'इस रेशम की थान को पढ़ोगे तो Quotes गिराने लगोगे'
दिव्य प्रकाश दुबे की किताब मुसाफिर कैफे का रिव्यू.
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फोटो - thelallantop

देवेश
अपनी संडे वाली चिट्ठी बीते कुछ संडे से आ नहीं रही है. जानते हैं क्यों? क्योंकि इसके राइटर दिव्य प्रकाश दुबे अपनी नई किताब मुसाफिर कैफे में बिजी थे. अब ये किताब मार्केट में आ चुकी है. लोग धड़ल्ले से पढ़ रहे हैं. देवेश तनय ने भी मुसाफिर कैफे किताब पढ़ डाली. और हमें लिख भेजा किताब का भन्नाटेदार रिव्यू. देवेश कनपुरिया हैं. फेसबुक कहिता है कि वो IIT मुंबई में पढ़ रहे हैं. फेसबुक पर IIT मुंबई नामक डायरी भी लिखते हैं. बहरहाल आप पढ़िए रिव्यू.
हिंदुस्तान की आज़ादी के ठीक दो साल बाद. यानी 1949 में इलाहबादी मस्ती में डूबा हुआ. अपनी संगमी बांहों में गंगा-जमुनी लहरों को समेटे हुए. होठों पर "बाबा-160" ज़र्दे की भीनी-भीनी खुशबू और उलटे हाथ में पाइप सुलगाते हुए एक शख़्स ने हिंदी साहित्य को वो किताब दी थी, जिसको तब के ज़माने के लड़के सीने से लगाए हुए सोते थे. पढ़ के सारी-सारी रात रोते थे. अपनी प्रेमिकाओं के खत में उसके डायलॉग चिपकाते थे. खुद को "चन्दर" और अपनी महबूबा को "सुधा" बताते थे. किताब थी "गुनाहों का देवता और लेखक थे "धरमवीर भारती''
धीरे-धीरे वक़्त बदला. वक्त ने 2016 की डोर बेल पर अपनी नाज़ुक उंगलियां रक्खीं. काफी कुछ गुज़रा आंखों की सकरी-पतली गलियों से. प्यार तो आज भी उतना ही शाश्वत रहा लेकिन प्यार करने के टूल्स बदल गए. फेसबुक आ गया. WhatsApp आ गया. Gmail आ गया और वो सब भी आ गया जो नहीं आना चाहिए.
बहुत लोग कहते हैं, "अबे हटाओ यार! ज़माना गया तेल लेने ,जैसा चल रहा है चलने दो" लेकिन कुछ लोग समय के इन बदलावों को परत -दर-परत खोजने की कोशिश करते हैं. जांच-पड़ताल करते हैं. ये लोग डायरी के पीले पन्नों में सफ़ेदी भरते हैं. किरदारों की उधड़ती हुई ज़िन्दगी की फिर से तुरपाई करते हैं. अपने अलहदा अंदाज़ में नए ढंग से किस्सागोई गढ़ना शुरू करते हैं. लखनऊ और मुंबई के बीच "पुष्पक एक्सप्रेस " में सफ़र करते हुए "दिव्य प्रकाश दुबे " ने लाइफ के इस फ़ॉर्मूले को बहुत कायदे से अप्लाई किया और लिख डाला " मुसाफ़िर कैफ़े." मुसाफ़िरी और ठहराव के बीच सांसे लेती हुई प्यारी सी कहानी.

बिना किसी लिपा-पोती के कहूं तो जिन दिनों इस किताब के प्रमोशन ने फेसबुक पर बहुत हो -हल्ला मचा रखा था. तब मैं रूम पर बैठे -बैठे लैपटॉप पर कर्सर घुमाते हुए सोचता रहा "यार! कहीं dpd ने भारती जी के खेत पर अपनी फसल न उगा दी हो, सब चौपट हो जाएगा." ये डर इसलिए था क्योंकि किरदार पुराने थे: सुधा , चन्दर और पम्मी, और इन्हीं का नाम काफ़ी लोगों की फेसबुक वॉल पर तैर रहा था.
लेकिन जब " मुसाफ़िर कैफे " के पन्ने पलटे तो उसके किरदारों की इमेजिनरी बिलकुल नयी, ताज़ी और फ्रेश-फ्रेश-सी लगी. पचासवें पन्ने तक पहुंचते-पहुंचते अहसास हो गया कि "गुरु , DPD ने तो मचा दिया. घनघोर लिखा है. जी भर के लिखा है. झूम-झूम के लिखा है. भर - भर के लिखा है और एक राज़ की बात ये भी है कि थोड़ा बहुत जी के भी लिखा है दिव्य बाबू ने. नॉवेल की कुछ लाइन्स तो इतनी धांसू हैं कि जिन्हें कोट किए बिना रहा ही नहीं जाएगा. इन वाक्यों में अलग अंदाज़ में कहा गया है. संवेदनशीलता हैं. व्यवहारिकता है. अनूठापन है. समाज के आड़े -तिरछे बातों का सीधा- सीधा निचोड़ है. जिन बड़े-बड़े मुद्दों को साहित्यक ठेकेदार अपने भारी- भरकम लफ़्ज़ों की तिजोरी खोल देते हैं उन्हें dpd बड़ी ही सहजता से कहते हुए आगे बढ़ जाते हैं. जैसे:
"सही बताऊं तो डिवोर्स कोर्ट में आने से पहले ही हो चुका होता है. हम तो बस सरकारी स्टैम्प लगाने में और हिसाब-किताब लगाने में मदद करते हैं."ये वाक्य वो चश्मा है जो थोड़े -बहुत भी सजग पाठक की आत्मा को समाज की तरफ देखने के लिए मजबूर कर देता है. उसके दिल को खुरच देता है.
इक्कीसवीं सदी में लड़कियां कई बार लड़कों की मर्दानगी पर शक कर लेती हैं. इस बात को dpd एक ही सेंटेंस ने क्या बेहतरीन ढंग से लपेटा है,
"बेड पर भी अच्छा हूं."इस वाक्य को थोड़ा फील के साथ पढ़ लो तो मुंह में हंसी के गोल गप्पे फूट जाते हैं. शादी के बाद और पहले की ज़िंदगी के बीच पैदा हुए कोल्डवार को dpd ने जिस गज़ब की भाषायी जादूगरी से कहा है, वो काबिले तारीफ़ है.
"क्योंकि शादी के बाद बिस्तर पर लेटने पर ऊपर पंखें की धूल दिखाई देती है, पंखें की हवा नहीं दिखाई देती."

दिव्य प्रकाश दुबे
DPD का ये नॉवेल रेशम के थान की तरह है. पढ़ते चले जाओ समझ में ही नहीं आता कब 142वें पेज पर हमारी एंट्री हो गई. किताब में कई जगह ओशो की फिलॉसफी के बड़े ही शाइनिंग शेड्स मिलते हैं. ज़िंदगी के रंगों को छूते हुए, लेकिन इसमें हर जगह dpd की कलम बोलती है ओशो नहीं. क्योंकि उन्होंने अपने अंदर बहुत पचाकर नए विचार दिए हैं, नए अर्थ दिए हैं. इन्हें वही समझ सकता है जो किताबों को सिर्फ़ पढ़ना ही नहीं महसूस करना भी जानता है. जो एक-एक पन्ने को दिल की अलमारी में संभालकर रखना जानता है क्योंकि Sir Francis Bacon बोल गए हैं,
Some books are to be tasted
Others to be swallowed,
And some few to be chewed and digested.
दोस्तों, ये शायद वो किताब है जो मुम्बई, दिल्ली, बंगलुरु जैसे हांफते शहरों में आपको कुछ पलों का ठहरा हुआ सुकून दे सकती है. चाय की चुस्की में चुटकी भर मिठास घोल सकती है, आपकी शाम को गुनगुना कर सकती है. यादगार बना सकती है. आप दस बीस साल बाद किसी कैफेटेरिया में अपने दोस्त से बतियाते हुए दिल खोल के कह सकते हो "सच में यार ! 'मुसाफ़िर कैफे' बहुत जानदार था. इसलिए एक बार पढ़ोगे तो DPD को तो दुआ दोगे ही साथ में हमें याद करोगे कि कल के लौंडे ने क्या कर्री सलाह दी थी.
मुसाफिर कैफे के अंश यहां पढ़िए...
मुसाफिर कैफे किताब खरीदने का लिंक ये रहा

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