.

जनवरी 1980 तक इंदिरा की सत्ता में वापसी हो चुकी थी. चुनावों के दौरान भिंडरांवाले ने कांग्रेस के लिए प्रचार किया था. और एक वक्त तो इंदिरा और भिंडरांवाले ने स्टेज भी शेयर किया था. इलेक्शन के कुछ दिन बाद ही बैसाखी झगड़े को लेकर फैसला आया और गुरबचन सिंह रिहा हो गए. इस खबर से भिंडरांवाले इतने बौखलाए कि उन्होंने अकालियों के खिलाफ और जोर-शोर से बोलना शुरू कर दिया. ठीक दो महीने बाद अप्रैल महीने में गुरबचन सिंह की उनके दिल्ली वाले निवास पर हत्या कर दी गई. नय्यर लिखते हैं कि CBI इन्वेस्टिगेशन में सात लोगों का नाम आया था. जो सभी भिंडरांवाले के जत्थे से जुड़े हुए थे. इस क़त्ल में शामिल मर्डर वेपन का लाइसेंस भी भिंडरांवाले के एक भाई के नाम से लिया गया था. इसके बाद साल 1981 में पत्रकार लाला जगत नारायण की हत्या हुई. जगत नारायण, ‘हिन्द समाचार समूह’ के संस्थापक थे. इस हत्या में भी भिंडरांवाले से जुड़े लोगों का नाम आया.

Operation Blue Star
जून 1984 में हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार में जरनैल सिंह भिंडरांवाले मारा गया. उसका शव अकाल तख़्त के आंगन में पड़ा मिला (तस्वीर- Getty)

आगे का घटनाक्रम बिलकुल तीर की सीध पर हुआ. इन मामलों में पुलिस ने भिंडरांवाले को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन फिर इस कदर हंगामा हुआ कि भिंडरांवाले को छोड़ना पड़ा. दो दिन की जेल से भिंडरावाले को इतनी पॉपुलैरिटी मिली, जितनी सालों में न मिल पाई थी. गिरफ्तारी के बाद बाहर आए भिंडरांवाले ने कांग्रेस के खिलाफ और जमकर बोलना शुरू कर दिया. दुश्मन का दुश्मन दोस्त की तर्ज़ पर भिंडरांवाले को अकाली दल का साथ मिला. और दोनों ने मिलकर धर्म युद्ध मोर्चा नामक एक आंदोलन की शुरुआत कर दी. इस आंदोलन का उद्देश्य था, आनंदपुर साहेब रेसोल्यूशन को एग्ज़ीक्यूट करवाना. ये साल 1982 की बात है. यानी जैसा कि पहले बताया गया था, आनंदपुर साहेब रेसोल्यूशन, जो तब भुला दिया गया था अब चर्चा में आ गया था. जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. जितने उग्र प्रदर्शन, उतना ही उग्र कांग्रेस सरकार (जो केंद्र में भी थी और राज्य में भी) का कॉम्बैट. पंजाब में स्थिति बद से बदतर होती गई.

इस बीच भिंडरांवाले ने गोल्डन टेम्पल को अपना ठिकाना बना लिया. वहां से आदेश जारी किए जाने लगे. अगले दो सालों में सरकार ने कई बार भिंडरांवाले को गिरफ्तार करने की कोशिश की. लेकिन मामला बिगड़ता चला गया. इस सब की परिणीति हुई ऑपरेशन ब्लू स्टार में.

भिंडरांवाले की मौत के बाद खालिस्तान मूवमेंट का क्या हुआ?

 भिंडरावाले को खालिस्तान मूवमेंट का चेहरा माना जाता है. लेकिन असल में इस मूवमेंट की जड़ें विदेश में थीं, जैसा कि पहले बताया जगजीत सिंह चौहान, जो ब्रिटेन में खालिस्तान की घोषणा कर चुका था, उसने 1984 के बाद भी इस आग को जिन्दा रखने की कोशिश की. इधर 1984 से लेकर अगले एक दशक तक पंजाब उग्रवाद की चपेट में रहा. लेकिन इस एक दशक में जनता भी इस अशांति से तंग आ चुकी थी.

धीरे-धीरे पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की आग बुझती चली गई. जगजीत सिंह के ऊपर राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप लगे. सरकार ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया. फिर 2001 में अटल बिहारी गवर्नमेंट में उसे माफी मिली और वो भारत वापिस आ गया. भारत आकर भी उसने खालिस्तान की मांग छोड़ी नहीं. बल्कि उसने खालसा राज पार्टी का गठन किया. और बोला कि लोकतान्त्रिक तरीके से खालिस्तान की मांग को आगे बढ़ाएगा. इस बार जनता से उसे कोई सपोर्ट न मिला और 2007 में हृदयघात से उसकी मृत्यु हो गई. इस तरह भारत में खालिस्तान आंदोलन लगभग ख़त्म होता गया. लेकिन जगजीत की लगाई आग, विदेशों में खूब फली-फूली. विदेशों में खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स, खालिस्तान लिबरेशन फ़ोर्स जैसे कई संगठन खड़े हुए. जिनमें से ज्यादातर को आतंकी संगठनों का दर्ज़ा दिया गया. ये संगठन लगातार विदेशों में इस मुद्दे को उठाते रहे. जिसके चलते खालिस्तान की आग 21वीं सदी में भी पूरी तरह नहीं बुझ पाई है.

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