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इस पहाड़ पर चढ़ने के लिए बड़ा जिगरा चाहिए

गुरु रिन्पोछे ने पहली बार कंचनजंगा को एक देवी के रूप में पूजा और तबसे बौद्ध मान्यताओं में कंचनजंघा का एक अलग महत्व है.

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kanchanjngha wikipedia
कंचनजंघा (फोटो-विकीपीडिया)
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मानस राज
11 मार्च 2024 (Updated: 13 मार्च 2024, 01:30 PM IST)
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पर्वतारोहियों का एक दल भारत की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचा. जब दल वापस आया तब उन्होंने बताया कि वो चोटी से 5 फुट नीचे खड़े थे. इतना सुनते ही सिक्किम के राजा भड़क गए. वो गुस्से में बोले 

"जिस आदमी की बात तुम कर रहे हो उसकी हाइट ही 6 फीट है. अगर वो चोटी से 5 फीट नीचे खड़ा था, तो भी उसका सिर मेरे देवता से 1 फुट ऊपर होगा." 
 

सिक्किम के लोगों का कहना था कि इस घटना के बाद सिक्किम में मौसम ने अपना कहर बरपाया. भारी बारिश ने आसपास के इलाकों तबाह कर दिया. जिसने भी चोटी के करीब जाने की कोशिश की, उसका हश्र अच्छा नहीं हुआ. सिक्किम में लम्बे समय से मान्यता है कि इस पहाड़ की सुरक्षा राक्षस कर रहे हैं. जब ये पहाड़ खुश होता है तब फसलें अच्छी होती हैं, नदियों में मछलियां बढ़ जाती हैं.  पर जब नाराज होता है, तब आती है भारी तबाही. 
हम बात कर रहे हैं भारत के सबसे ऊंचे पहाड़ कंचनजंगाकी. 5 चोटियों से मिलकर बना एक पहाड़. जिसने भी इस पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की, वो या तो मारे गए या चढ़ नहीं सके. बड़ी मुश्किल से इसे फतह किया गया. स्थानीय लोग इसे देवता मानते हैं , विदेशियों के लिए अडवेंचर और वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य. क्या है इस पहाड़ की कहानी?

शुरुआत करते हैं इतिहास से.  
आठवीं शताब्दी में तिब्बत में एक बौद्ध साधु हुए. नाम था पद्मसंभव. तिब्बत में सम्मान से उन्हें "लोपों रिन्पोछे" कहा जाता था. हिन्दी में इसका मतलब होता है वो गुरु जिसके जैसा कोई और न हो. इन्हीं गुरु रिन्पोछे ने पहली बार कंचनजंगाको एक देवी के रूप में पूजा और तबसे बौद्ध मान्यताओं में कंचनजंगाका एक अलग महत्व है.  

कंचनजंघा शब्द का मतलब ?
तिब्बत के बौद्ध धर्म में कंचनजंगाको कई नामों से जाना जाता है.  कंचनजंगा- ‘काचेन’ और ‘द्जोंग’,, दो शब्दों से मिलकर बना है. इसका मतलब होता है किले के समान बर्फ से ढका पर्वत. एक और मतलब होता है बर्फ के पांच खजाने. मान्यता है कि कंचनजंगाकी पांच चोटियों में सोना, नमक, जवाहरात,  धर्मग्रन्थ और शस्त्र दफ़न हैं. दिलचस्प बात ये है कि कंचनजंगावाकई में पांच चोटियों से मिलकर बना है.
-कंचनजंगा प्रथम, 
-कंचनजंगा मध्य, 
-कंचनजंगा पश्चिम, 
-कंचनजंगा दक्षिण 
-और कांगबाचेन  

पर मान्यताएं यहीं आकर नहीं रुकती. तिब्बती बौद्ध समुदाय में इस पर्वत को बेयुल डेमोशोंग यानी मौत और तकलीफ से आगे की एक दुनिया मानता है. यानी वो घाटी जो छिपी हुई है; जो मृत्यु, बीमारी और पीड़ा से भी आगे की एक दुनिया है. साथ ही इस पहाड़ का शुरू से सिक्किम के लेपचा समुदाय से नाता रहा है. लेपचा समुदाय का इतिहास क्या है? इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता. पर मान्यता है कि इनका संबंध कंचनजंगाकी बर्फ से है इसलिए लेपचा लोग कंचनजंगाको पवित्र और खुद को कंचनजंगाके बर्फ से पैदा हुआ मनुष्य मानते हैं.  

सिक्किम राजवंश का चिन्ह (फोटो-विकीपीडिया)

इतिहास पर रिपोर्ट्स पब्लिश करने वाली वेबसाइट, Live History India में यश मिश्रा के एक लेख के मुताबिक 13 वीं सदी तक सिक्किम में बाहरी लोग का आना-जाना न के बराबर था. फिर तिब्बत से लोगों ने आकर यहां बसना शुरू किया. यहां आने वाले तिब्बती अपने को 'ल्हापो' कहा करते थे. आगे चलकर इन्हें ही भूटिया कहा जाने लगा. समय के साथ इलाके में इनका दबदबा बढ़ता गया.  लेपचा पहले से सिक्किम के इलाके में थे. भूटिया लोगों के आने से पहली बार लेपचा भी बौद्ध धर्म से परिचित हुए. और फिर 17वीं सदी में भूटिया और लेपचा, दोनों ने मिलकर स्थापना की नामग्याल साम्राज्य की. भूटिया समुदाय बौद्ध धर्म को मानता था. और बौद्धों में कंचनजंगाको देवी के रूप में पूजा जाता था. इसलिए भूटिया और लेपचा के साथ आने के बाद कंचनजंगाकी अहमियत और बढ़ गई. दोनों के लिए ये पर्वत एक पवित्र स्थल बन गया.

सब कुछ ऐसे ही चलता रहा और फिर आई 19वीं सदी. देश में अंग्रेज आ चुके थे. और इस समय भारत के पड़ोस नेपाल में गुरखाओं  का राज था. गुरखाओं ने भारत के नॉर्थ और नॉर्थ-ईस्ट इलाकों पर कब्जा करना शुरू किया. इस कब्जे की जद में सिक्किम भी आ गया जिससे  नामग्याल साम्राज्य पर खतरा मंडराने लगा. नामग्याल साम्राज्य ने तब अंग्रेजों से मदद की गुहार लगाई. अंग्रेजों को चाहिए थी भरत की अधिक से अधिक जमीन इसलिए उन्हें भी सिक्किम में दिलचस्पी थी. अंग्रेजों ने गुरखाओं पर हमला किया. 1814 से 1816 तक चले इस युद्ध में गुरखाओं की हार हुई. इस हार के साथ ही अंग्रेजों के लिए  तिब्बत जाने का दरवाजा खुल गया. फिर नामग्याल साम्राज्य और अंग्रेजों के बीच एक समझौता हुआ. इस समझौते के तहत अंग्रेजों को दार्जिलिंग मिल गया. ब्रिटिशर्स को इससे दो फायदे हुए . एक तो उन्हें बंगाल  गर्मी से राहत मिल गई, दूसरा दार्जिलिंग से हिमालयन रेंज के सर्वेक्षण का काम भी आसान हो गया.

सर्वे करने वालों की दिलचस्पी इस क्षेत्र में बढ़ती जा रही थी. 1878 से 1881 तक एक ब्रिटिश कैप्टन H.J. Harman ने सिक्किम का रेगुलर सर्वे शुरू किया. कैप्टन Harman ने उस क्षेत्र में मौजूद अन्य पहाड़ों जैसे चोमोयुमो और दोंख्या ला पर भी चढ़ाई की कोशिश की. साल 1881 में वो कंचनजंगाकी तलहटी तक पहुँचने में कामयाब रहे. पर घने जंगल वाला रास्ता होने की वजह से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और उसी साल कैप्टन Harman की मौत हो गई. पर मरने से पहले उन्होंने अपने सर्वे का नक्शा ब्रिटिश प्रशासन को भेज दिया था. इस नक्शे को 1882 में पहली बार प्रकाशित किया गया. इन सब बातों से चोगयाल राजवंश परेशान था. वो नहीं चाहते थे कि उस क्षेत्र में विदेशियों की आवाजाही बढ़े. इसके बाद क्षेत्र में आने वाले अंग्रेज, कंचनजंगाएक्सप्लोर करने के लिए वहाँ के लोकल लोगों की मदद लेने लगे. 
19 वीं सदी का आखिरी दशक शुरू हो चुका था. और इस दौरान दो ब्रिटिश अधिकारियों की सिक्किम और खासकर कंचनजंगामें दिलचस्पी जागी. पहले थे J. C. White. J. C. White तब सिक्किम के पॉलिटिकल ऑफिसर के के तौर पर तैनात थे. वो यहां बीस साल से रह रहे थे. दूसरे थे कलकत्ता के एक फोटोग्राफर  T. Hoffmann. दोनों ने ज़ेमू ग्लेशियर तक का सफर किया और 5350 मीटर की हाइट पर पहुँच गए. इसके बाद उन्होंने उत्तर की तरफ बढ़ना शुरू किया. और तिब्बत बॉर्डर के पास Naku la तक पहुंच गए. Hoffmann ने उस वक्त पहली बार उत्तर से Siniolchu पर्वत की तस्वीर ली. वापस लौटकर Hoffmann ने  Royal Geographical Society ,London में अपनी शानदार तस्वीरों के साथ लेक्चर दिया. वहीं  J. C. White ने Sikkim and bhutan नाम से किताब लिखी.

इलाके के सर्वेक्षण में अंग्रेजों ने कंचनजंगाके आसपास की पहाड़ियों, घाटियों और वनस्पतियों पर रिसर्च की. पर इसकी दुर्गमता की वजह से कोई इसपर चढ़ने की कोशिश नहीं करता. दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ एवरेस्ट पर सफलतापूर्वक चढ़ने वाले भी कंचनजंगाकी चोटी तक नहीं पहुँच पाते.लेकिन चूंकि हम ठहरे इंसान. हमारे नेचर में हार मानना नहीं बल्कि कोशिश करना है. तो कंचनजंगापर चढ़ने की लगातार कोशिश की गई. साल1905 में  इस कोशिश में एक युरोपियन पर्वतारोही और तीन स्थानीय कुली मारे गए. इसके बाद भी कई दशकों तक इसपर चढ़ने की कोशिशें जारी रहीं. पर कोई कोशिश सफल न हो सकी. मान्यताएं कहती हैं कि इस पहाड़ की रक्षा एक राक्षस करता है. लोग ये भी मानते हैं कि इस क्षेत्र में एक विशाल और खतरनाक जीव 'येति' पाया जाता है. कई लोगों ने येति के पैरों के निशान और उनसे सामना होने कहानियां बयान की हैं. कुल मिलाकर जिसने भी इस पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की, वो या तो मारा गया या चढ़ नहीं सका.

येति

इसके बाद कैलंडर पर साल आया 1929 का. जर्मनी के एक 9 सदस्यों वाले एक साहसी दल ने कंचनजंगापर चढ़ाई का फैसला किया. इनकी अगुवाई कर रहे थे Paul Bauer. 18 अगस्त 1929 को ग्रीन लेक से कुछ दूरी पर एक बेस कैम्प बनाया गया.  Paul Bauer की योजना थी कि कंचनजंगापर नए रास्ते चढ़ाई की जाए. 16 सितंबर को वो एक ऊंची चोटी पर पहुंच भी गए. लेकिन 7100 मीटर की हाइट पर मौसम खराब हो गया और Paul Bauer को अपने दल के साथ वापस लौटना पड़ा. इसके बाद 1931 में Paul Bauer ने फिरसे कंचनजंगाफतह करने की कोशिश की. इस बार टीम में 10 जाँबाज जर्मन शामिल थे. उन्होंने फिर  से 1929 वाले रूट को फॉलो किया और बेस कैम्प 6 तक पहुंचे. पर 7360 मीटर पर मौसम लगातार बेरहम होता गया और कैम्प  लगाने में मुश्किलें आने लगी. इस दौरान 10 सदस्यों वाले दल ने पैर फिसलने और बीमार होने की वजह से अपने चार साथी खो दिए. पर चढ़ाई तब भी जारी रही. कुछ दिनों में दल कंचनजंगा की पूर्व दिशा की साइड के सबसे ऊंचे पॉइंट पर पहुंच गया. पर यहाँ से आगे बिल्कुल खड़ी और खतरनाक बर्फीली चढ़ाई थी जिसे पार करना नामुमकिन था. एक बार फिर से Paul Bauer का कंचनजंगाफतह करने का सपना, सपना ही रह गया.  

फिर आया साल 1947. अंग्रेजों ने भारत से रुखसती ली.  सिक्किम किसका हिस्सा होगा ये तय नहीं था. सिक्किम राज-परिवार ने तब भी कंचनजंगाकी पवित्रता कायम रखी. पर अंग्रेजों की सिक्किम और हिमालय में दिलचस्पी कम नहीं हुई. 1955 में एक ब्रिटिश दल ने सिक्किम के राजवंश से कंचनजंगापर चढ़ने की इजाजत मांगी. चूंकि कंचनजंगाको देवता का दर्जा हासिल है इसलिए ब्रिटिश दल से ये वादा लिया गया वो धर्मिक  मान्यताओं का ख्याल रखते हुए चोटी से 6 फीट दूर ही रहेंगे. उन्होंने इस वादे का सम्मान करते हुए चोटी से 6 फ़ीट नीचे तक ही चढ़ाई की.

कंचनजंगा और भारत के रिश्ते में एक महत्वपूर्ण पड़ाव आया था 1975 में. देश की पीएम थीं इंदिरा गांधी. 1971 की जंग के बाद इंदिरा गांधी उत्साह से लबरेज थीं. सिक्किम उनके लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि अगर सिक्किम चीन के हिस्से जाता तो भारत का सिलीगुड़ी कॉरिडोर जिसे चिकन नेक कहा जाता है वो खतरे में पड़ जाता. और, पूरे नॉर्थ-ईस्ट से भारत का संपर्क टूट जाता. सिक्किम को कब्जे में लेने के लिए इंदिरा गांधी ने विश्वास जताया तब के रिसर्च एंड ऐनालिसिस विंग के प्रमुख रामेश्वर नाथ काव पर. 

सिक्किम स्थित बौद्ध मठ

बहरहाल, वापस आते हैं कंचनजंगाके किस्से पर. 1975 में सिक्किम भारत का हिस्सा बन गया. और इसके साथ ही कंचनजंगाभी. इससे पहले उत्तराखंड के नंदा देवी पर्वत को देश के सबसे ऊंचे पहाड़ का दर्जा हासिल था. पर सिक्किम के विलय के साथ ही भारत की सबसे ऊंची चोटी बन गई कंचनजंघा.

फिर दो साल बाद 1977 में भारत से कर्नल नरेंद्र कुमार की अगुवाई में भारत का झण्डा पहली बार कंचनजंगापर फहराया गया. इसकी कहानी भी बेहद दिलचस्प है. दरअसल साल 1977 में ये तय हो चुका था कि सिक्किम अब भारत का हिस्सा है. चोगयाल वंश की सत्ता समाप्त हो चुकी थी. इसलिए कंचनजंगापर चढ़ाई के लिए सिक्किम की तरफ से जाने की इजाजत मिल गई. टीम ने ज़ेमू ग्लेशियर के पास ग्रीन लेक नामक एक झील पर अपना बेस कैम्प बनाया. पर इस दौरान एक हादसा हो गया. रास्ते के निचले सेक्शन में हवलदार सिंह की रस्सियों से नीचे उतरते समय मौत हो गई.  आखिरकार उन्होंने उसी रास्ते से जाने का फैसला किया. जिससे जाने की कोशिश में  Paul Bauer और उनका दल, 2 बार नाकामयाब हो चुके थे. पर भारतीय दल ने सभी चुनौतियाँ पार करते हुए 7990 मीटर की रिज पर कैम्प  लगाया. वहाँ मेजर प्रेमचंद और नायक एन डी शेरपा ने एक पड़ाव डाला. इसके बाद कंचनजंगाको हर तरफ से फतह किया गया. चोटियों का रहस्य अब रहस्य नहीं रह गया था. 
indian mountaineering foundation के वाइस प्रेजिडेंट रह चुके पर्वतारोही, हरीश कपाड़िया कंचनजंगाके बारे में लिखते हैं  "कंचनजंघा एक खूबसूरत और बहुत ही ऊंचा पहाड़ है. सिक्किम के लोग इसे देवता मानते हैं. नॉर्थ सिक्किम के ऊपर शान से खड़ा ये पर्वत आसपास की पहाड़ियों में सबसे ऊंचा है. खोजे और चढ़े जाने के बाद भी इसकि आपको आश्चर्यचकित करने की क्षमता, महिमा सुर सुंदरता बरकरार है. और ये हमेशा ऐसे ही रहेगी. "
इसी साल सरकार ने कंचनजंगाके साथ आसपास की घाटियों और- जंगलों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया है. ये पर्वत अभी भी पर्वतारोहियों के लिए एक चुनौती है. और हर साल सैकड़ों लोग इस पर चढ़ने की मंशा लिए हिमालय तक आते हैं. इस उम्मीद में कि कंचनजंगा की देवी उन्हें भी अपना आशीर्वाद देगी.    

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