The Lallantop
Advertisement

सबसे खूंखार सरदार पर सबसे ‘बदमाश’ सरदार के बोल

भिंडरांवाले से बेखौफ थे खुशवंत सिंह. आज जन्मदिन है.

Advertisement
Img The Lallantop
1 फ़रवरी 2021 (Updated: 2 फ़रवरी 2021, 09:38 IST)
Updated: 2 फ़रवरी 2021 09:38 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
आज जिस शख्स का हैप्पी बड्डे है वो सिर्फ लिखने के लिए पैदा हुआ था. सुबह 4 बजे मुर्गा बोलने में आलस कर सकता था. खुशवंत सिंह लिखने में नहीं. लोग कहते थे बुड्ढा सेक्स और रोमांस में डूबा है. 'ओल्ड डर्टी मैन' कहते थे. खुशवंत को कोई फर्क नहीं पड़ता था. कहते "जिस्म से बूढ़ा हूं. लेकिन दिल जवान है. मेरे अंदर किसी चीज को छुपाने की हिम्मत नहीं है. कहता हूं, मैं पीता हूं. नास्तिक हूं. लेकिन कभी किसी की आस्था को चोट नहीं पहुंचाई. ओल्ड डर्टी मैन की इमेज इसलिए बनी, क्योंकि मैं सेक्स के बारे में लिखता हूं. मैं सुबह चार बजे से लिखना शुरू कर देता हूं और जिस आदमी ने 80 से ज्यादा किताबें लिखी हों, उसके पास क्या अय्याशी के लिए वक़्त है? लोग कहते हैं , मैं उसकी परवाह नहीं करता." आज ही की तारीख सन 1915 में पैदा हुए थे खुशवंत. सर शोभा सिंह के घर. वही सर शोभा सिंह जो भगत सिंह के खिलाफ अदालत में गवाही दिए थे. खुशवंत की उम्र पापा को डिफेंड करने में कटी. खैर वो दाग कहां धुलते हैं जो पुरनिया लगा जाते हैं. फिर कौन जाने उनके पापा ने सही किया था कि गलत. उसका फैसला हिस्ट्री पर छोड़ो. खुशवंत सिंह को पढ़ो. ज्ञान मिलेगा. खुशवंत सिंह को पद्म भूषण मिला. वो सरकार को बाइज्जत वापस कर दिए थे. स्वर्ण मंदिर में जकरेटे ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में. तब पुरस्कार वापसी का चलन नहीं आया था. 2007 में पद्म विभूषण मिला. 20 मार्च सन 2014 को बिना उम्र की सेंचुरी पूरी किए दुनिया से आउट हो गए. 99 साल की उम्र में. खुशवंत सिंह बेखौफ आदमी था. उसने 80 के दशक में सबसे बड़े सिख आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले पर लिखा. पंजाब की सियासत पर भी. किताब का नाम है 'मेरा लहूलुहान पंजाब'. इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है. पढ़िए उसका एक हिस्सा.
कुछ पीछे मुड़कर देखें तो हम जान जाएंगे कि प्रकाश सिंह बादल के अकाली शासन (जून, 1977 से फरवरी, 1980) के दौरान ही पंजाब में हालात बिगड़ने शुरू हो गए थे. इसकी शुरुआत जरनैल सिंह भिंडरांवाले के अनुयायियों और निरंकारियों के एक उपधड़े के बीच हुई मुठभेड़ों के साथ हुई. जरनैल सिंह भिंडरांवाले एक साधारण-सा युवक था, जिसको दमदमी टकसाल का प्रमुख बना दिया गया था. दमदमी टकसाल का वैसे सिखों के लिए कोई खास महत्त्व नहीं था, लेकिन कांग्रेस और अकाली दल ने बारी-बारी से उसकी स्थिति का फायदा उठाने के लिए उसके अहम को पोषित किया. होते-होते वह एक भयोत्पादक ताकत में तब्दील हो गया और लोगों को अपने इशारों पर नचाने लगा. भिंडरांवाले के चमत्कार को समझने के लिए हमें उसके बारे में कुछ जानकारी लेनी होगी और देखना होगा कि वे कौन-सी परिस्थितियां थीं जिनके चलते कल का एक नाचीज-सा व्यक्ति ऐसी ताकत बन बैठा कि वह 80 करोड़ लोगों के सम्पूर्ण राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए ही चुनौती बन गया. जोगिन्दर सिंह नाम के एक मामूली से खेतिहर किसान के सात बेटों में सबसे छोटा जरनैल सिंह था. उसका जन्म रोडे गांव (जिला मोगा) में सन् 1947 में हुआ था. उनके परिवार की हालत इतनी पतली थी कि कभी-कभी वे अपने पशुओं के लिए चारा भी नहीं खरीद पाते थे. जरनैल सिंह कक्षा पांच तक ही पढ़ पाया था कि उसके पिता ने सन् 1965 में उसे भिंडरां गांव के सन्त गुरबचन सिंह खालसा को सौंप दिया. सन्त गुरबचन सिंह खालसा उस गांव का धार्मिक केन्द्र, दमदमी टकसाल चलाते थे. दमदमी टकसाल ने सिखों के दस गुरुओं में अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह से जुड़े होने के कारण धार्मिक प्रतिष्ठा प्राप्त की हुई थी. टकसाल से जुड़ने के साल-भर बाद जरनैल सिंह का प्रीतम कौर से विवाह हो गया. उनके दो पुत्र हुए. जरनैल सिंह ने स्कूली पढ़ाई की कमी को सिखों के धर्मग्रन्थों के व्यापक अध्ययन द्वारा पूरा किया. उसकी स्मरणशक्ति बहुत तेज थी, अतः उपदेश देते समय वह ग्रन्थ साहिब में से उद्धरण देता रहता था. सन्त गुरबचन सिंह के बाद सन्त करतार सिंह ने उनका स्थान ले लिया था. लेकिन वे भी 3 अगस्त, 1977 को एक सड़क दुर्घटना में मारे गए तो जरनैल सिंह को दमदमी टकसाल का प्रमुख चुन लिया गया. इसके साथ ही उसके नाम के साथ ‘सन्त’ उपसर्ग तथा ‘भिंडरांवाले’ प्रत्यय जुड़ गया और वह सन्त जरनैल सिंह भिंडरांवाले कहलाने लगा. टकसाल के प्रमुख बनने के कुछ ही समय के भीतर जरनैल सिंह को सिख धर्म में विश्वास के पुनर्जागरण का सबसे प्रभावशाली औजार समझा जाने लगा. उसने गांव-गांव घूमकर सिख युवकों को गुरु गोविन्द सिंह द्वारा प्रारम्भ की गई क्रान्तिकारी खालसा परम्पराओं की ओर लौटने का आह्वान किया. उसने उनको समझाया कि वे दाढ़ी-केश न मुंड़वाएं और सिगरेट-शराब से परहेज करें. वह जहां भी जाता, सैकड़ों की तादाद में पुरुषों और महिलाओं को दीक्षा देता. उसके उपदेशों का एक अभिन्न अंग होता लोगों को शस्त्र धारण करने के लिए उकसाना. वह उन्हें यह तर्क देकर समझाता कि उनके योद्धा गुरु गोविन्द सिंह ने भी शस्त्र धारण करने का आदेश दिया था. वह अपने अनुयायियों को कृपाण के अलावा रायफलों और पिस्तौलों जैसे आधुनिक शस्त्र धारण करने का भी आदेश देता था. वह स्वयं भी पिस्तौल रखता था और कमर में गोलियों से भरी पेटी लगाए रहता था. जरनैल सिंह अब इतना महत्त्वपूर्ण हो गया था कि राजनीतिक पार्टियां उसके आगे-पीछे घूमा करतीं. जनता पार्टी के शासनकाल के दौरान सर्वप्रथम ज्ञानी जैल सिंह ने ही एक राजनीतिक सत्ता के रूप में उसकी सामर्थ्य का फायदा उठाने की कोशिश की. वे तब पंजाब में कांग्रेस के नेता थे और सोचते थे कि भिंडरांवाले के समर्थन से गुरुद्वारों को अकालियों की गहरी पकड़ से मुक्त कराया जा सकता था. पर ज्ञानी जी को क्या पता था कि अपने ही बिछाए बारूद पर एक दिन उनको खुद ही खड़ा होना पड़ेगा. इसी बीच अकाली दल का आनन्दपुर साहिब में एक सम्मेलन हुआ और उन्होंने सिखों की मांगों का ब्यौरा देते हुए एक प्रस्ताव पास किया जिसका अभिप्राय था खालिस्तान की मांग. और भी मांगें थीं:
चंडीगढ़ को पूरी तरह पंजाब की राजधानी बनाना (आज दिन तक चंडीगढ़ पंजाब और हरियाणा की साझी राजधानी है). पड़ोसी राज्यों हिमाचल प्रदेश और हरियाणा को दिए गए पंजाबी-भाषी क्षेत्रों को पुनः पंजाब में मिलाने के लिए राज्य की सीमाओं का पुनर्गठन करना. पंजाब के इलाके से गुजरने वाली नदियों के पानी का ज्यादा हिस्सा पंजाब को दिया जाए.
इन मांगों के साथ-साथ अकालियों ने पंजाब राज्य के लिए अधिक स्वायत्तता की भी मांग रखी. प्रस्ताव का सबसे विवादास्पद हिस्सा यह था कि यद्यपि सीमाओं के पुनर्गठन से पंजाब की सिख जनसंख्या अल्पसंख्या में आ जाएगी, लेकिन फिर भी सरकार से इस बात के लिए साफ-साफ बयान मांगा गया कि नवनिर्मित राज्य में सिखों की आवाज ही सर्वोपरि होगी (खालसा जी दा बोलबाला). 13 अप्रैल, 1978 को अमृतसर में जरनैल सिंह भिंडरांवाले के अनुयायियों तथा निरंकारियों की खूनी मुठभेड़ों के बाद पंजाब का राजनीतिक परिदृश्य गरमाने लगा था. निरंकारियों और रूढ़िवादी सिखों में अन्तर यह है कि रूढ़िवादी सिख गुरुग्रन्थ साहिब में वर्णित केवल दस ही गुरुओं पर विश्वास करते हैं, जबकि निरंकारी लोग अनेक गुरुओं को मानते हैं. जीवित गुरु में आस्था (रूढ़िग्रस्त धर्म के लिए अभिशाप) रखने के अतिरिक्त निरंकारियों के अपने दो अलग धर्मग्रन्थ भी हैं, जिनमें दस गुरुओं और गुरुग्रन्थ साहिब को लेकर अपशब्द भी लिखे हुए हैं. नवम्बर, 1973 में एस.जी.पी.सी. ने एक औपचारिक प्रस्ताव पारित करके निरंकारियों को ‘अपना धर्म छोड़ भागनेवाले लोग’ घोषित कर दिया. तब से कट्टर सिखों और निरंकारियों के बीच अक्सर झड़पें होती रहीं, लेकिन सन् 1978 की बैसाखी के दिन निरंकारियों की सभा की तरफ जाते भिंडरांवाले के अनुयायियों के बड़े जुलूस पर गोली चलाई गई, जिसमें भिंडरांवाले के तेरह अनुयायी मारे गए. उन्हीं में एक फौजा सिंह भी था जिसकी विधवा अमरजीत कौर बाद में खाड़कुओं की एक बड़ी नेता बनी. कत्ल के इल्जाम लगे निरंकारियों पर, जिन्हें इस बिना पर छोड़ दिया गया कि गोली उन्होंने आत्मरक्षा में चलाई थी. उसके बाद से तो निरंकारियों और उनसे सहानुभूति रखनेवाले लोगों के विरुद्ध ताबड़तोड़ हिंसक घटनाएं होती रहीं. 24 अप्रैल, 1980 को निरंकारी समुदाय के प्रमुख बाबा गुरबचन सिंह की दिल्ली में हत्या कर दी गई. इसके बाद तो कोई ऐसी सप्ताह नहीं बीतता था जब निरंकारी या और लोग कट्टर खालसों की हिंसा के शिकार नहीं होते. ये उग्रवादी कट्टरपन्थी तत्व अकालियों के साथ कैसे आ मिले और कैसे अकालियों ने मोर्चा संभाले रखा और 2 लाख स्वयंसेवकों को ‘जेल भरो आन्दोलन’ के लिए राजी कर लिया, यह बात सोचने योग्य है. दोनों दलों के लक्ष्यों में समान कुछ भी नहीं दिखता. अकाली हरित क्रान्ति द्वारा समृद्ध हुए खेतिहर किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व करनेवाला राजनीतिक दल है. इसका उद्देश्य कांग्रेस से राजनीतिक सत्ता छीनना रहा है ताकि नदियों के पानी और विद्युत शक्ति की खुली आपूर्ति से पंजाब में कृषि के क्षेत्र में आई समृद्धि को और बढ़ाया जाए और कृषि पर निर्भर उद्योगों, जैसे चीनी उद्योग और टैक्सटाइल उद्योग के क्षेत्र में नए-नए कारखाने खोलकर अपने गन्ने और कपास के प्रचुर उत्पादन से अपने ही यहां तैयार माल बनाया जाए. भिंडरांवाले के अनुयायियों में शामिल कट्टरपन्थियों, अखंड कीर्तनी जत्थों और सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन की ज्यादा रुचि इसमें है कि पंजाब में सिखों का प्रभुत्व कैसे कायम किया जाए. इसका एक ही साधन इन्हें सूझता है और वह यह, कि सिखों को हिन्दुओं से जुदा किया जाए तथा बड़ी तादाद में उत्तर प्रदेश और बिहार से हिन्दू खेतिहर मजदूरों को पंजाब में आने से रोका जाए. इन खेतिहर मजदूरों के आने के कारण पंजाब में सिखों की जनसंख्या का अनुपात 56 प्रतिशत से घटकर 52 प्रतिशत रह गया है. अखंड कीर्तनी जत्थों और सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन ने अकालियों के साथ गठबन्धन कर लिया और दोनों ने मिलकर अपनी शिकायतों की धार्मिक, राजनीतिक तथा आर्थिक आधार पर एक सामान्य सूची तैयार की. कोई पूछे कि इन्हें तब इसका खयाल क्यों नहीं आया जब अकाली दल की अपनी सरकार पंजाब में थी? अकालियों के अभिलेखागार में जिस आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव पर पिछले आठ सालों से धूल की तहें जम रही थीं, उसे अचानक बाहर निकाल लिया गया और उसे सिखों की मांगों का प्रपत्र बनाकर प्रस्तुत किया जाने लगा. सन्त हरचन्द सिंह लोंगोवाल, जी.एस. तोहड़ा तथा प्रकाश सिंह बादल जैसे मध्यमार्गी (मॉडरेट) अकाली नेताओं ने बाकी मांगों के मुकाबले केवल दो ही मुख्य मांगों पर अधिक जोर दिया: एक तो यह कि हरियाणा के साथ सीमाओं में थोड़ा-बहुत समायोजन कर चंडीगढ़ को सिर्फ पंजाब की राजधानी बना दिया जाए और दूसरी यह कि नदियों के पानी का नए सिरे से बंटवारे का मुद्दा उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश को सौंप दिया जाए. उन्होंने इन दो मांगों को छोड़कर बाकी मांगों को नजरअन्दाज करने की भरसक कोशिश की, पर कट्टरपन्थी सिखों में स्वायत्त पंजाब पर सिखों की स्थायी प्रभुता की मांग से रत्ती-भर भी टस से मस होने के लक्षण नहीं दिखे. सन् 1981 में मामला हद से अधिक गरमाने लगा. फरवरी में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी दिल्ली में अकाली नेताओं से मिलीं. उन्होंने अकालियों की मांगों को मानने से इनकार कर दिया. अकाली अब आक्रामकता पर उतर आए. गर्मियों में बम विस्फोटों, आगजनी और हत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया. दल खालसा के उग्रवादियों ने गायों के कटे सिर फेंककर कई हिन्दू मन्दिरों को अपवित्र किया. सितम्बर में उन्होंने इंडियन एयर लाइंस के एक विमान का अपहरण कर लिया और उसके बाद तो निरर्थक हत्याओं का दौर ही चल पड़ा. उनका एक सबसे बड़ा शिकार तो पंजाब के सबसे ज्यादा बिकनेवाले पत्र-समूह के मालिक लाला जगतनारायण थे, जिनकी 9 सितम्बर को हत्या कर दी गई. स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती ही गई. अगस्त, 1982 में अकालियों ने सरकार के विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़ने की घोषणा कर दी. उन्होंने सन्त हरचन्द सिंह लोंगोवाल को पंजाब की जेलें भरने के इस धर्मयुद्ध को चलाने के लिए डिक्टेटर बना दिया. अक्टूबर तक लगभग 30,000 अकाली गिरफ्तारी दे चुके थे. बाद में उन्होंने संसद पर भी धावा बोला जिसमें चार पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई. नहर रोको, रेल रोको, रास्ता रोको, काम रोको. न जाने कितने ही आन्दोलन एक के बाद एक चलाए गए और इस प्रकार उनका धर्मयुद्ध जारी रहा, हालांकि उसमें धर्मसंगत तो कुछ ढूंढ़ने पर भी नहीं दिख सकता था. निरपराध निरंकारियों और हिन्दुओं की कायराना हत्याओं को कौन धर्मसंगत कहेगा? आखिरकार सरकार की आंखें खुलीं और उसे लगा कि समस्या अब अत्यन्त गम्भीर मोड़ ले चुकी है. सरकार ने सभी अकालियों को जेलों से रिहा किया और उन्हें ताजा बातचीत के लिए निमंत्रित किया. अकाली फिर भी अपनी बात पर अड़े रहे और उन्होंने जिद की कि प्रधानमंत्री पहले उनकी मांगों को स्वीकार करें, नहीं तो वे दिल्ली में होनेवाले एशियाई खेलों में बाधा डालने का आंदोलन करेंगे. सरकार ने इस पर कुछ ज्यादा ही प्रतिक्रिया की. अकालियों के प्रदर्शनों को दबाने के लिए हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली की पुलिस को तैनात किया गया. सड़क मार्गों अथवा रेलों द्वारा दिल्ली आनेवाले हर सिख को रोका जाता और उसकी पूरी जांच-पड़ताल और पूछताछ की जाती. सिखों के साथ इस प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार भारत में पहली बार हो रहा था. सिखों से जुड़े किसी भी मामले में एशियाड के समयवाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना हर कहीं दोहराई जाने लगी. अब तो वास्तव में सिखों के प्रति हर जगह भेदभाव बरता जाता है. मैं भिंडरांवाले से केवल सन् 1981 में मिला, जब अकालियों ने अपना आंदोलन शुरू ही किया था. उस दिन वह मुझे ही संबोधित करके अपना भाषण दे रहा था. उसको बताया गया था कि मैंने उसके बारे में लिखा था कि वह हिन्दुओं और सिखों में नफरत फैला रहा था. लगभग 30,000 श्रोताओं के सामने उसने मेरे आरोपों का खंडन करते हुए विस्तारपूर्वक समझाया कि वह तो गुरुओं के उपदेशों का ही प्रचार कर रहा था और सिखों को अपने पूर्वजों की लड़ाकू परम्परा की ओर लौटने को प्रेरित कर रहा था. मैंने सप्ताह का आखिरी समय उसके भाषणों के टेप सुनने में बिताया जो उसने एक के बाद एक गिरफ्तारी के लिए जाते जत्थों को स्वर्ण मन्दिर के परिसर में खड़े होकर दिए थे. जिस मित्र ने मुझे वे टेप दिए थे उसी ने बताया कि ये तो पंजाब के अनेक शहरों में मिल रहे हैं और भिंडरांवाले के अनगिनत अनुयायियों द्वारा बड़ी श्रद्धा से सुने जाते हैं. भिंडरांवाले हिन्दुओं के लिए अपमानजनक ढंग से ‘टोपियोंवाले’, ‘धोतियोंवाले’, ‘मोने’ और ‘महाशे’ (आर्यसमाजियों के लिए) आदि शब्दों का प्रयोग किया करता था. निरंकारियों को वह नरकधारी कहता था और सरकार को हिन्दू समराज का डंडा. इन्दिरा गांधी को कभी ‘बीबी इन्द्रा’ तो कभी ‘इन्द्रा भैन’ कहता या फिर ‘पंडितानी’ या ‘पंडितां दी कुड़ी’. दरबारा (सिंह न लगाते हुए) को जकरिया (पंजाब का मुसलमान गवर्नर जिसने सिखों की बर्बादी की कोशिश की) कहा करता था. जैल सिंह एक धार्मिक प्रकृति के सिख हैं और उनको सिख धर्म-ग्रन्थों के बारे में उतना ही ज्ञान है जितना खुद भिंडरांवाले को. जैल सिंह को भिंडरांवाले ‘चप्पलियां झाड़नवाले’ कहकर अपमानित करता था. उनकी दाढ़ी को रंगने की बात को लेकर भी वह उन पर टीका-टिप्पणी किया करता. जैल सिंह और दरबारा दोनों के लिए उसने एक तुकबन्द कविता बनाई थी:
‘धरम जावे तां जावे, मेरी कुर्सी किथे ना जावे.’
भिंडरांवाले ने न केवल लोगों को नफरत के सन्देश दिए, बल्कि उन्हें हिंसा का भी पाठ पढ़ाया. उसके हर भाषण का केन्द्रीय विषय यही होता कि सिखों को शस्त्रधारी होना चाहिए. सिर्फ कृपाण धारण करना ही पर्याप्त नहीं था (कृपाण धारण करने की बात तो समझ में आती है क्योंकि यह खालसा परम्परा का अभिन्न अंग है), उन्हें बन्दूकों, पिस्तौलों जैसे आधुनिक हथियार भी रखने चाहिए, भले उनके लिए लाइसेंस मिल पाए या नहीं. वह तर्क देता कि क्या छठे गुरु हरगोविन्द ने बादशाह जहांगीर से लाइसेंस लिया था? क्या गुरु गोविन्द सिंह ने बादशाह औरंगजेब से लाइसेंस लिया था? उसने आरोप लगाया कि हिन्दू तो बिना लाइसेंस ही पिस्तौलें-बन्दूकें रख रहे थे, जबकि उनको कोई कुछ नहीं कहता था. वह उन पुलिस अफसरों के नाम भी गिनाता था जो हत्याओं में शामिल थे. वह उन्हें सिखों का खून पीनेवाला कहा करता था और अपने अनुयायियों को उनके परिवारों का खात्मा करने की सलाह देता था ताकि उन्हें वाजिब सजा दी जाए. निरंकारियों के लिए उसके मन में तनिक भी सहानुभूति नहीं थी. वह उन पर गुरुग्रन्थ साहिब को अपवित्र करने का आरोप लगाता और उन्हें नरक का अधिकारी मानता. निरंकारी गुरु को चेतावनी दे दी गई थी कि उसका भी वही हश्र हो सकता है जो उसके पिता का हुआ था. भिंडरांवाले अपने श्रोताओं से वायदा किया करता कि एक न एक दिन खालसा राज कायम होकर रहेगा. वह वर्तमान समय की तुलना मुगलों के निरंकुश शासनकाल से किया करता, ‘‘अगर तब केवल मुट्ठी-भर सिख ही उन मुगलों पर विजय पा सकते थे, तो आज की सरकार को मटियामेट करना सिखों के लिए कोई मुश्किल काम नहीं होना चाहिए.’’ उसने ग्रामीणों को शस्त्र धारण करने के लिए उकसाया और कहा कि वे वक्त आने पर कार्रवाई के लिए कमर कसे रहें. अगर ये नफरत और हिंसा के उपदेश नहीं थे तो फिर मैं नहीं जानता कि ये क्या थे. भिंडरांवाले इस बात से इनकार करता था कि वह फिरकापरस्त था. उसके मुताबिक वह नहीं, बल्कि महाशों के अखबार (हिन्दू-स्वामित्व के अखबार) और सरकार फिरकापरस्त कहे जाने चाहिए क्योंकि ये लोग सिख-विरोधी हैं. उसी रौ में धमकी देते हुए उसने कहा कि अगर उसके किसी भी अनुयायी को किसी ने कोई नुकसान पहुंचाने की कोशिश की तो वह 5,000 निर्दोष हिन्दुओं की जान ले लेगा. सिख गुरुओं की सीख को उसने अगर इतना ही समझा था तो उसने या फिर मैंने ही उनके सन्देशों को बिलकुल ही नहीं समझा. मैं तो यही समझता आ रहा हूं कि सिख धर्म का सार है ‘‘सरबत दा भला और ना कोई बैरी, ना बेगाना, सगल संग हमरी बन आई.’ अगर भिंडरांवाले सही था तो फिर हमारे गुरुओं ने ही गलत कहा होगा. उसके टेपों को कई घंटे सुनने के बाद मुझे जिस बात ने सबसे अधिक तकलीफ दी, वह इस बात का आभास था कि स्वर्ण मन्दिर का वातावरण अब बारूद के एक ढेर में परिवर्तित हुआ पड़ा था. उन लोगों को इससे कोई मतलब नहीं था कि बाकी हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान के बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है. इससे भी अधिक तकलीफदेह बात तो यह थी कि भिंडरांवाले एक बेहद ताकतवर नेता के रूप में उभर रहा था और वह सिख युवकों के एक बड़े भाग का एक चहेता लीडर बन बैठा था. वह जो भाषा बोलता था, उसे पंजाब के ग्रामीण समझते थे और वह उसके अधपढ़े शहरी समर्थकों और छात्रों की समझ में भी आती थी. उसे तथ्यों को अपने मनमुताबिक तोड़-मरोड़कर पेश करने की कला आती थी. अपने आवेग में वह नफरत से भरा जहर उगलता था जिसे चुनौती देने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी. उसके कथनों में विवेक तो था ही नहीं, थी तो केवल नासमझ आक्रोश की एक ऐसी ज्वाला जिसकी परिणति ने उसके अपने समुदाय और सारे हिन्दुस्तान को घेर रखा था. ‘जिस दिन भारत के और बाकी दुनिया के लोग यह सोचना शुरू कर देंगे कि भिंडरांवाले सभी सिखों की ओर से बोल रहा है, वह दिन बहुत दुखभरा दिन होगा. वह सिखों का प्रतिनिधि नहीं है और अपने दसों गुरुओं तथा गुरुग्रन्थ साहिब की अनुकम्पा से, मेरी प्रार्थना है कि वह कभी ऐसा हो भी नहीं पाए,’ मैंने अपने स्तम्भ में लिखा. वीडियो: जाने माने मराठी कवि ने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड लेने से मना क्यों किया? 

thumbnail

Advertisement

election-iconचुनाव यात्रा
और देखे

Advertisement

Advertisement

Advertisement