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हिंदू धर्म के इन मंदिरों में प्रेम में लीन ऐसी मूर्तियां किसने और क्यों बनवाईं?

देश में कहां-कहां ऐसे मंदिर है, उनसे जुड़ी बातें जान लीजिए

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हिंदू धर्म के कई मंदिरों ऐसे हैं. जहां रति क्रिया में लीन मूर्तियों को दर्शाया गया है.
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अमित
23 नवंबर 2020 (Updated: 23 नवंबर 2020, 04:50 PM IST)
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सोशल मीडिया पर एक यूजर का ट्वीट पढ़ा. इसमें लिखा था, 'अब बस मंदिरों में सेक्स दिखाना बाकी रह गया, सोते रहो हिंदुओ !!' इस यूजर ने यह ट्वीट विक्रम सेठ की किताब पर बनी नेटफ्लिक्स सीरीज 'अ सूटेबल बॉय' पर चल रहे विवाद के मद्देनजर किया था. ट्विटर पर #BoycottNetflix हैशटैग से ट्वीट करने वाले कुछ लोगों का आरोप है कि सीरीज के एक सीन में लड़का मंदिर प्रांगण में लड़की को चूम रहा है. बैकग्राउंड में आरती बज रही है. ये सहन नहीं किया जा सकता. इस ट्वीट के जवाब में कुछ लोगों ने उन हिंदू मंदिरों की तस्वीरें डालना शुरू कर दिया, जहां यौन क्रीड़ारत नग्न मूर्तियां हैं. आइए बताते हैं, ऐसे ही मंदिरों के बारे में, और जानते हैं आखिर क्यों बनवाई गईं ऐसी मूर्तियां.
पहले उन मंदिरों के बारे में बात, जहां रतिक्रीड़ा में रत मूर्तियां हैं देशभर में कामक्रीड़ा से जुड़ी मूर्तियों वाले मंदिर कई हैं. कुछ दुनियाभर में पॉपुलर हैं, और कुछ को सिर्फ लोकल लोग ही जानते हैं. प्रमुख तौर पर ऐसे 5 मंदिर हैं, जो अपनी खास कामुक मूर्तिकला को लेकर चर्चित हैं.
खजुराहो मंदिर प्रांगण (मध्यप्रदेश)
जब भी कामक्रीड़ा में रत मूर्तियों का जिक्र चलता है तो सबसे पहले खजुराहो के मंदिरों का ही जिक्र आता है. इस मंदिर प्रांगण में लगभग 85 मंदिर बनवाए गए थे. इनमें से 26 तो अब भी अच्छे हाल में हैं. यहां हिंदू धर्म के अलावा जैन तीर्थंकरों के भी मशहूर मंदिर हैं. मंदिर लगभग 20 वर्ग किलोमीटर के एरिया में फैले हुए हैं. आपको शायद यह जानकर हैरानी होगी कि यहां पर बने ढेरों मंदिरों में सैकड़ों मूर्तियों उकेरी गई हैं, लेकिन सिर्फ 10 फीसदी ही ऐसी हैं जिनमें कामक्रीड़ा का चित्रण है. इसके प्रांगण में बने महत्वपूर्ण मंदिर हैं- कंदरिया महादेव मंदिर, चौसठ योगिनी का मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, मतंगेश्वर मंदिर, पार्श्वनाथ मंदिर आदि.
कहां है - छतरपुर (मध्यप्रदेश) जिले से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर
कब बने - इन्हें सन 885 से लेकर 1125 तक अलग-अलग राजाओं ने बनवाया.
किसने बनवाया - इन मंदिरों को चंदेल वंश के शासकों ने बनवाया. मंदिरों को बनवाने में यशोवर्मन और धंगदेव का नाम सबसे प्रमुख है. ज्यादातर मंदिर इन शासकों के जमाने में ही बनवाए गए.
पूजा होती है? - ये मंदिर आम लोगों की पूजा के लिए नहीं खुला है.
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खजुराहो के मंदिरों में बने इरोटिक स्कल्प्चर दुनिया भर से लोगों को आकर्षित करते हैं.

भंड देव का मंदिर (राजस्थान)
इस मंदिर को हूबहू खजुराहो मंदिर की शैली में ही बनाया गया है. इस पर उकेरी गई कामक्रीड़ा में रत मूर्तियां भी लगभग वैसी ही दिखती हैं. इस वजह से इसे छोटा खजुराहो भी कहा जाता है. मुख्य शिव मंदिर के अलावा 750 सीढ़ियां चढ़ने पर देवी अन्नपूर्णा और देवी कसनई के मंदिर भी इसका हिस्सा हैं.
कहां है - ये मंदिर राजस्थान के बारां जिले में पड़ता है. कोटा से इसकी दूरी तकरीबन 70 किलोमीटर और जयपुर से 250 किलोमीटर पड़ती है.
कब बना - जब मध्यप्रदेश में खजुराहो मंदिरों का निर्माण चल रहा था, उस बीच यह मंदिर भी बनाया जा रहा था. बात 10वीं शताब्दी की है.
किसने बनवाया - तांत्रिक परंपरा से जुड़ा मंदिर नागर शैली में बना है. इसे नाग वंश के शासक मलय वर्मा ने अपने शत्रुओं पर विजय पाने के बाद भगवान शिव के प्रति श्रद्धा दिखाने के लिए बनवाया था.
पूजा होती है?मंदिर में आम लोग पूजा कर सकते हैं. यहां पर सालाना मेला भी लगता है.
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राजस्थान में बना भंड देव का मंदिर खजुराहो की तरह कामक्रिया में रत मूर्तियों की वजह से छोटा खजुराहो कहलाता है.

सूर्य मंदिर, कोणार्क (उड़ीसा)
जैसा कि नाम से ही पता चलता है, इसे भगवान सूर्य को समर्पित करते हुए बनवाया गया है. यहीं पर सूर्य का 100 फुट ऊंचा रथ है. इसे स्थापत्य कला के मामले में दुनियाभर में बेहतरीन नमूने के तौर पर देखा जाता है. मंदिर की दीवारों पर कामक्रीड़ा में रत मूर्तियों के अलावा जिस तरह से सूर्य के रथ के 24 पहियों को बनाया गया है, वह काफी खास है. जब यह मंदिर बना तो प्रांगण तो बड़े हिस्से में इसका फैलाव था. कई मंदिर बनाए गए थे. लेकिन अब सिर्फ एक बड़ा मंदिर ही बचा है.
कहां है - कोणार्क में बना सूर्य मंदिर पुरी से तकरीबन 32 किलोमीटर की दूरी पर है.
कब बना - इसका निर्माण 1230 में हुआ था.
किसने बनवाया - माना जाता है कि कोणार्क का सूर्य मंदिर पूर्वी गंग वंश के शासक नरसिंह देव प्रथम ने 1238 से 1250 के बीच करवाया था.
पूजा होती है? -आर्कियोलॉजिकल साइट होने से आम लोगों को पूजा करने के लिए ये मंदिर नहीं खुला है.
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कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी भव्यता और रति मूर्तिकला की वजह से लोगों में काफी पॉपुलर है.

मार्कंडा मंदिर, महाराष्ट्र
भगवान शिव के इस मंदिर पर मौजूद कामक्रीड़ाओं की मूर्तियां इसे खास बनाती हैं. इन मूर्तियों की वजह से ही उस मंदिर को विदर्भ का खजुराहो कहा जाता है. बाणगंगा नदी के किनारे बना यह मंदिर प्रांगण 40 एकड़ में फैला है. प्रांगण में ज्यादातर मंदिर क्षतिग्रस्त हाल में हैं. आसपास के लोगों में यह भी कहानी प्रचिलित है कि इन मंदिरों का निर्माण एक रात में ही हो गया था.
कहां है - महाराष्ट्र के गणचिरौली जिले में चोमोर्सी गांव में ये मंदिर पड़ते हैं.
कब बना - इन मंदिरों का निर्माण की सही तारीख किसी को नहीं पता लेकिन इसके स्थापत्य कला से जानकार मानते हैं कि इसे 8वीं से 12 शताब्दी के बीच बनाया गया होगा.
किसने बनवाया - माना जाता है कि इन मंदिरों का निर्माण 8 से 12 वीं शताब्दी के बीच राज करने वाले राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने बनवाया है.
पूजा होती है? - मंदिर के हाल ऐसे नहीं हैं कि वहां पूजा-पाठ हो सके.
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मार्कंडा महादेव मंदिर का काफी हिस्सा गिर गया है लेकिन फिर भी इसमें बहुत सी मूर्तियां हैं जो इसे खास बनाती हैं.

 
भोरमदेव मंदिर, छत्तीसगढ़
भगवान शिव का यह मंदिर अपनी महीन नक्काशी के लिए दुनियाभर में जाना जाता है. इस पर बनी कामक्रीड़ा की मूर्तियां बेहतरीन स्थिति में हैं. इन्हें देखने हर साल हजारों लोग पहुंचते हैं. यहां कुल 4 मंदिर हैं. इसमें सबसे पुराना मंदिर ईटों का बना है. बाद के मंदिर पत्थरों से बनाए गए हैं. इस इलाके में गोंड जनजाति के लोग भगवान शिव को भोरमदेव के नाम से पूजते हैं. इसी वजह से मंदिर का नाम भोरमदेव मंदिर पड़ा.
कहां है - छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के कवर्धा कस्बे में चौरा गांव में ये मंदिर बने हुए हैं.
कब बने - 7 वीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी के बीच इन मंदिरों को बनवाया गया था.
किसने बनवाया - मंदिर को फणिनाग वंश के शासक लक्ष्मण देव राय और गोपाल देव ने बनवाया. आगे जाकर नागवंश के दूसरे शासकों ने जो तांत्रिक पूजापाठ में विश्वास करते थे इनका संरक्षण किया.
पूजा होती है? -यह मंदिर पूजा पाठ के लिए खुला रहता है.
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स्थानीय जनजाति में भगवान शिव को भोरम देव के नाम से पूजा जाता है. इसी वजह से ये शिव मंदिर भोरमदेव का मंदिर कहलाया.

कई दूसरे मंदिर भी हैं, जिनमें कामक्रीड़ा को दीवारों पर बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है.
# राजस्थान का रनकपुर जैन मंदिर भी तांत्रिक पूजापाठ और कामक्रीड़ा में रत मूर्तियों के लिए खासा फेमस है. यह 1437 में बना और इसका निर्माण एक स्थानीय व्यापारी दरनाशाह ने करवाया था.
# कर्नाटक के बेल्लारी जिले में हंपी नामक स्थान पर बना विरूपाक्ष मंदिर भी अपनी इरोटिक मूर्तियों की वजह से प्रसिद्ध है. हंपी की वर्ल्ड हेरिटेज साइट का हिस्सा ये मंदिर 9वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के बीच बनवाया गया था.
# राजस्थान के उदयपुर में बना जगदीश मंदिर भी अपनी मूर्तियों की वजह से काफी मशहूर रहा है. भगवान विष्णु के इस तीन मंजिला मंदिर को जगन्नाथ मंदिर भी कहा जाता है
आखिर क्यों बनवाए गए ऐसे मंदिर?
देश भर में फैले मंदिरों में बार-बार कामक्रीड़ा से जुड़ी मूर्तियों के दर्शन होते हैं. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है? इन मूर्तियों के जरिए क्या कहने की कोशिश की जा रही थी?
मशहूर मिथॉलजिस्ट देवदत्त पटनायक का कहना है कि
मंदिर को बनाने का खास शिल्पशास्त्र है. मंदिरों में दांपत्य या श्रंगार की मूर्तियां हमेशा दिखती हैं. हर मंदिर में स्री-पुरुष की मूर्तियां देखी जा सकती हैं. जरूरी नहीं हैं कि मूर्तियां इरोटिक ही हों. उनमें हमेशा ही प्रेम की बात होगी. जैसे एक झूले पर या नौका पर प्रेमी-प्रेमिका होंगे. एक-दूसरे की तरफ खास तरीके से देखते हुए मूर्तियां होंगी. इसके अलावा रतिक्रीड़ा की मूर्तियां भी हैं, लेकिन बाकी सबके मुकाबले हमेशा ये कम ही दिखेंगी. इसके पीछे का कारण यही है कि उसका जीवन में स्थान जरूर है, लेकिन सीमित मात्रा में. बाकी सभी चीजों का भी संतुलन बनाए रखना है.
आजकल हम ये सोचते हैं कि कोई संत-महात्मा है. ये कामवासना से जुड़ा है. ये सब अलग-अलग है. लेकिन प्राचीन भारत में ऐसा नहीं सोचा जाता था. हिंदू परंपरा में भोग-विलास भी बड़ी चीज होती थी. हिंदू परंपरा में धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सभी को बराबर महत्व दिया जाता है. जहां तक खजुराहो की बात है तो वहां पर बहुत कम मूर्तियां हैं, जो इरोटिक हैं. 10 फीसदी के लगभग. हिंदू धर्म में मंदिर को ब्रह्मांड के छोटे स्वरूप की तरह से देखा जाता है. इसमें सबकुछ समेटा जाता है. यह सामान्य जीवन का हिस्सा है.
समाजशास्त्री आशीष नंदी कहते हैं
कामक्रीड़ा को सिर्फ खजुराहो, मंदिरों या सिर्फ काम सूत्र से जोड़कर देखना पूरी तरह से गलत है. कामुकता हमेशा से हिंदू ग्रंथों और चित्रकला का हिस्सा रही है. कृष्ण और उनके आसपास गोपियों को लेकर जितनी भी पौराणिक कथाएं हैं, उन्हें भी खास नजरिए से ही लिखा गया है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर बीपी साहू कहते हैं
मंदिरों में इस तरह की मूर्तियों को लेकर 2 तरह के मत मिलते हैं. एक मत के अनुसार, जिस काल (9वीं से 12वीं शताब्दी) में ये मंदिर बन रहे थे, उस वक्त सामन्तवाद चरम पर था. ज्यादातर छोटे-बड़े राजा भोग-विलास में ही लगे थे. ऐसे में उस रहन-सहन का चित्रण ही मंदिरों की दीवारों पर दिखता है.
दूसरा मत कहता है कि मंदिर की दीवारों पर काम क्रीड़ाओं को दिखाने का कारण इससे ऊपर उठने की तरफ प्रेरित करने को लेकर भी था. हिंदू धर्म में सभी को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से ऊपर उठने के लिए कहा गया है. इन मूर्तियों से भी यही संदेश दिया जाता है. कोशिश ये बताने की है कि इनसे ऊपर उठकर ही परमसत्य को पाया जा सकता है.
जानकारों के अनुसार, देशभर में फैले मंदिरों में प्रेम-विरह, रति और भोग की मूर्तियां और तस्वीरें मिलती रही हैं. ये सभ्यता का एक हिस्सा रही हैं. इन्हें हिंदू राजाओं ने बनवाया और संरक्षित किया है. जब भारत में ब्रिटिश शासन आया तो उन्हें भी इन मंदिरों का ख्याल नहीं आया लेकिन 19वीं शताब्दी तक आते-आते उन्हें यह बात समझ में आने लगी कि ये खास संस्कृति का हिस्सा हैं. संरक्षण का काम तब से शुरू हुआ, जो अब भी जारी है.

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