ड्राई डे का चक्कर क्या है? क्यों पड़ता है? कब से पड़ रहा है?
2000 साल पुराना इतिहास है. 2000 सालों से रिंदों को मयक़दे से दूर रखने की जुगत लग रही है.
अर्ज़ किया है -
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ, संवर जाएंगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ ये बात फ़िराक़ गोरखपुरी की तरह शराफ़त और चतुराई से भी कह सकते थे, कि
आए थे हंसते-खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़',
जब पी चुके शराब, तो संजीदा हो गए
लेकिन उन्होंने नहीं कही. जब से मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें हटाकर, मिर्ज़ा ग़ालिब को अपना उस्ताद बना लिया था, तब से ज़ौक़ थोड़ा टेढ़े ही रहे. ख़ैर, ध्यान देने वाली बात ये है कि ज़ौक़ के वक़्त के मुल्ला भी बिगड़े हुए थे.
उर्दू शायरी में शराब का एक क़द रहा भाईसाब. बहुतों ने लिखा. बहुत लिखा. मगर उर्दू के शराब-ख़ाने का एक अलग मतलब है. वहां शराब या मयख़ाने का इशारा कमहोशी, बेख़याली, खुली सोच, संवाद-विवाद, दुनियावी नियमों से परे की तरफ़ है. इसीलिए कई शेर सीधे-सीधे सत्ता से, सिस्टम से, धर्म से पंगा लेते हैं.
पर सिस्टम को तो सिस्टम में रहना है. इसीलिए मॉडर्न नेशन स्टेट्स बनने से बहुत पहले से दुनिया में ड्राई डे आया. हिंदी में, सूखे दिन. जो नहीं पीते, उनके लिए तो सब दिन एक समान. मगर जो पीते हैं, उन्हें पानी मिलेगा, दूध मिलेगा, शरबत भी मिलेगा. शराब नहीं मिलेगी. नो शराब = सूखा दिन. चखना खाइए. गला छील लीजिए.
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ज़्यादातर भारतीय राज्य साल के कुछ दिन ड्राई डे लागू करते हैं. धार्मिक त्योहारों, राष्ट्रीय त्योहारों - 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्टूबर, वग़ैरह, चुनाव के दिनों में ड्राई डे लागू रहता है. भारत-ऑस्ट्रेलिया वर्ल्ड कप के दिन भी दिल्ली सरकार ने ड्राई डे लगाया हुआ था. तक़लीफ़ तो बहुत हुई, पर उस दिन बहुत लोग 2 बजे तक पी नहीं पाये.
सीधा क़ानून - ड्राई स्टेट है या ड्राई डे है या दोनों है, तो शराब बिकेगी नहीं. आपके पास है, तो पीजिए. घर में पीजिए.
डिस्क्लेमर - शराब पीना सेहत के लिए हानिकारक है. सूचना समाप्त.
शराब के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने का सबसे पहला संकेत दूसरी शताब्दी में मिलता है. हम्मुराबी संहिता में. हम्मुराबी की संहिता प्राचीन मेसोपोटामिया के क़ानून के बारे में दुनिया के सबसे पुराने गूढ़ लेखों में से एक है. इस कोड के तहत क़ायदा बना कि बीयर को पैसे के लिए नहीं बेचा जाएगा, जौ के बदले बेचा जाएगा.
आने वाले वक़्त में अलग-अलग हुक़ूमतों, रियासतों और समय में अलग-अलग नियम क़ायदे बने. जहां-जहां धर्म का ज़ोर था, वहां सख़्ती ज़्यादा थी. बाक़ी जैसा हुक़ुम का हुक़ुम.
दुनिया में, इतिहास में, शराब के ख़िलाफ़ होने वाली मुहीम में महिलाएं अगुवा रही हैं. उन्होंने इसका दंश झेला है, झेल रही हैं. 20वीं सदी में पश्चिम में नारीवादी आंदोलन की महिलाओं ने भी अपना समर्थन दिया था.
कई बार पाबंदी भी लगी. भारत में भी लगी. अलग-अलग शहरों में. हमारे संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) में से भी ज़िक्र है - "मेडिकल वजहों को छोड़कर, राज्य स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पेय और ड्रग्स के सेवन पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास करेगा."
हुकूमत बाकायदा फरमान निकाल कर ड्राई डे लागू करती है. जोड़-जाड़ के साल में 20-22 सूखे दिन. माने निदा फ़ाज़ली होते, तो 22 दिन छोड़ कर वो ये शेर हर रात पढ़ सकते थे -
कुछ भी बचा न कहने को, हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएं, रात हो गई
ये दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि निषेध या रोक से अवैध तस्करी का जोख़िम है. शराब माफ़िया से लेकर ज़हरीली शराब के बिकने तक. इसके अलावा संविधान ये तो कहता है कि शराब पर प्रतिबंध होना चाहिए. लेकिन राज्यों का इसमें नफ़ा है. शराब के राजस्व को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं.
बाक़ी शराब पीनी है, बिकनी है, उस पर राय लिब्रल होनी चाहिए. मीर तक़ी मीर की तरह -
तुझ को मस्जिद है, मुझ को मय-ख़ाना
वाइज़ा अपनी-अपनी क़िस्मत है