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पैगंबर मुहम्मद के वक़्त का वो दूसरा पैगंबर, जो काबे की तरफ मुंह कर के नमाज़ पढ़ने को मूर्तिपूजा कहता था

'इस्लाम का इतिहास' सीरीज की 12वीं किस्त.

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प्रतीकात्मक तस्वीर Courtesy: davron.uz
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लल्लनटॉप
23 अक्तूबर 2017 (Updated: 23 अक्तूबर 2017, 02:31 PM IST) कॉमेंट्स
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ये आर्टिकल 'दी लल्लनटॉप' के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है. 'इस्लाम का इतिहास' नाम की इस सीरीज में ताबिश इस्लाम के उदय और उसके आसपास की घटनाओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं. ये एक जानकारीपरक सीरीज होगी जिससे इस्लाम की उत्पत्ति के वक़्त की घटनाओं का लेखाजोखा पाठकों को पढ़ने मिलेगा. ये सीरीज ताबिश सिद्दीकी की व्यक्तिगत रिसर्च पर आधारित है. आप ताबिश से सीधे अपनी बात कहने के लिए इस पते पर चिट्ठी भेज सकते हैं - writertabish@gmail.com




इस्लाम के पहले का अरब: भाग 12

मुसैलिमा या मुसलमा वो व्यक्ति था, जिसने पैगंबर मुहम्मद से पहले स्वयं को पैगंबर घोषित कर रखा था. मुसलमा बनू हनीफ़ा क़बीले का मुखिया था. मुसलमा ने कैसिया बिन्ते अल-हारिस से शादी की थी, जो कि मक्का के बहुत कुलीन वंश बनू अब्द-शम्स से संबंध रखती थीं. ये वंश उसी कुरैश घराने का ही हिस्सा था, जिसमे पैगंबर मुहम्मद का जन्म हुआ था.
मुसलमा यमामा में रहता था. जिसे अल-यमामा के नाम से जाना जाता था. ये आज के सऊदी अरब के नज्द के पास पड़ने वाला एक पुरातन प्रांत था. मुसलमा की यमामा में इतनी अधिक इज्ज़त थी कि उसे 'रहमान अल-यमामा' के नाम से पुकारा जाता था. जिसका अर्थ होता है 'यमामा का दयालु'. यमामा में मुसलमा को और भी बहुत से क़बीलों का समर्थन प्राप्त था. पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु से कुछ पहले के वर्षों में मुसलमा ने अन्य समर्थक क़बीलों के साथ मिलकर यमामा में एक नयी सामाजिक व्यवस्था बनाई थी. वहां उसने एक हरम (सुरक्षित या पवित्र स्थान) का निर्माण किया था, जहां उसी तरह से लड़ाई वर्जित थी, जैसे काबा के आसपास होती थी.
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खुद को पैगंबर मुहम्मद के बराबर का मानता था मुसलमा

मुसलमा का ये भी दावा था कि उसके पास भी उसी तरह ईशवाणी के सन्देश हैं, जैसे की मुहम्मद के पास हैं. उसके समर्थक बहुत पुराने समय से ही उसके इन संदेशों को संजो कर रखते थे. मुसलमा का ये भी दावा था कि ये सन्देश उस तक अल्लाह के फ़रिश्ते जिब्राईल ही लेकर आते थे. जैसे वो मुहम्मद के पास अल्लाह के सन्देश लाते थे. मुसलमा के माननेवालों में उन संदेशों के प्रति उतनी ही श्रद्धा थी, जैसे मुसलमानों में कुरान को लेकर थी.
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जब पैगंबर मुहम्मद इस दुनिया से चले गए, तब मुसलमा और उसके समर्थक ये उम्मीद लगाने लगे थे कि अब शायद इस्लाम के माननेवाले उनकी ओर आ जाएं क्योंकि उनके पैगंबर, मुसलमा अभी तक जीवित हैं. जबकि मुहम्मद इस दुनिया से जा चुके हैं. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मुसलमा ने ये भी दावा किया कि जो क़ुरान मुहम्मद के पास आ रही थी, वो अब मुसलमा के पास ट्रांसफर कर दी गई है. और क़ुरान की आयतों का आना बंद नहीं होगा. ये मुसलमा के जीवित रहने तक चलेगा.

ज़मीन के एक हिस्से पर था दावा

मुसलमा ने पैगंबर के ज़िंदा रहते ही उनके साथ साझा पैगंबर होने का दावा किया था, जिसे पैगंबर मुहम्मद ने सिरे से खारिज कर के मुसलमा को झूठा पैगंबर घोषित कर दिया था. मुसलमा ने कहा था कि अल्लाह ने ज़मीन के दो हिस्से किए हैं. एक हिस्सा उसने मुहम्मद को दिया है और दूसरा मुसलमा को. इसलिए हम दोनों शांति के साथ अपने अपने हिस्से में रह सकते हैं. मगर इस दावे को मुहम्मद और उनके समर्थकों ने नहीं माना था.
पैगंबर मुहम्मद के इस दुनिया से जाने पर मुसलमा के पास आई एक आयत को इब्ने कसीर अपनी तफसीर में ऐसे लिखते हैं,
"सुनो तुम लोग. ढपली उठाओ और नाचो. और अपने पैगंबर की स्तुति गाओ. क्योंकि बनू-हाशिम का पैगंबर अब इस दुनिया से जा चुका है और या-रब या पैगम्बर उठ खडा हुआ है."
मुसलमा के पास आई इस आयत से पता चलता है कि उसके समर्थकों में अपने पैगंबर के जीवित रहने की कितनी ख़ुशी थी और किस तरह की उम्मीद उन्होंने आगे अपने पैगंबर से लगाई रखी होगी.
 मूर्तियों से घिरे काबे की एक प्रतीकात्मक पेंटिंग. (इमेज सोर्स: parhlo.com)
मूर्तियों से घिरे काबे की एक प्रतीकात्मक पेंटिंग. (इमेज सोर्स: parhlo.com)

'बिस्मिल्लाह' से जोड़ रखा था खुद को

मुसलमा को मानने वाले लोग स्वयं को रहमानिया कहते थे और वो मुसलमा को रहमान के नाम से पुकारते थे. रहमान मतलब रहम करने वाला. मुसलमा के समर्थक ये दावा करते थे कि मुसलमानों द्वारा कहा जाने वाला वाक्य बिस्मिल्लाह हिर-रहमा निर्रहीम, यानि, शुरू करता हूं मैं अल्लाह के नाम से जो बेहद दयालु है, दरअसल मुसलमा के मानने वालों का स्तुति वाक्य था. जिसे वो किसी भी काम को शुरू करने से पहले करते थे. इस दावे के पीछे कितना सच है, कितना झूठ इसका तो पता नहीं मगर मुसलमा को रहमान नाम से पुकारा जाता था ये बात ऐतिहासिक तौर पर साबित है.
मुसलमा के पास जो आयते आती थीं, उनके संकलन को उसके समर्थक फ़ारूक़ कहते थे. जिसका अर्थ होता है सही और ग़लत के बीच फैसला करने वाला. उसकी किताब को लोग इस मायने में लेते थे कि ये सच और झूठ के बीच फैसला करने वाली है. मुसलमा के धर्म के बारे में फ़ारसी की बहुप्रसिद्ध पुस्तक दबिस्तान-ए-मज़ाहिब नामक पुस्तक में सबसे अधिक विस्तार के साथ बताया गया है.

मुहम्मद कुली की बातें

सत्तरवीं शताब्दी में दबिस्तान के लेखक की मुलाक़ात मुसलमा के धर्म मानने वाले कुछ लोगों से होती है. जिनमें से एक व्यक्ति का नाम था मुहम्मद क़ुली. लेखक पर भरोसा करने के बाद क़ुली अपने धर्म की बहुत सी बातें उनके सामने खोल कर रखता है. जिसे लेखक ने पूरे विस्तार से सबके सामने रखा है.
क़ुली कहता है कि एक सच्चे श्रद्धालु को मुसलमा को सच्चा, प्रखर बुद्धिमान और पैगंबर मानना होता है. अगर वो ऐसा नहीं करता है तो वो श्रद्धालु नहीं माना जाएगा. क़ुली आगे कहता है कि मुसलमा एक दैवीय कार्य के लिए दुनिया में आया था. और वो पैगंबर मुहम्मद का साथी था. वो पैगम्बर मुहम्मद का वैसा ही सहयोगी था, जैसे मूसा के सहयोगी हारून थे. वो आगे कहता है कि गवाही के लिए एक समय में कम से कम दो पैगंबर ज़रूरी होते हैं. और अगर उस से भी ज्यादा हों, तो और अच्छा रहता है.
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क़ुली मुसलमा की किताब से और आयत सुनाते हुए कहता है,
"ए लोगो, इस बात पर यक़ीन करो कि, हमारा ख़ुदा इस दुनिया का ख़ुदा है, और वो इस सारी सृष्टि और उनमे रहने वाले लोगों का ख़ुदा है. और वो सबसे बड़ा है और कोई भी उसके जैसा नहीं है. मगर ऐसा मत कहो कि उसका कोई शरीर नहीं है. क्योंकि हो सकता है उसका कोई शरीर हो और वो ऐसा न हो जैसा उसके द्वारा बनाये गए बंदों का हो. क्योंकि ख़ुदा के हाथ, कान, और आंख के बारे में फ़ुरकान भी कहता है."
मुसलमा को मानने वाले क़ुरान को फ़ुरकान बुलाते हैं. वो क़ुरान को दूसरा फ़ारूक कहते हैं जबकि मुसलमा की किताब को पहला फ़ारूक. क़ुली कहता है कि मुसलमा की किताब में ख़ुदा के आंख, नाक, कान होने की बात से उसका ये मतलब न निकाला जाए कि ख़ुदा की हम लोगों जैसी ही आखें, कान और हाथ हैं, बल्कि इसे दुसरे रूप में लेना चाहिए. क्योंकि हम वही समझ सकते हैं, जो हमने देखा हो और ख़ुदा अपने आपको अपने बंदों के सामने जिस भी रूप में चाहे प्रकट कर सकता है.
मुक़द्दस काबा की एक पुरानी तस्वीर. (इमेज सोर्स: Destination Economy.com)
मुक़द्दस काबा की एक पुरानी तस्वीर. (इमेज सोर्स: Destination Economy.com)

क़ुली आगे कहता है कि मुहम्मद के समय में किस तरफ़ मुह करके प्रार्थना करनी है इसका कोई नियम नहीं था. जिसकी जैसी मर्ज़ी होती थी वो उस तरफ मुंह कर के प्रार्थना कर लेता था. मुहम्मद के जाने के बाद उनके अनुयायियों ने सबको जबरन काबा की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ानी शुरू करवाई. मुहम्मद के जाने के बाद मुसलमा ने कहा कि ऐसे स्थान या इमारत की तरफ़ मुंह करके प्रार्थना करना मूर्तिपूजा ही है और जो ख़ुदा निराकार है उसके लिए हम किसी भी तरफ़ मुंह कर के प्रार्थना कर सकते हैं. कैसे हम एक निराकार ख़ुदा के लिए एक स्थान या किबला को स्थापित कर सकते हैं भला? उस निराकार के लिए हम किसी भी स्थान पर, किसी भी तरफ़ मुंह कर के प्रार्थना के लिए खड़े हो सकते हैं. ये कहकर कि मैं तुझे याद करता हूं जिसका न तो आकार है और न कोई दिशा.
क्रमशः


'इस्लाम का इतिहास' की पिछली किस्तें:

Part 1: कहानी आब-ए-ज़मज़म और काबे के अंदर रखी 360 मूर्ति
यों
 की

Part 2: कहानी उस शख्स की, जिसने काबा पर कब्ज़ा किया था

Part 3: जब काबे की हिफ़ाज़त के लिए एक सांप तैनात करना पड़ा

पार्ट 4: अल्लाह को इकलौता नहीं, सबसे बड़ा देवता माना जाता था

पार्ट 5: 'अल्लाह' नाम इस्लाम आने के पहले से इस्तेमाल होता आया है

पार्ट 6:अरब की तीन देवियों की कहानी, जिन्हें अल्लाह की बेटियां माना जाता था

पार्ट 7: कहानी काबा में लगे काले पत्थर की, जिसके बारे में अलग-अलग किस्से मशहूर हैं

पार्ट 8 : सफा और मारवा पहाड़ियां, जहां से देवता आसिफ और देवी नायेलह की मूर्तियां हटाई गईं

पार्ट 9: इस्लाम के आने से पहले औरतों की स्थिति कैसी थी?

पार्ट 10: इस्लाम से पहले अरब के लोग शारीरिक संबंधों को लेकर खुली सोच के थे

पार्ट 11: पैगंबर मुहम्मद के वक़्त और भी कई लोगों ने पैगंबरी पर दावा कर रखा था

वीडियो: अयोध्या में उस आदमी का इंटरव्यू जिसने बाबरी मस्जिद तोड़ी थी!

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