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हबीब जालिब, वो बग़ावती शायर जो जब तक रहा पाकिस्तान की हर हुकूमत से पंगा लेता रहा

मौकापरस्ती को अपने जूते की नोक पर रखने वाला ये शख्स़, हर एक से भिड़ जाता था.

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Habib Jalib
बगावती तेवर वाला शायर.
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12 मार्च 2021 (Updated: 17 मार्च 2023, 17:23 IST)
Updated: 17 मार्च 2023 17:23 IST
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बात ग़ालिब से शुरू करते हैं. उनका मशहूर शे'र और उससे जुड़ा किस्सा तो सबको याद ही होगा, जिसमें उन्होंने बहादुर शाह ज़फर के दरबारी शायर शेख इब्राहिम जौक़ को पहले ‘शाह का मुसाहिब’ होने का ताना मारा था और फिर बात बदल कर हीरो बन गए थे. बादशाह के दरबार में पेशी होने पर ये शेर लिख के बच भी गए थे और बादशाह की निगाह में चढ़ भी गए थे.

"बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता, 

वगरना शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है”

शाह का मुसाहिब मतलब हाकिम का, गद्दीनशीनों का दरबारी आदमी. ज़्यादा ही तल्ख़ लहजे में कहा जाए तो सत्ताधीशों का चमचा. अब मिलिए एक ऐसे शायर से जिसने शाह के मुसाहिब पर ही कुछ ऐसा लिखा जो ग़ालिब की बात पर भी भारी पड़ गया. शायर का नाम है ‘हबीब जालिब’ जो कहते हैं,

"कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब जालिब 

रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना

हम ने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा 

शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना "

हां, जालिब वो शायर थे जिन्होंने हर्फ़-ए-सदाक़त लिखा, बग़ावत लिखी. उसका खामियाज़ा भी भुगता लेकिन कलम को हाकिम के क़दमों में कभी नहीं रखा. दहशत के दौर में भी अपने फ़न को हुकूमत के आगे सरेंडर नहीं होने दिया. कलमकारों की अक्सरियत जहां तटस्थता का चोला पहने खुद को महफूज़ करने की जद्दोजहद में मुब्तिला रहती है, वहीं जालिब ने तटस्थता को ठोकर मारते हुए आलोचना को चुना.

हर उस मसले पर लिखा जो उनको विचलित करता रहा. फिर भले ही कलम के निशाने पर कितनी ही बड़ी तोप आ जाए. और ये सब उस मुल्क में, जहां निजाम का रुख हमेशा से अदब-विरोधी रहा है. फ़नकारों का, अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकारों का दमन जहां बेहद मामूली बात हो. हां उसी पाकिस्तान में रह कर हबीब जालिब वो सब लिख गए, जो महज़ पढ़ लेने भर से एक नए और साफ़-शफ्फाफ़ नज़रिये से आपका सामना होता है.

हबीब जालिब का जन्म 24 मार्च 1928 को होशियारपुर में हुआ था. और 12 मार्च 1993 को उन्होंने आखिरी सांस ली. बात 1959 की. पाकिस्तान में लोकतंत्र का खात्मा कर के जनरल अय्यूब ख़ान का मार्शल लॉ चल रहा था. सेंसरशिप जारी थी. तानाशाही उरूज़ पर थी. यहां तक कि राइटर्स गिल्ड भी सत्ता के साथ खड़ी थी. रेडियो, अखबार सब वही ज़ुबान बोल रहे थे जो सत्ता को रास आए. ऐसे में रावलपिंडी रेडियो से एक लाइव मुशायरा प्रसारित हुआ. ज़्यादातर शायरों ने इश्क़-आशिक़ी-महबूबा पर ग़ज़लें पढ़ीं, पाकिस्तान की तारीफों के पुल बांधे. फिर आया एक नौजवान जिसनें अफसरों की गाइडलाइंस को सिरे से नकारते हुए पाकिस्तान के अस्ल हालात, खूंरेज़ी, दहशत के आलम पर पढ़ना शुरू किया.

“कहीं गैस का धुआं है, कहीं गोलियों की बारिश 

शब-ए-अहद-ए-कमनिगाही तुझे किस तरह सुनाएं”

हुकुमत के होश उड़ गए. ‘सब कुछ ठीक है’ वाले अपने झूठ को बेनक़ाब होता देख वो हत्थे से उखड़ गई. मुशायरा तुरंत रोक दिया गया. रेडियो स्टेशन के डायरेक्टर को सज़ा हुई. शायर को जेल भेज दिया गया. लेकिन तब तक वो नौजवान पाकिस्तान के हालात की असल तस्वीर पेश कर चुका था. ये जालिब थे, खौफ़ जिनके आसपास भी नहीं फटक पाया कभी. उस दिन से शुरू हुआ बेख़ौफ़ कलमकारी का ये सिलसिला उनकी वफ़ात तक जारी रहा. और जारी रहा अलग-अलग हुकूमतों द्वारा उन्हें क़ैद कर के जेल में बंद किये जाने का सिलसिला भी. अपनी ज़िंदगी के कई साल उन्होंने जेल में ही गुज़ारें. पूंजीवाद के बहुत बड़े हिमायती के रूप में उभरे अय्यूब ख़ान की नीतियों के विरोध में उन्होंने नज़्म लिखी,

"बीस घराने हैं आबाद 

और करोड़ों हैं नाशाद 

सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद   

आज भी हम पर जारी है 

काली सदियों की बेदाद 

सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद   

बीस रूपय्या मन आटा 

इस पर भी है सन्नाटा गौहर, सहगल, आदमजी 

बने हैं बिरला और टाटा 

मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं 

जब हम करते हैं फ़रियाद 

सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद"

इस तंजिया लहजे को बर्दाश्त करना जनरल के बस में कहां था. बंद कर दिए गए जालिब फिर से जेल में. कुछ सालों बाद अय्यूब एक ऐसा संविधान लेकर आएं, जिसमें कहा गया कि पाकिस्तान की जनता अभी लोकतंत्र के लिए मैच्योर नहीं है. लिहाज़ा एक कार्यवाहक राष्ट्रपति चुन लिया जाना चाहिए. जालिब ने साफ़ लहजे में कहा कि ये तानाशाही को खूबसूरत लिबास में पेश करने का नाटक भर है. इसी की मुखालफ़त में उन्होंने मशहूर नज़्म ‘दस्तूर’ लिखी जो पाकिस्तान में कौमी तराने की तरह मशहूर हुई. बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ गई. आज भी बगावत की ज़रूरत के हिमायतियों का एंथम है ये. पढ़िए और महसूस कीजिए लफ़्ज़ों में गुंथी चिंगारियों को.

"दीप जिसका महल्लात ही में जले 

चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले 

वो जो साए में हर मसलहत के पले 

ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को, 

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से 

मैं भी मंसूर हूं कह दो अग़ियार से 

क्यों डराते हो ज़िन्दां की दीवार से 

ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को 

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो 

जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो 

चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो 

इस खुले झूठ को जेहन की लूट को 

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकूं 

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूं 

चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूं 

तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर 

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता"

दिखाए जा रहे फ़र्ज़ी सूरतेहाल से इंकार करने की, करते रहने की ज़िद हबीब जालिब ने हमेशा बरकरार रखी. ना सिर्फ अय्यूब ख़ान बल्कि याहया ख़ान, जनरल जिया उल हक़ और तमाम हुकूमतों के खिलाफ़ उन्होंने कलम से जिहाद जारी रखा. कलमकारों को हुकुमत के सामने नतमस्तक होते देखना उन्हें सख्त नापसंद था. एक और मशहूर शायर हफीज़ जलंधरी अय्यूब ख़ान के सलाहकार के तौर पर किये गए अपने काम पर इतराते रहते थे. इस बात पर अपनी नापसंदीदगी जालिब ने एक नज़्म लिख कर ज़ाहिर की जिसका उनवान था, ‘मैंने उससे ये कहा’. इस नज़्म में जालिब हफीज़ साहब के लिए तंजिया लहज़े में कहते हैं,

"जिनको था ज़बां पे नाज़ 

चुप हैं वो ज़बांदराज़ 

चैन है समाज में 

बेमिसाल फ़र्क है 

कल में और आज में 

अपने खर्च पर हैं क़ैद 

लोग तेरे राज में 

आदमी है वो बड़ा 

दर पे जो रहे पड़ा 

जो पनाह मांग ले 

उसकी बख़्श दे ख़ता 

मैंने उससे ये कहा, 

मैंने उससे ये कहा"

इसी नज़्म में आगे वो ऐसा कुछ कहते हैं जो सत्तानशीनों की कार्यप्रणाली पर बेहद सटीक टिप्पणी है.

“बोलते जो चंद हैं 

सब ये शर पसंद हैं 

इनकी खींच ले ज़बां 

इनका घोंट दे गला”

जालिब ने ना सिर्फ हुकूमत से लोहा लिया बल्कि अपनी कलम के कहर से मज़हबी गडरियों को ख़ूब बेनक़ाब किया. इस तरह जालिब का शुमार उन विरले कलमकारों में हो जाता है जो सत्ता के दो प्रमुख गढ़ - राजनीति और धर्म - से एक जैसी शिद्दत से लड़ते रहें. आए दिन ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का परचम उठाने वाले मुल्लाशाही के तमाम रणबांकुरों को इस नज़्म जैसा थप्पड़ कोई ‘हबीब जालिब’ ही मार सकता था.

"ख़तरा है ज़रदारों को, गिरती हुई दीवारों को 

सदियों के बीमारों को, ख़तरे में इस्लाम नहीं   

सारी ज़मीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों 

नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों  

ख़तरा है खूंखारों को, रंग बिरंगी कारों को 

अमरीका के प्यारों को, ख़तरे में इस्लाम नहीं   

आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में 

बिक न सकेंगे हसरतों अमां ऊंची सजी दुकानों में  

ख़तरा है बटमारों को, मग़रिब के बाज़ारों को 

चोरों को मक्कारों को, ख़तरे में इस्लाम नहीं   

अम्न का परचम लेकर उठो, हर इंसां से प्यार करो 

अपना तो मंशूर है ‘जालिब’, सारे जहां से प्यार करो  

ख़तरा है दरबारों को, शाहों के ग़मख़ारों को 

नव्वाबों ग़द्दारों को, ख़तरे में इस्लाम नहीं"

मौलानाओं की भेड़ बने रहने के लिए अभिशप्त मुस्लिम समाज की अंदरूनी छटपटाहट को ज़ुबान देने का हौसला भी उन्हीं का था. पाकिस्तान जैसे मुल्क में, जहां ईशनिंदा क़ानून का कोड़ा इस्तेमाल करने की मज़हबी चरवाहों को खुली छूट है, ‘हबीब जालिब’ लिखने का हौसला कर पाएं कि,

"बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना 

मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना

खुदारा सब्र की तलकीन अपने पास ही रखें 

ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना

नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्जा ढिठाई से 

यही है जुर्म मेरा और यही तक़सीर मौलाना”

‘जालिब’ अपने आसपास घट रही तमाम घटनाओं में से लिखने के लिए मौजू तलाश लेते थे. एक किस्सा बड़ा ही मशहूर है. एक बार ईरान के शाह रेज़ा पहलवी पाकिस्तान आए. उनकी दिलजोई के लिए पाकिस्तान के गवर्नर ने उस वक़्त की फ़िल्मी अदाकारा नीलू को नाचने के लिए बुलावा भेजा. नीलू ने मना कर दिया तो उन्हें लेने पुलिस भेज दी गई. नीलू ने ख़ुदकुशी की कोशिश की. इस घटना पर ‘जालिब’ ने एक नज़्म लिखी जो बाद में एक फिल्म में भी इस्तेमाल की गई.

"तू कि ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहंशाही थी 

रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है 

तुझ को इंकार की जुरअत जो हुई तो क्योंकर   

साया-ए-शाह में इस तरह जिया जाता है 

अहल-ए-सर्वत की ये तजवीज़ है सरकश लड़की 

तुझ को दरबार में कोड़ों से नचाया जाए 

नाचते नाचते हो जाए जो पायल ख़ामोश 

फिर न ता-ज़ीस्त तुझे होश में लाया जाए 

लोग इस मंज़र-ए-जांकाह को जब देखेंगे 

और बढ़ जाएगा कुछ सतवत-ए-शाही का जलाल 

तेरे अंजाम से हर शख़्स को इबरत होगी 

सर उठाने का रिआया को न आएगा ख़याल 

तब-ए-शाहाना पे जो लोग गिरां होते हैं 

हां उन्हें ज़हर भरा जाम दिया जाता है 

तू कि ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहंशाही थी 

रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है" 

‘जालिब’ को सबसे ज़्यादा सताया गया जनरल जिया उल हक के निजाम में. खुद को रहमतुल्लाह अलैह कहलवाने के शौक़ीन और कट्टर इस्लाम के उतने ही कट्टर हिमायती जनरल जिया ने पाकिस्तान में इस्लामी क़ानून थोप दिया था. मज़हब की मुखालफ़त का हौसला रखने वाले लोगों के लिए जहन्नुम जैसा दौर था वो. कई लोग ठिकाने लगाए गए. कईयों के कई-कई साल जेल में बीते. जालिब भी उन्हीं में से एक थे. जनरल जिया के दस साल के शासन के दौरान वो ज़्यादातर वक्फा जेल में ही रहें. ये वो दौर था जब जिया उल हक की हुकूमत बाकायदा हिदायत जारी करती थी कि लेखकों, शायरों, कवियों को क्या लिखना है. ऐसे में ‘जालिब’ ने वो नज़्म लिखी जिसे आयतों की तरह गाया गया. जो सबूत है इस बात का कि अल्फ़ाज़ कितने ताकतवर हो सकते हैं. इस नज़्म को पढ़ना, इसे सुनना उन तमाम लोगों पर फ़र्ज़ है जो किसी भी तरह के अतिवाद की मुखालफ़त में मुब्तिला हैं. जो अभिव्यक्ति की आज़ादी का मोल समझते हैं. जो कहे जाने की, सुने जाने की तमाम कोशिशों के हिमायती हैं. ये नज़्म एक सबक है, एक नसीहत है, एक चेतावनी है. और एक रोशन मशाल भी है कि जो कलमकारों की जिम्मेदारियों को बेहद आला ढंग से समझाती है.

"ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

पत्थर को गुहर, दीवार को दर, कर्गस को हुमा क्या लिखना

इक हश्र बपा है घर घर में, दम घुटता है गुंबद-ए-बेदर में 

इक शख्स के हाथों मुद्दत से, रुसवा है वतन दुनिया भर में 

ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना 

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

लोगों पे ही हम ने जां वारी, की हम ने उन्हीं की ग़म-ख़ारी 

होते हैं तो हों ये हाथ क़लम, शा'इर न बनेंगे दरबारी 

इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना 

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

हक़ बात पे कोड़े और ज़िन्दां, बातिल के शिकंजे मैं है ये जां 

इंसां हैं कि सहमे बैठे हैं, खूंखार दरिंदे हैं रक्सां 

इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम, इस दुख को दवा क्या लिखना 

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

हर शाम यहाँ शाम-ए-वीरां, आसेबज़दा रस्ते गलियां 

जिस शहर की धुन में निकले थे, वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहां 

सहरा को चमन, बन को गुलशन, बादल को रिदा क्या लिखना 

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

ऐ मेरे वतन के फ़नकारों, ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो 

ये महल-सराओं के बासी, क़ातिल हैं सभी अपने यारो 

विरसे में हमें ये ग़म है मिला, इस ग़म को नया क्या लिखना 

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना"

मेरा आग्रह है कि इसे सुना भी ज़रूर जाए. पाकिस्तान के ‘लाल बैंड’ ने इसे बेहद खूबसूरती से गाया है. लिंक ये रहा. 

https://www.youtube.com/watch?v=if044HZ9xU4 

उन्होंने सिर्फ तानाशाहों को ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के नाम पर दूसरे ढंग की तानाशाही करने वाले नेताओं को भी अपने निशाने पर रखा. बेनज़ीर भुट्टो के शासन में जब गरीबों के हक़ पर डाका डालने की रवायत लोकतांत्रिक ढंग से जारी रही तो उनकी कलम ने फिर आग उगली. बेनज़ीर, जनरल जिया की दस साल की तानाशाही के बाद आई थी. उनकी हुकूमत की नाकामियों पर जब भी ध्यान दिलाया जाता तो लोग अक्सर कहते कि पिछली तानाशाही से तो ये बेहतर ही है. ऐसे में उन्हें लिखना ही पड़ा:

“हाल अब तक वही हैं गरीबों के 

दिन फिरे हैं फकत वजीरों के 

हर ‘बिलावल’ है देश का मकरोज 

पांव नंगे हैं ‘बेनज़ीरों’ के"

जालिब नाइंसाफियों के खिलाफ़ इंसानी संघर्ष का चेहरा थे. जालिब वो आवाज़ थे जिसके पसमंज़र में अवाम की चीखें पैबस्त थीं. उन चीखों को सुनने के लिए गद्दीनशीनों को मजबूर करने वाला ये आदमी किसी और ही मिट्टी का बना था. ज़ुल्म, ज़्यादती, मुफ़लिसी और गैर-बराबरी की शिकार जनता के दर्द को महसूस करना और उसे उतनी ही शिद्दत से लफ़्ज़ों में ढालना कितनों के बस की बात होती है! इस मुहाज़ पर ‘हबीब जालिब’ अदब की दुनिया में उन चंद अदीबों की जमात में खड़े नज़र आते हैं जो बेहद ज़रूरी हैं इस दुनिया के लिए. सत्ता के नशे में चूर किसी हुक्मरान को जालिब ही हड़का सकते थे कि,

“तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख़्त नशीं था 

उसको भी अपने ख़ुदा होने का इतना ही यकीं था”

जालिब हर दौर में प्रासंगिक रहेंगे. कलम के एक सिपाही की इससे ज़्यादा इज्ज़त-अफज़ाई और किसी चीज़ से नहीं होती. 


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