The Lallantop
Advertisement

क्रेमलिन से लाल झंडा तो उतार दिया, लेकिन उसके आगे..?

सोवियत संघ बेहतर था या उसके बाद की स्थिति?

Advertisement
Img The Lallantop
font-size
Small
Medium
Large
17 जनवरी 2017 (Updated: 17 जनवरी 2017, 08:24 IST)
Updated: 17 जनवरी 2017 08:24 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

ashish आशीष मिश्र लखनऊ से हैं. कहते हैं, कंप्यूटर सॉफ्टवेर में कुछ किया है और लंदन में रह रहे हैं लेकिन लखनऊ का कीड़ा भीतर बिलबिलाता रहता है. आशीष लखनऊ से इतना प्यार करते हैं कि जन्नत और लखनऊ के चुनाव में लखनऊ लेना पसंद करेंगे.


26 दिसम्बर 1991 को हंसिया-हथौड़े के साथ सुर्ख़ लाल झंडा मास्को में ऐतिहासिक क्रेमलिन से उतारा जा रहा था. वो भीषण सर्दियों के दिन थे जब दुनिया की पहली समाजवादी सरकार सर्वहारा आंदोलन की ज़मीन पर प्रतिक्रांति के सामने अपने घुटने टेक रही थी. वहीं दूसरी तरफ दुनिया के किसान और मज़दूर जमातों की धड़कने कुछ देर के लिए थम सी गई थीं और वो इस विघटन से हुए नुकसान की भयावहता को मापने में लग गई थीं. इस घटना से ठीक चार दिन पहले यानी 22 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ के तीन सबसे बड़े सूबों ने सोवियत संघ के विघटन का फैसला कर लिया था, जबकि सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी को उसी वर्ष की गर्मियों में भंग कर दिया गया था. सोवियत संघ का विघटन उस प्रतिक्रांति का नतीजा था, जिसकी शुरुआत 1985 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की पुनर्गठन की प्रक्रिया के साथ शुरू हो गयी थी और साल 1989 आते-आते अपने चरम पर पहुंच गई. नतीजा यह हुआ कि सोवियत संघ से समाजवाद का खात्मा हो गया. हालांकि ऐसा एक दिन में नहीं हुआ था. प्रतिक्रांति की जड़ें तभी से मज़बूत होने लगीं थीं, जब 1956 से संशोधनवादी और अवसरवादी फैसले लिए जाने लगे थे जिसके पीछे सिर्फ और सिर्फ पूंजीवादी शक्तियां लगी हुई थीं. साल 1991 के बाद बोल्शेविक आंदोलन से बनी सोवियत संघ की समाजवादी ज़मीन पूंजीवादियों के हाथों लूट के उपलब्ध हो गई जो अभिजात्य वर्ग की नुमांइदगी कर रहे थे. उसी साल मार्च में सोवियत संघ में एक जनमत भी कराया गया था जिसमे लगभग 76 परसेंट लोगों ने सोवियत संघ की समाज़वादी सरकार और संघ के बने रहने के पक्ष में वोट दिया था हालांकि प्रतिक्रांति आंदोलन ने जान बूझकर इसे नज़र अंदाज़ कर दिया जो उनकी पूंजीवादी मानसिकता और मंसूबों को साफ़-साफ़ दर्शाता था.
सोवियत संघ टूटने के दर्द को उस वक़्त एक ग्रीस कम्युनिस्ट अखबार ने कुछ इस तरह लिखा था - The Soviet red flag is no longer waving in the domes of the Kremlin. Its lowering sealed with a dramatic and symbolical way the end of the 74 year old course of the first socialist state in the world. For a moment the clocks indicators remained motionless, marking the critical moment. The hearts of many million workers in all over there world stopped beating, weighting the magnitude of the losses.
सोवियत संघ की विशाल सामाजिक उपलब्धियों को नई पूंजीवादी सरकार ने अपने भ्रामक वादों के दम पर धराशायी कर दिया था. नई सरकार ने लोगो को भरोसा दिलाया था कि रूसी लोगों को और अधिक लोकतंत्र, अधिक सामाजिक स्वतंत्रता और एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था मिलेगी जो लोगों की ज़िन्दगी में क्रांतिकारी बदलाव लेकर आएगी जबकि इस बात का उस समय तक और आज के समय में भी कोई सबूत नहीं मिलता है बल्कि उल्टा दुनिया में मुक्त बाज़ार व्यवस्थाएं ध्वस्त होती दिखाई दे रहीं हैं. विघटन के बाद नयी पूंजीवादी सरकार ने इस बदलाव को “शॉक थेरेपी” का नाम दिया था और आर्थिक उदारीकरण की कई नीतियों को रातों-रात लागू कर दिया, जिससे रूसी लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर कई नकारात्मक प्रभाव हुए. मसलन सामाजिक और आर्थिक असमानताओं में तेजी से वृद्धि होने लगी, समाजवादी कल्याणकारी राज्य का विनाश हो गया, श्रमिक वर्गों के सामाजिक अधिकार कम हो गए और गरीबी चरम पर पहुंच गई.
सोवियत संघ में हुए प्रतिक्रांति से आज 25 साल बाद भी अधिकतर रुसी लोग ख़ास तौर पर बूढ़े लोग सोचते हैं कि सोवियत संघ की सामाजवादी सरकार के समय सामजिक और आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर थी. लोग ये भी मानतें है कि पूंजीवादी रुसी सरकार सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्र में विफल रही है और समाज के कुछ ख़ास वर्गों तक ही लाभ पहुँचा है.

मार्च 2016 में एक सर्वे कराया गया जिसमें ये निकलकर आया कि अगर आज सोवियत संघ के पक्ष में वोट कराया जाए तो 64 परसेंट लोग इसके पक्ष में वोट करेंगे और उन लोगों ने उस समय के सोवियत संघ विघटन पर खेद भी व्यक्त किया.

मार्च 2013 में एक और पब्लिक सर्वे कराया गया जिसमें 60 परसेंट लोगों ने माना कि सोवियत संघ में ज़िन्दगी नकारात्मक पहलुओं की तुलना में अधिक सकारात्मक थी. कुछ इसी तरह कि सोच सोवियत संघ से अलग हुए दूसरें देशों में भी सामने आयी, जहां देश की नीतियां समाज के कुछ ख़ास लोगों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से बनाई गईं और बनाई जा रहीं हैं. मज़दूर-किसान की बात कहीं पीछे छूटती जा रही है. आज बड़ा सवाल ये है कि आर्थिक उदारीकरण और राष्ट्रवाद के नाम पर समाज और देश को आगे ले जाने का दावा करने वाला अभिजात्य और पूंजीवादी वर्ग हर जगह नाकाम रहा ? और अगर नाकाम रहा तो क्या समाजवाद ही समाज की बेहतरी का जवाब है ? और क्या वैसा जैसा सोवियत संघ के समय में था या इसे कुछ बदलावों के साथ आना चाहिए? हाल ही में आशीष की एक किताब भी आयी है अगर दिल करे तो नीचे दिए गए लिंक से खरीद सकते हैं.हरफनमौला #_अमेज़न लिंक # http://amzn.to/2iEXuR1

thumbnail

Advertisement

Advertisement