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भिखारी ठाकुर: उस्तरे से नाच के उस्ताद तक का सफर

पढ़िए उनके जीवन के कुछ शानदार किस्से.

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भिखारी ठाकुर (जन्म: 18 दिसंबर 1887, निधन: 10 जुलाई 1971)
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18 दिसंबर 2019 (Updated: 18 दिसंबर 2019, 07:57 IST)
Updated: 18 दिसंबर 2019 07:57 IST
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himanshu singhजैनेंद्र दोस्त जाने-माने रंगकर्मी हैं. वर्तमान में भिखारी ठाकुर के रंगमंच के पुनर्जीवन के लिए काम कर रहे हैं. इन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा) से नाट्यकला और फ़िल्म अध्ययन में एम.ए. किया है. इसके बाद थियेटर और परफॉर्मेंस स्टडीज़, JNU से एम.फिल. तथा पीएच.डी. किया है. भिखारी ठाकुर पर बनायी गई इनकी फ़िल्म ‘नाच भिखारी नाच’ की सराहना की जा रही है. जैनेंद्र, भिखारी ठाकुर रंगमंडल प्रशिक्षण एवं शोध केंद्र, छपरा के डायरेक्टर हैं. जैनेंद्र ने भिखारी ठाकुर की 132वीं जयंती पर खूब सारा रिसर्च करके लिखा है. जैनेंद्र से dostjai@gmail.com
 पर संपर्क किया सकता है.

नाच ह कांच, बात सांच, एह में लागे ना आंच

भोजपुरी क्षेत्र में नाच और भिखारी ठाकुर पर्यायवाची की तरह हैं. नाच के संदर्भ में भिखारी ठाकुर की ये पंक्तियां “नाच ह कांच, बात ह सांच, एह में लागे ना सांच” नाच विधा के कई पहलुओं को इंगित करती हैं. यहां पर कांच शब्द का तात्पर्य कच्चा, rawness, क्षणभंगुर है. भिखारी ठाकुर ने इन पंक्तियों के माध्यम से यह बताया है कि 'नाच है तो कच्ची और क्षणभंगुर चीज़, पर यह सच्चाई की बात करता है जिसे किसी आंच यानी परीक्षा से डर नहीं है'.
भिखारी ठाकुर : उस्तरे से उस्ताद तक
बिहार में नाच विधा के सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध कलाकार रहें हैं भिखारी ठाकुर. भिखारी ठाकुर बीसवीं शताब्दी के महान लोक नाटककारों-कलाकारों में से एक रहे हैं जिन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर भी कहा जाता है. भिखारी ठाकुर ने सन 1917 में अपनी नाच मंडली की स्थापना कर भोजपुरी भाषा में बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, पिया निसइल, गंगा-स्नान, नाई-बाहर, नकल भांड और नेटुआ सहित कई नाटक, सामाजिक-धार्मिक प्रसंग गाथा और गीतों की रचना की है. उन्होने अपने नाटकों और गीत-नृत्यों के माध्यम से तत्कालीन भोजपुरी समाज की समस्याओं और कुरीतियों को सहज तरीके से नाच के मंच पर प्रस्तुत करने का काम किया था. उनके नाच में किया जाने वाला बिदेसिया उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक है. 1930 से 1970 के बीच भिखारी ठाकुर की नाच मंडली असम और बंगाल, नेपाल आदि कई शहरों में जा कर टिकट पर नाच दिखाती थी. बिलकुल सिनेमा जैसा. सिनेमा के समानांतर.
Bhikhari Thakur
बिदेसिया नाटक प्रस्तुत करते भिखारी ठाकुर रंगमंडल के कलाकारश्री शिवलाल बारी एवं श्री लखिचंद मांझी


भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार राज्य के छपरा जिले के छोटे से गांव क़ुतुबपुर के एक सामान्य नाई परिवार में हुआ था. पिता दलसिंगर ठाकुर और मां शिवकली देवी सहित पूरा परिवार जज़मानी व्यवस्था के अंतर्गत अपने जातिगत पेशा जैसे कि उस्तरे से हजामत बनाना, चिट्ठी नेवतना, शादी-विवाह, जन्म-श्राद्ध और अन्य अनुष्ठानों तथा संस्कारों के कार्य किया करता था. परिवार में दूर तक गीत, संगीत, नृत्य, नाटक का कोई माहौल नहीं था. नाच विधा से जुड़ने के पूर्व भिखारी ठाकुर के जीवन को समझने के लिए उनके जीवनी गीत का सहारा लिया जा सकता है.
भिखारी ठाकुर: एक गीत में जीवन का सार

नौ बरस के जब हम भइली। बिद्या पढ़न पाट पर गइली।।

वर्ष एक तक जबदल मति। लिखे ना आइल रामगति।।

मन में विद्या तनिक ना भावत। कुछ दिन फिरलीं गाय चरावत।।

गाइया चार रही घर माहीं। तेहि के नित चरावन जाहीं।।

जब कुछ लगलीं माथ कमावे। तब लागल विद्या मन भावे।।

माथ कमाईं नेवतीं चिट्ठी। विद्या में लागल रहे दिठी।।

बनिया गुरु नाम भगवाना। ऊहे ककहरा साथ पढ़ना।।

अल्पकाल में लिखे लगलीं। तेकरा बाद खड़गपुर भगलीं।।

ललसा रहे जे बहरा जाईं। छुरा चलाकर दाम कमाईं।।

गइलीं मेदनीपुर के जिला। ओहीजे कुछ देखलीं रामलीला।।

घर पर आके लगलीं रहे। गीत-कवित्त कतहूं केहू कहे।।

अर्थ पुछि-पुछि के सीखीं। दोहा छंद निज अक्षर लिखीं।।

सादी-गवना रहुए भइल। लिखे में पहिले भोर पर गइल।।

साधु पंडित के डिग जाहीं। सुनी श्लोक घोखी मन माहीं।।

निजपुर में करिके रामलीला। नाच के तब बन्हलीं सिलसिला।।

तीस बरिस के उमिर भइल। बेधलस खुब कालिकाल के मइल।।

नाच मंडली के धरि साथ। लेक्चर दिहीं जय कहिं रघुनाथ।।

बरजत रहलन बाप-महतारी। नाच में तूं मत रह भिखारी।।

चुपे भाग के नाच में जाई। बात बनाके दाम कमाईं।।

उक्त गीत के माध्यम से भिखारी ठाकुर बताते हैं-
जब वो नौ वर्ष के थे तब पढ़ने के लिए स्कूल जाना शुरू किया. एक वर्ष तक स्कूल जाने के बाद भी उन्हें एक भी अक्षर का ज्ञान नहीं हुआ तब वो अपने घर के गाय को चराने का काम करने लगे. धीरे-धीरे अपने परिवार के जातिगत पेशे के अंतर्गत हजामत बनाने का काम भी करने लगे. जब हजामत का काम करने लगे तब उन्हें दोबारा से पढ़ने लिखने की इच्छा हुई. गांव के ही भगवान साह नामक बनिया लड़के ने उन्हें पढ़ाया. तब जा कर उन्हें अक्षर ज्ञान हुआ. उनकी शादी हो गई. उसके बाद वो हजामत बना कर रोज़ी-रोटी कमाने के मक़सद से खड़गपुर (बंगाल) चले गए. वहां से फिर मेदनीपुर (बंगाल) गए तथा वहां रामलीला देखा. कुछ समय बाद वो बंगाल से वापस अपने गांव आ गए और गीत-कवित्त सुनने लगे. सुन कर लोगों से उसका अर्थ पूछ कर समझने लगे और धीरे-धीरे अपना गीत-कवित्त, दोहा-छंद लिखना शुरू कर दिया. एक बार गांव के लोगों को इकट्ठा कर रामलीला का मंचन भी किया. तीस वर्ष की उम्र होने के बाद अपनी नाच मंडली बना ली. नाच में जाने का उनके मां-बाप विरोध करते थे. वो छुप-छुप कर नाच में जाते थे तथा कलाकारी दिखा कर पैसे कमाते थे.
इस गीत ने कई महत्वपूर्ण बातों को स्पष्ट किया है. जैसे कि भिखारी ठाकुर नाच विधा के कलाकार थे. उनके पूर्व में भी नाच विधा का प्रचलन था. भिखारी ठाकुर के कला जीवन में सबसे पहले उन्होंने लिखना शुरू किया और फिर रामलीला का मंचन किया उसके बाद नाच में काम करते हुए नाच मंडली बनाई. भिखारी ठाकुर से लिए एक इंटरव्यू में जब रामसुहाग सिंह ने पूछा कि “नाच गाना और कविता की ओर आपकी अभिरुचि कैसे हुई?” तब भिखारी ठाकुर ने कहा था कि “मैं कुछ गाना जानता था. रामसेवक ठाकुर नामक एक हजाम ने मेरा एक गाना सुन कर तारीफ़ की और मात्रा की गणना बताया. बाबू हरिनंदन सिंह ने सबसे पहले मुझे रामगीत का पाठ पढ़ाया”.
कुल मिला कर हम देख सकते हैं कि भिखारी ठाकुर का प्रारम्भिक जीवन भी सामान्य ग्रामीण युवक की तरह ही है, जो अपने घर और जातिगत पेशे का कार्य करता है. जिसकी शादी होती है. जो रोज़ी-रोटी के लिए विस्थापित होता है. जो अपने आसपास के रामलीला, नाच आदि को देखता है. धीरे-धीरे इन सब से प्रभावित हो कर लिखना और गाना शुरू करता है. लेकिन भिखारी ठाकुर में ख़ास बात थी वो यह कि वो समाज के प्रति बहुत जागरूक थे. समाज के कुरीतियों पर पैनी नज़र थी. साथ ही साथ समाज में प्रचलित गीत-नृत्य, नाटक की अनेक कला विधाओं पर भी अच्छी समझ थी और दिन-ब-दिन बनती चली गई. उनकी यही समझ उन्हें महान बनाते चली गई.
भिखारी ठाकुर का नाच एवं नाटक : 1917 से जारी है…

तीस बरिस के उमिर भइल। बेधलस खुब कालिकाल के मइल।।

नाच मंडली के धरि साथ। लेक्चर दिहीं जय कहिं रघुनाथ।।

इस गीत में भिखारी ठाकुर ने लिखा है कि जब वो तीस वर्ष के हुए तब उन्होंने नाच मंडली बनाया. भिखारी ठाकुर का जन्म 1887 में हुआ था. 1887 में तीस वर्ष जोड़ने पर 1917 का वर्ष आता है. यानि भिखारी ठाकुर ने 1917 से अपना रंगमंचीय जीवन शुरू किया था. 1917 से आज तक भिखारी ठाकुर की रंगमंचीय यात्रा अनेक पड़ावों के साथ लगातार जारी है.
भिखारी ठाकुर ने जब अपना जातिगत पेशा छोड़ कर कला की तरफ़ रूख किया तब उन्होंने सबसे पहले अपने गांव में रामलीला की. परंतु जल्द ही रामलीला को छोड़ कर वो नाच की तरफ़ अग्रसर हुए. मेरा ऐसा मानना है कि रामलीला छोड़ने के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण रहे होंगे. सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि रामलीला सालों भर चलने वाली चीज़ कम से कम भोजपुरी समाज में तो नहीं हो सकती. क्योंकि भोजपुरी समाज एक श्रमिक समाज है. उसे दिन भर की थकान के बाद थोड़ी भक्ति, थोड़ा मनोरंजन, एवं थोड़ी सामाजिक बातें चाहिए. इन सबके लिए नाच उपयुक्त विधा पहले से ही चली आ रही थी. दूसरा यह भी कि भिखारी ठाकुर का कवि मन जो अलग-अलग प्रसंगों पर रचना कर रहा था उसकी अभिव्यक्ति भी सिर्फ़ रामलीला करने से बाधित होती. क्योंकि रामलीला के मंचन में लगातार कुछ नया करने की गुंजाइश न के बराबर होती है. तीसरा प्रश्न रोज़ी-रोटी का भी रहा होगा. क्योंकि नाच एक व्यवसायिक विधा के रूप में भोजपुरी अंचल में पहले से प्रचलित था.
Bhikhari Thakur Naach
भिखारी ठाकुर के नाच के लबार के रूप में जैनेन्द्र दोस्त


भिखारी ठाकुर के पूर्व में भी रसूल मियां एवं गुदर राय इस नाच विधा के मशहूर कलाकार रहे हैं. नाच विधा के ढांचागत या संरचनागत स्वरूप में भिखारी ठाकुर ने कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया. गीत-संगीत, नृत्य-कॉमिक और अंत में नाटक किए जाने के क्रमानुगत स्वरूप को उन्होंने वैसे ही रखा. परंतु विषय-वस्तु के स्तर पर भिखारी ठाकुर ने नाच विधा को कई नए नाटक, प्रसंग और गीत दिए. भिखारी ठाकुर से पूर्व के नाच में मुख्यतः लोककथाओं पर आधारित नाटक या छोटे-छोटे सामाजिक प्रसंग पर नाटक करने का सूत्र मिलता है. परंतु भिखारी ठाकुर ने सामाजिक विषय पर तत्कालीन समय के हिसाब से नाटक रचे. इतना ही नहीं अपने नाटकों में भोजपुरी समाज में प्रचलित लोक गीत, नृत्य की विधाओं को भी खूब शामिल किया. नाटकों के चरित्र, समाजी, लबार, सूत्रधार, संगीत, नृत्य, को सुदृढ़ किया. अपनी धुन और अपना ताल विकसित किया. और रच डालें कई नाटक, प्रसंग और गीत.

भिखारी ठाकुर के नाटक

#1 बिदेसिया
यह भिखारी ठाकुर का सबसे प्रसिद्ध नाटक है. इस नाटक का मुख्य विषय विस्थापन है. इस नाटक में रोजी-रोटी की तलाश में विस्थापन, घर में अकेली औरत का दर्द, शहर में पुरुष का पराई औरत के प्रति मोह को दिखाया गया है.
#2 भाई-बिरोध
यह नाटक ग्रामीण समाज में भाई-भाई के झगड़े को मुख्य रूप से दिखाता है. इस नाटक में दो भाईयों एवं उनकी पत्नियों के बीच झगड़ा होता है जिसका कारण झगड़ा लगाने वाली एक महिला है.
#3 बेटी-बियोग उर्फ़ बेटी-बेचवा
इस नाटक का मुख्य विषय तत्कालीन समाज में व्याप्त बेमेल विवाह तथा अमीरों द्वारा बुढ़ापे में ग़रीब लड़कियों को ख़रीद कर शादी करने पर आधारित है.
#4 बिधवा-बिलाप
यह नाटक समाज में विधवा महिलाओं के समस्याओं को उजागर करता है. विधवा के साथ समाज का व्यवहार, उसके धन के प्रति लोगों के लालच को इस नाटक में बख़ूबी दिखाया गया है.
#5 कलियुग-प्रेम उर्फ़ पिया निसइल
यह नाटक समाज में फैली नशाखोरी की समस्या पर आधारित है, जो नशाखोरी से तबाह होते एक परिवार की कहानी को बयां करता है. नाटक में नशाखोर बाप शराब के लिए घर का सब कुछ बेच चुका है. पत्नी और बेटा दाने-दाने को मोहताज हैं. एक दिन शराबी नशे में चूर हो कर घर आता है और पत्नी, बेटे से गाली-गलौज और मारपीट करता है. शराबी अपने बेटे के हाथ में पहने कंगन को छीनकर बेचना चाहता है. पत्नी ऐसा करने से मना करती है. पत्नी अपने शराबी पति को समझाने की कोशिश करती है. परंतु शराबी नहीं मानता है. वो घर में एक दूसरी औरत को भी लाना शुरू कर देता है. अंत में शराबी का दूसरा बेटा जो बाप के नशे के कारण घर छोड़ बाहर कमाने चला गया था. वो पैसे कमा कर वापस आ जाता है और मां अपने दोनों बेटे के साथ खुशी खुशी रहने लगती है.
#6 राधेश्याम-बहार
यह नाटक कृष्ण की लीलाओं पर आधारित है.
#7 गंगा-स्नान
ग्रामीण समाज में गंगा स्नान करने का बहुत महत्व होता है. गंगा स्नान के समय जगह-जगह गंगा किनारे मेला लगता है जिसमें ग्रामीण समाज खूब उत्साह से हिस्सा लेता है. मेले में शहर और गांव के व्यापारी आकर अपनी दुकान लगते है और ग्रामीण समाज अपनी ज़रूरत के हिसाब से खरीददारी करते हैं. गंगा स्नान नाटक में एक परिवार को गंगा स्नान के लिए जाते दिखाया गया है. उस परिवार में एक बूढ़ी मां है जो परिवार द्वारा उपेक्षित है. इस नाटक में भिखारी ठाकुर ने गंगा स्नान के माध्यम से परिवार में बुज़ुर्गों की उपेक्षा को दिखाया है.
#8 पुत्र-बध
यह एक पारिवारिक नाटक है. ग्रामीण समाज में कई मर्द दो-दो शादी करते है. इस नाटक में नायक ने दो शादियां रचाई हैं. दोनों सौतन का झगड़ा, धन के लालच में अनैतिक संबंध इस नाटक का मुख्य विषय है.
#9 गबरघिचोर
इस नाटक की कहानी भी विस्थापन से जुड़ी समस्या से शुरू होती है. जिसमें विस्थापित पति द्वारा पत्नी को भुला दिए जाने से उत्पन्न समस्या मुख्य है. परंतु यह नाटक स्त्री के अपने बेटे पर अधिकार की वकालत करता है.
#10 बिरहा-बहार
इस नाटक की कहानी में निम्न जाति के धोबी-धोबिन का मुख्य किरदार है. समाज में कपड़ा धोने वाले धोबी के महत्व को इस नाटक में दिखाया गया है. भिखारी ठाकुर ने इस नाटक में कपड़ा धुलने वाले धोबी-धोबिन की तुलना आत्मा धोने वाले ईश्वर से की है.
#11 नकल भांड आ नेटुआ के
भोजपुरी क्षेत्र में भांड और नेटुआ परफ़ॉर्मेंस का एक ऐसा फ़ॉर्म है जिसमें गीत-संगीत, नृत्य एवं अभिनय समाहित है. भिखारी ठाकुर इस इस लोकप्रिय फ़ॉर्म का इस्तेमाल अपने नाच में किया है. नकल भांड आ नेटुआ के एकपात्री नाटक है जिसमें सामाजिक कुरीतियों पर गहरा व्यंग है.
Bhikhari Thakur Rangmanch
भिखारीनामा नाटक के एक दृश्य में जैनेन्द्र दोस्त एवं सरिता साज़


#12 ननद-भउजाई
ननद-भउजाई एक पारिवारिक नाटक है जिसमें ननद और भाभी के रिश्तों को दिखाया गया है. इस नाटक में बल-विवाह से उत्पन्न पारिवारिक समस्याओं को दिखाया गया है.

भजन-कीर्तन, गीत-कविता

#1 शिव-विवाह : भगवान शिव के विवाह से संबंधित भजन.
#2 भजन कीर्तन (राम) : भगवान राम से संबंधित भजन-कीर्तन.
#3 रामलीला गान : यह गाथा गायन की शैली में रामलीला है. इसमें तुलसीकृत रमचरित मानस के आठ कांड का वर्णन है. इसका मुख्य अभिनेता सूत्रधार/गायक है.
#4 भजन-कीर्तन (श्रीकृष्ण) : यह गाथा गायन की शैली में कृष्णलीला है. इसमें कृष्ण के विभिन्न प्रसंगों को दिखाया गया है. इसका मुख्य अभिनेता सूत्रधार/गायक है.
#5 माता-भक्ति : माता-भक्ति प्रसंग भी गाथा गायन की शैली में मां के महत्व, उसके त्याग, तथा बेटे द्वारा उसको बुढ़ापे में छोड़ देने की कहानी है. इसका मुख्य अभिनेता सूत्रधार/गायक है.
#6 आरती : इस खंड में भगवान शिव, कृष्ण, दुर्गा, गंगा एवं राम की आरती-गीत है.
#7 बूढ़शाला के बेयान : यह भी गाथा गायन की शैली में ऐसा प्रसंग है जिसमें भिखारी ठाकुर ने बुज़ुर्गों को होने वाली विभिन्न समस्यायों को रखा है. भिखारी ठाकुर ने इस प्रसंग के माध्यम से समाज में बूढ़शाला (Old age house) की मांग की है. इसका मुख्य अभिनेता सूत्रधार/गायक है.
#8 चौवर्ण पदवीं : यह भी गाथा गायन की शैली है जिसमें समाज में फैले जाति व्यवस्था पर गम्भीर कटाक्ष है. समाज के चारों वर्णों के मेल-मिलाप, समरसता को भिखारी ठाकुर ने इस प्रसंग में उठाया है. इसका मुख्य अभिनेता सूत्रधार/गायक है.
#9 नाई बाहर : भिखारी ठाकुर नाई जाति से थे. समाज में नाई पिछड़ी जाति होता है जिसे अनेक समस्याओं एवं शोषण का सामना करना पड़ता है. भिखारी ठाकुर ने इस प्रसंग में नाई जाति के दुःख दर्द को दिखाया है.
#10 शंका-समाधान : आपको जान कर हैरानी होगी कि इस प्रसंग में भिखारी ठाकुर ने अपने किताबों की विभिन्न विद्वानों एवं प्रकाशकों द्वारा चोरी किए जाने को आधार बना कर लिखा है. उन्होंने इस प्रसंग में अपने पाठकों की शंका को दूर करते हुए बताया है कि असली क्या है और नक़ली क्या है.
#11 विविध : इस खंड में भिखारी ठाकुर ने सत्यनारायण पूजा का महत्व, चउथ चंदा गीत, छपरा (सारन प्रमंडल) से सम्बंधित गीत लिखा है.
#12 भिखारी ठाकुर परिचय : यह खंड भिखारी ठाकुर के जीवनी का है. जिसमें उन्होंने ख़ुद अपना परिचय, अपने पूर्वजों के बारे में, अपनी जन्मभूमि के बारे में, अपनी रचनाओं के बारे में, अपने मान-सम्मान के बारे में, बुढ़ापे में अपनी बीमारी के बारे में लिखा है.

मुज्ज़फरपुर के पहले नाच से दरबार हॉल (राष्ट्रपति भवन) वाया संगीत नाटक अकादमी अवार्ड

प्रोफ़ेसर रामसुहाग सिंह द्वारा लिए गए साक्षात्कार में भिखारी ठाकुर ने साफ़-साफ़ कहा है कि “मैं तीस वर्ष की उम्र में नाच में शामिल हुआ. सबसे पहले मैंने बिरहा-बहार नाटक की रचना की जिसकी पहली प्रस्तुति मुज़फ़्फ़रपुर जिले के सर्वमस्तपुर गांव में एक विवाह अवसर पर खेला गया था. भिखारी ठाकुर की रंगमंचीय यात्रा की शुरुआत शादी-विवाह के अवसर पर आयोजित नाच से शुरू हुआ था. जिसमें उन्होंने बिरहा-बहार नामक नाटक जो अब बिदेसिया नाम से जाना जाता है किया था. उसके बाद भिखारी ठाकुर ने एक से बढ़ कर एक नाटक, गीत, नृत्य की रचना की एवं नाच के मंच से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया.
जिस प्रकार पारसी थिएटर एवं नौटंकी मंडलियां देश के अनेक शहरों में जा-जा कर टिकट पर नाटक दिखाया करती थी उसी प्रकार नाच मंडलियां भी टिकट पर नाच करती थी. भिखारी ठाकुर ने असाम, बंगाल, नेपाल आदि जगहों पर खूब टिकट शो किए. अनेक राजघरानों सहित ज़मींदार भी उन्हें बुलाते थे. अपने समय में भिखारी ठाकुर नाच विधा के स्टार कलाकार बन गए थे. अंग्रेज़ों ने 'राय बहादुर' की उपाधि दी तो हिंदी के साहित्यकारों के बीच 'भोजपुरी के शेक्सपियर' और 'अनगढ़ हीरा' जैसे नाम से सम्मानित हुए.
उनकी प्रसिद्धी इतनी बढ़ गई थी उनके नाच के सामने लोग सिनेमा देखना तक पसंद नहीं करते थे. उनकी एक झलक पाने के लिए लोग कोसों पैदल चल कर रात-रात भर नाच देखते थे.
उनकी इस पॉप्युलैरिटी को सिनेमा जगत के लोगों ने भी खूब भुनाया. हुआ यूं कि बिदेसिया नाटक की कहानी पर फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव उन्हें मिला. भिखारी ठाकुर बंबई बुलाए गए. भिखारी ठाकुर को मंच पर बैठा कर एक गाना भी शूट हुआ. और 1963 में बिदेसिया नामक फ़िल्म रिलीज़ हुई. फ़िल्म के शुरुआत में इस बात का खूब प्रचार किया गया कि भिखारी ठाकुर का बिदेसिया पहली बार बड़े परदे पर. साथ ही साथ यह भी प्रचार किया गया कि इस फ़िल्म में ख़ुद भिखारी ठाकुर मौजूद हैं. भिखारी ठाकुर के नाम का प्रभाव बिहार-उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल-असाम सहित देश के अनेक हिस्सों में फैले भोजपुरियों के बीच खूब था. भिखारी ठाकुर को देखने के लिए लोग सिनेमा हॉल में टूट पड़े. फ़िल्म खूब चली. लेकिन जनता जिन्होंने पहले बिदेसिया नाटक देखा था उनको निराशा हुई. फ़िल्म की कहानी का बिदेसिया नाटक की कहानी से कोई लेना देना नहीं था. भिखारी ठाकुर की प्रसिद्धि का इस फ़िल्म ने केवल इस्तेमाल किया था. 2012 में बिदेसिया नाम से दुबारा फ़िल्म बनी है. यह फ़िल्म भोजपुरी में है. फ़िल्म की कहानी तो बिदेसिया से मिलती-जुलती है परंतु वह नाटक के कथानक की आत्मा को बख़ूबी ख़त्म कर बाज़ारवाद की चपेट से ग्रसित है. यह फ़िल्म भी कॉपीराइट जैसे मुद्दों पर विवादों के घेरे में रही है.
परंतु फ़िल्मी दुनिया से अलग 1971 में भिखारी ठाकुर के मृत्यु के बाद भी उनकी नाच मंडली चलती रही. उनके परिवार एवं रिश्तेदारों ने उनके नाच को कई वर्षों तक चलाया परंतु धीरे-धीरे यह दल टूट-बिखर गया. कुछ कलाकारों की मृत्यु हुई, कुछ ने काम छोड़ दिया तो कुछ कलाकार क़ुतुबपुर गांव के बगल के ही बुद्धू राय की नाच पार्टी में मिल गए तथा भिखारी ठाकुर और बुद्धू राय की संयुक्त नाच पार्टी के रूप में काम करने लगे.
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राष्ट्रपति से पुरस्कार ग्रहण करते भिखारी ठाकुर के रंगसंगी कलाकार श्री रामचंद्र मांझी


वर्ष 2014-15 में मैंने भिखारी ठाकुर के नाच दल के बूढ़े-बुजुर्ग कलाकारों को एकत्रित किया तथा फिर से नाच दल को “भिखारी ठाकुर रंगमंडल” के नाम से पुनर्जीवित एवं संस्थानिकृत किया है. इस महत्वपूर्ण खोज में भिखारी ठाकुर से प्रशिक्षित और उनके साथ काम कर चुके रामचंद्र मांझी (उम्र 94 वर्ष), शिवलाल बारी (उम्र 82 वर्ष), लखिचंद मांझी (उम्र 66 वर्ष), रामचंद्र मांझी छोटे (उम्र 70 वर्ष) जैसे दिग्गज कलाकार मिले. रंगमंडल ने भिखारी ठाकुर के नाटकों पुनर्जीवित किया तथा देश के प्रतिष्ठित मंचों पर दुबारा से भिखारी ठाकुर के नाटकों को उन्ही के अन्दाज़ में प्रस्तुत कर रही है. भिखारी ठाकुर रंगमंडल गांव में भी शादी-विवाह एवं त्योहार के मौक़े पर लगातार नाच कर रही है. इस रिवाइवल में संगीत नाटक अकादमी ने भरपूर सहयोग किया है. भिखारी ठाकुर रंगमंडल ने भिखारी ठाकुर की रंग-यात्रा पर दूरदर्शन और पीएसबीटी के आर्थिक सहयोग से एक डॉक्युमेंटरी फ़िल्म का निर्माण किया है जिसके द्वारा लोग भिखारी ठाकुर के रंगमंचीय योगदान से परिचित हो रहे हैं. भिखारी ठाकुर रंगमडल के रिवाइवल के बाद की सबसे  महत्वपूर्ण परिघटना है. भारत सरकार एवं संगीत नाटक अकादमी द्वारा नाच विधा और भिखारी ठाकुर को मान्यता देते हुए इस विधा के वरिष्ठ कलाकार रामचंद्र मांझी जी को ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कर-2017’ से नवाजना. 6 फ़रवरी 2018 को भारत के राष्ट्रपति महामहिम रामनाथ कोविंद ने दरबार हॉल (राष्ट्रपति भवन) में जब रामचंद्र मांझी जी को यह सम्मान दिया, तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि भिखारी ठाकुर के रंगसंगी नाच विधा के कलाकार को इतना बड़ा सम्मान मिलेगा. इस सम्मान ने नाच विधा एवं भिखारी ठाकुर को दोबारा चर्चा में है. 1917 से शुरू हुआ भिखारी ठाकुर के नाच का सफ़र आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा. इतना ही नहीं भिखारी ठाकुर पर अकादमिक जगत में खूब लेखन हुआ है. देश-विदेश के नामी गिरामी विश्वविद्यालयों में कई चर्चित विद्वानों ने उन पर अध्ययन किया है. आज भी लगातार उन पर शोध जारी है. हमें उम्मीद नहीं पूरा विश्वास है कि यह कारवां आगे बढ़ता रहेगा...


वीडियो- भिखारी ठाकुर की टीम में रहे रामचंद्र मांझी का लौंडा नाच देखिए

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