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डाक यूरोप: भला खंभा भी कोई साफ करता है!

विवेक कुमार के जरिये हम ले आए हैं, यूरोप की सियासत, समाज और किस्सों की नई सीरीज. डाक यूरोप.

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14 जून 2016 (Updated: 14 जून 2016, 01:55 PM IST) कॉमेंट्स
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vivek 2यूरोप. दूर. ठंडा. पराया. अतीत को खुरचें तो हम पर कब्जा करने वाला. और पीछे लौटें तो हमें मसालों की कीमत चुका अमीर करने वाला. मगर सांस्कृतिक रूप से हमेशा दूर दूर रहा. लेकिन ये सब का सब पास्ट है, जो टेंस रहा. प्रेजेंट मजेदार है. आपको पूरे यूरोप में देसी मिल जाएंगे. हमें भी मिल गए. हमारे देसी. नाम विवेक कुमार. जर्मनी में रहते हैं. और उन्होंने वादा किया है कि यूरोप के किस्से-कहानियां, सियासत और समाज के खूब नजारे दिखाएंगे. हमें. आपको. ये उसकी शुरुआत है. इस सीरीज का नाम है डाक यूरोप. आज उसकी पहली किस्त. जर्मनी के एक शहर में दाखिल होइए. विवेक के लिखे शब्दों के साथ. उनकी खींची तस्वीरों के साथ. एहसासों के साथ. जो निरे अपने हैं. इसलिए महसूस होते हैं.
मेरे घर से चार घर छोड़कर एक चौराहा है. उस चौराहे पर एक रेस्टोरेंट है. ठीक उसके दरवाजे के सामने कोने पर रेडलाइट का खंभा लगा है. मैं रोज शाम को उस रेस्टोरेंट वाले को खंभा साफ करते देखता हूं. क्लीनर छिड़ककर वह हर रोज उस जगह को साफ करता है जहां लोग हाथ लगाते हैं. क्यों? भला खंभा भी कोई साफ करता है! IMG_0224 मैं एक रंग-बिरंगे मुल्क में रहता हूं. जहां के लोग बेरंग कपड़े पहनते हैं. काले कपड़े पहनने का तो इन्हें बहुत चाव है. इतना कि मेरी लाल जैकेट का सब मजाक उड़ाते हैं. काले कपड़े वाले इन लोगों के मन रंगीन हैं. ये लोग भागते नहीं हैं, दौड़ते हैं. सुबह, दोपहर, शाम, रात, आधी रात. घर से जब भी बाहर निकलो कोई न कोई दौड़ता हुआ मिल जाएगा. फिट रहना इन्हें अच्छा लगता है.और पढ़ना भी. IMG_0077 ट्राम में, बसों में, नदी के किनारे बेंचों पर, प्लेटफॉर्म्स पर आप अक्सर किसी से आंखें मिलाने को तरस जाते हैं क्योंकि वे सारी की सारी किताबों पर झुकी होती हैं. किताबों की बड़ी-बड़ी दुकानें हैं जहां कई-कई काउंटर हैं और उन पर लाइनें लगी हैं. लेकिन बियर के लिए लाइनें नहीं लगतीं. क्योंकि डिमांड और सप्लाई का जबर्दस्त सामंजस्य है. बैठते ही बियर हाजिर. सैकड़ों तरह की बियर. बियर के मेले लगते हैं. बियर आपके अकेलेपन की साथी हो सकती है. अनजान लड़कों से दोस्ती का जरिया हो सकती है. किसी लड़की से बात करने का बहाना हो सकती है. और फुटबॉल को एंजॉय करने का सहारा भी. क्योंकि फुटबॉल को तो आपको एंजॉय करना ही होगा. नहीं करेंगे तो जर्मनी आपको जमेगा ही नहीं. IMG_0015 इस मुल्क में खूब पेड़ हैं जिन्हें काट दिए जाने का डर नहीं है. शहरों में नदियां हैं जो जिंदा हैं. पत्थर हैं जिन्हें तराशकर अपना हिस्सा बना लिया जाता है. फिर उन्हें शहर-शहर चौराहों पर बिठा दिया जाता है, जहां से वे हर आते-जाते से बतियाते रहते हैं बुजुर्गों की तरह. छोटे-छोटे पहाड़ हैं जिन्हें सजा-संवार कर हरा रखा जाता है. और एक है मौसम. सच में बेईमान. ऐसा कि सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. पल में गर्म पल में ठंडा. और ठंडा भी ऐसा कि हवा गाल पर सीधा चांटा ही मारती है. इसलिए बैग में हर वक्त एक जैकेट रखनी होती है. और एक छाता भी. कब बरसने लगेगा पता नहीं. मतलब पता तो होता है. सुबह घर से निकलने से पहले मौसम चेक करना ही होता है. यह एक रस्म है. एक आदत. और मौसम के बारे में बातें भी खूब होती हैं. किसी अनजान से बात करनी है तो बस इतना कह दीजिए कि मौसम अच्छा है. आपको जवाब जरूर मिलेगा. IMG_0012 और हां, बादलों को अच्छा मौसम नहीं कहना है. एक बार हुआ यूं कि दोस्तों के साथ बाहर घूम रहा था. बादल आए, धूप गायब हो गई. ठंडी हवा चलने लगी. और मुझ हिंदुस्तानी के मुंह से निकल गया, आहा! क्या बढ़िया मौसम है. मेरे जर्मन साथियों ने मुझे ऐसे घूरा जैसे मैंने रात को दिन कह दिया हो. यहां अच्छे मौसम का मतलब है खिली हुई धूप. सर्दी पड़ते ही ये लोग गुम हो जाते हैं. अपने में ही बंद. और ऐसा जानबूझकर नहीं करते. मौसम मजबूर करता है. सर्दी के मौसम में आप का तन ही नहीं, मन भी जाम हो जाता है. और फिर डिप्रेशन होने लगता है. इसलिए गर्मी आते ही ये लोग अपने मन को झाड़-फूंक कर बाहर निकालते हैं और खूब हंसते हैं. IMG_0065 मैं बाहर वाला हूं. जहां से आया हूं वहां की दुनिया एकदम अलग है. इसलिए वहां और यहां की जिंदगी में फर्क देख-समझ सकता हूं. वहां मैं साइकल नहीं चलाता था. यहां आने के पहले ही हफ्ते में साइकल खरीदी. पुरानी साइकल ली है, 140 यूरो की. भारतीय रुपयों में अपनी मां को बताऊंगा तो कहेगी, क्या जरूरत थी इतना पैसा खर्चने की. पर साइकल के बिना यहां मजा नहीं आता. साइकल जिंदगी का हिस्सा है, ठीक वैसे जैसे दिल्ली में ऑटो. साइकल पर लाइट लगानी जरूरी है. साइकल चलाते वक्त हेलमेट भी पहनना होता है. लोग बताते हैं कि बिना हेलमेट और लाइट के साइकल चलाने पर चलान हो सकता है. वैसे, मेरा अभी नहीं हुआ है. यूपी में रहता था तो बाइक भी बिना हेलमेट के चला लेता था. अब साइकल पर हेलमेट लगाने में मुश्किल तो होगी न. IMG_0079 लेकिन यहां आकर मैं ज्यादा हिंदुस्तानी हो गया हूं. रूल्स नहीं तोड़ता हूं क्योंकि लोग कहेंगे देखो यह इंडियन रूल्स तोड़ रहा है. जब दिल्ली में था तब इंडिया से इतना प्यार नहीं था, यहां उसकी इज्जत का ख्याल रहता है. और उस शख्स का भी जो अपनी दुकान के सामने लगे खंभे को साफ रखता है. देखिए कुछ और तस्वीरेंIMG_0014FullSizeRenderr IMG_0070IMG_0046IMG_0045IMG_0021

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