वो शेर जिसमें ईश्वर का जिक्र आने पर कठमुल्ले भड़क गए
अल्लाह से सवाल कीजिए और फतवा मुफ्त पाइए. लोग हाथ-पांव धोकर पीछे पड़ जाते हैं.
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मोहम्मद अलवी
1995 में एक शायर को ये सितम सहना पड़ा था. साहित्य अकादमी अवॉर्ड विनर थे मुहम्मद अलवी. उन्होंने शेर कहा,
'अगर तुझको फुरसत नहीं हो तो न आना
मगर एक अच्छा नबी भेज देना'
अलवी ने 1978 में अहमदाबाद में नदी किनारे अपने बंगले के बरामदे में ये ग़ज़ल लिखी थी. तब उन्हें नहीं पता था कि वे मौलानाओं की नाराजगी मोल ले रहे हैं. इसके 17 साल बाद अहमदाबाद के एक इस्लामी संस्थान ने फतवा जारी कर उनकी ग़ज़ल को 'धर्मविरोधी' और उन्हें 'काफिर' करार दे दिया. ये संस्थान था दारूल उलूम शाह-ए-आलम. अलवी को ये धमकी भी दी गई कि उन्होंने इस 'जुर्म' पर अफसोस जाहिर नहीं किया तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा.इसके बाद भी वही पुरातन-सनातन बहस शुरू हुई थी, लेखकों के लिखने-बोलने की आजादी बनाम मजहबी कट्टरपंथ. मरहूम ग़ज़लगो निदा फाजली ने तब कहा था, 'अलवी के खिलाफ फतवा बहुत पहले शुरू हुए रुझान का ही नया रूप है. तरक्कीपसंद ताकतों को इस खतरनाक रुझान को रोकना चाहिए.'
ये वही अलवी थे जिनके ग़ज़ल संग्रह 'चौथा आसमान' को 1993 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. इसी में वो ग़ज़ल शामिल थी, जिसमें यह विवादित शेर था. अलवी ने इस शेर में खुदा से गिरते इंसानी मूल्यों वाली दुनिया में अच्छा पैगंबर भेजने की गुजारिश की है. एक बार फिर शेर पढ़ें,
'अगर तुझको फुरसत नहीं हो तो न आना
मगर एक अच्छा नबी भेज देना'
फतवा जारी किया था दारूल उलूम के मुफ्ती मुहम्मद शबीर सिद्दीकी ने. उनका कहना था कि हमने किताब-ए-पाक के ऐन मुताबिक फतवा जारी किया. अल्लाह से अच्छा पैगंबर भेजने की मांग करने से जाहिर है कि अलवी मुहम्मद साहब को न तो आखिरी और न ही बेहतरीन पैगंबर मानते हैं. इसलिए वे मुसलमान ही नहीं रहे.
मुफ्ती मुहम्मद शबीर सिद्दीकी
ये फतवा जारी किया गया था इस संस्थान के कर्ताधर्ता और हाईकोर्ट के रिटायर्ड वकील उस्मान भाई खत्री के कहने पर. उनका कहना था कि अहमदाबाद की एक पत्रिका 'गुल्बन' में ये ग़ज़ल छपी थी. तब कुछ लोगों ने संस्थान का ध्यान इस ओर दिलाया और फतवा जारी करने की मांग की.
खत्री ने तब कहा था, 'अलवी जैसे बागी शायरों को रुश्दी के मामले से सबक लेना चाहिए, जो आज तक अपने गुनाहों की सजा भुगत रहा है. अलवी के खिलाफ हम और सख्त फैसला देते. पर मैं चूंकि वकील रह चुका हूं, इसलिए मुझे उन कानूनी पचड़ों का अंदाजा है, जिनमें हम इससे फंस सकते थे.'
जब ये फतवा जारी हुआ था तो अलवी हफ्ते भर के भीतर अपने परिवार समेत बंबई चले गए. टेलीफोन पर उन्होंने नपे-तुले शब्दों में कहा, 'किन्ही स्वार्थों की वजह से मजहबपरस्तों ने ग़ज़ल का गलत मतलब निकाला है.'
इसी समय दिल्ली के उर्दू विद्वान गोपीचंद नारंग ने मारके की बात कही थी. उन्होंने कहा था, 'अगर मजहबपरस्त महज अलफाज़ पर जाएंगे तो ज्यादातर उर्दू शायरी फतवे के लायक मानी जाएगी.'
वैसे, खोजने जाएंगे तो उर्दू में ऐसे शेर बहुत सारे मिल जाएंगे. सबसे पहले तो मोमिन ही याद आते हैं,
हम निकालेंगे सुन ऐ मौजे-हवा बल तेरा
उसकी ज़ुल्फ़ो के अगर बाल परेशां होंगे
उम्र सारी तो कटी इश्क़े-बुतां में 'मोमिन'
आखिरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे