The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Campus Qissa When a bunch of Stephanians decided to stage a Hindi play and it turned out to be life changing

कैम्पस किस्सा: जब बीच नाटक हादसा हुआ, नायिका चीखी और लोगों को लगा एक्टिंग है

सेंट स्टीफंस कॉलेज में हुआ ये प्ले एक्टर्स को जीवन भर याद रहेगा.

Advertisement
Img The Lallantop
बाईं तरफ सेंट स्टीफंस कॉलेज की मुख्य इमारत, दाईं तरफ हिंदी साहित्य सभा के एक पुराने नाटक की तस्वीर.
pic
प्रेरणा
26 मई 2020 (Updated: 28 मई 2020, 07:26 AM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
कॉलेज में लगभग तीन साल पूरे होने को आए थे. ये वो समय था, जब दिल में फांस उतरने को होती है कि अब ये गलियां और ये चौबारा छूटने को हैं. फर्स्ट इयर वालों की खेप अब साथ चलने में चौड़ महसूस करने लगी थी. कि अब हम सेकंड इयर वाले हो जाएंगे. अब हमसे कोई पंगा न लेगा. जिन थर्ड इयर वालों को इसके बाद बाहर जाके पढ़ना था, वो एप्लीकेशन भेजने में लगे हुए थे. यहां से वहां फॉर्म भरने में बिजी दिखाई देते. इनको देखकर लगता, लाइफ क्या ही सॉर्टेड रहती होगी इनकी. बिदेस जाकर पढ़ेंगे. स्कॉलरशिप पर. इनके नाम से मम्मियां हमें जिन्दगी भर ताने देंगी.
Campus Kisse

हम उनकी बिरादरी के रहे नहीं. तो हम नाटक खेलने में व्यस्त थे. बात अभिधा में कही जा रही है, व्यंजना में ना लीजिएगा. चूंकि हमारा तीसरा साल था, तो हमने सोचा इस साल ऐसा नाटक बनाएंगे कि लोग आने वाले सालों में मिसाल दें.
Untitled Design 2020 05 25t144602.094 फिल्म दंगल का वो सीन जहां आमिर खान गीता को उसके मैच से पहले ये लाइन कहते हैं. अगर तू सिल्वर जीती, तो आज नहीं तो कल लोग तन्ने भूल जावेंगे. अगर गोल्ड जीती, तो मिसाल बन जावेगी. और मिसालें दी जाती हैं बेटा, भूली नहीं जातीं. (तस्वीर: फिल्म दंगल से स्क्रीनशॉट/नेटफ्लिक्स)

हमारी हिंदी साहित्य सभा छोटी सी सोसाइटी थी. उसी के टीम मेंबर्स का आइडिया था इस नाटक के पीछे. तो कुल जमा बात ये हुई कि एक ओरिजिनल नाटक लिखा जाए. म्यूजिक से लेकर डायरेक्शन तक. सब कुछ एकदम अलग. अब थोड़ा-सा नाटक के सीन के बारे में बता दें. वो क्या है न, हमारे प्रोफ़ेसर कहते थे कि बिना हिस्टोरिकल बैकग्राउंड के चीज़ें पूरी नहीं होतीं. तो थोड़ा जान लीजिए सेंट स्टीफंस कॉलेज के ड्रामा क्लबों के बारे में.
हमारे कॉलेज में दो नाटक के ग्रुप थे. जिनको थियेटर सोसाइटी या ड्रामा क्लब भी कहा जाता है. एक अंग्रेजी का- शेक्सपियर सोसाइटी. एक हिंदी का- शेक्सपियर सभा. शेक्सपियर सोसाइटी वालों का गजब भोकाल था. उनके नाटकों का लोग नाखून चबाकर इंतज़ार करते थे. सोसाइटी का हिस्सा बनने के लिए स्टूडेंट्स की लाइन लगी रहती थी. मतलब ऐसा समझ लीजिए कि कोई इनके प्रोडक्शन में स्टेज पर प्ले के दौरान चीज़ें भी यहां से वहां रख आता था तो आकर हफ़्तों डींग हांकता था, आई वाज़ वर्किंग विद द शेक सॉक (Shake Soc- बड़े नाम का छोटा रीचार्ज).
Untitled Design 2020 05 25t145038.697 ऐ जी ओ जी हम ना करेंगे, हम तो memes में बातें करेंगे.

इनके अलावा दूसरे थे शेक्सपियर सभा वाले. हिंदी में प्ले होते थे इनके. ये बात कॉलेज आने के बाद पता चली. वो क्या है कि सेंट स्टीफंस को अंग्रेजीदां कॉलेज माना जाता है. लोगों के बीच अफवाह चलती कि यहां के लोग पानी भी इंग्लैंड की थेम्स नदी का पीते हैं. ये भी कि इनके एनुअल फेस्ट में एकोन आकर परफॉर्म करता है. इसका एक बहुत बड़ा रीजन शायद ये भी है कि इसी कॉलेज से पढ़े हुए शशि थरूर ऐसे-ऐसे अंग्रेजी शब्द लिख मारते हैं जिनका मतलब ढूंढने के चक्कर में जनता ट्विटर ट्रेंड चला देती है.
तो यहां पर हिंदी का सीन तगड़ा हो सकता है, ये बाहर के लोगों को आईडिया नहीं था. लेकिन शेक्सपियर सभा ने उस मिथ को तोड़ दिया था. हमारे बैच के तीसरे साल तक इनके भी नाटक भरे हॉल में होने शुरू हो गए थे. और ये बात आज से छह-सात साल पहले की है.
Shake Soc Othelo ओथेलो का मंचन करती शेक्सपियर सोसाइटी. ये प्ले उनके बेहतरीन प्रोडक्शन्स में से एक माना जाता है. अलग-अलग बैच इसे परफॉर्म कर चुके हैं. ये तस्वीर उस साल की नहीं है, बाद की है. (तस्वीर साभार: सेंट स्टीफंस कॉलेज वेबसाइट)

तो हिंदी साहित्य सभा ने सोचा, कि ऑडियंस के लिए कुछ नया लाते हैं. पिछले साल हरिशंकर परसाई के लिखे पीस 'दस दिन का अनशन' पर परफॉर्म कर चुके थे. लोगों को पसंद भी आया था. तो इस बार एक कदम आगे जाने की सोची. लोग जुटाए गए. और नया नाटक लिखा गया. अहिल्या. साहित्य के नवरस पर बना ऐसा नाटक, जो एक लड़की की जिंदगी कवर करता था. बचपन से लेकर उसके बड़े होने तक. अलग-अलग रसों के ज़रिए. म्यूजिक सोसाइटी से हमारी एक दोस्त बुलाई गई. उसे गाना लिखकर दिया, जो उसने कम्पोज किया. एक दूसरी सहेली आई, डांस परफॉर्म करने के लिए. जो नाटक के लगभग आखिर में होना था. लीड रोल के लिए कई ऑडिशन हुए. लेकिन हमारी डायरेक्टर साहिबा को कोई जंचा नहीं. अंत में इन-हाउस के नाम पर हमारे कंधे जोत दिए गए. कि लीड रोल का ऑडिशन दो. दिया, और न जाने डायरेक्टर साहिबा को क्या दिखा, कि निशा का सेंट्रल किरदार हमें थमा दिया गया. लगातार दो महीने प्रैक्टिस हुई. टीम कमर कसकर तैयार थी. हॉल भी बुक करा लिया था.
Hall 1 कॉलेज हॉल का ऊपरी हिस्सा जिस पर पंक्ति लिखी है- जीसस ने कहा, मैं दुनिया का नूर हूं. (तस्वीर: सेंट स्टीफंस कॉलेज वेबसाइट)

इससे पहले कि आप कुछ और समझें, थोड़ा क्लैरिटी ले लीजिए यहां. हमारे कॉलेज में ये नियम था कि अगर आप किसी भी क्लास, हॉल, या कॉमन रूम का इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो आपको परमिशन लेनी होगी. एस्टेट ऑफिस से. उनके पास बाकायदा डायरी होती थी. जिसमें बुकिंग की डीटेल होती थी. अब अगर आपको हॉल में नाटक करना है, या प्रैक्टिस करनी है, पहले परमिशन लेनी होगी. तो हमने दो महीने पहले से ही चिट्ठी-पत्री करा के बुकिंग कर ली थी. बस एक कड़ा नियम था- जितनी देर की बुकिंग है, उसके फ़ौरन बाद जगह खाली करनी होगी.
नाटक वाले दिन
दो शो होने तय हुए. एक ढाई बजे से, और एक साढ़े चार बजे से. सब तैयार था- म्यूजिक, लाइटिंग, डायलॉग, कपड़े. पोस्टर बनाकर बांट दिए गए थे. तीन दिन से जगह-जगह जाकर लोगों को बताना जारी था. पहला शो हुआ. और बहुत अच्छे से हुआ. लेकिन ये चूंकि लंच के ठीक बाद हुआ था, इसलिए कई लोगों ने कहा कि वो शाम के शो में आएंगे. शो के आखिर में मेरे ऊपर लाल रंग गिराया जाना था. और मुझे स्टेज पर बेहोश होना था. इसके बाद नाटक ख़त्म होने पर स्टेज पर पोंछा भी लगना था. ताकि निशान न रह जाएं.
ये सब निपटा कर मैंने सोचा, चलो जाकर नहा लें. अगला शो भी तो है. लाल बाल लेकर तो स्टेज पर जाऊंगी नहीं. तो बाकी लोग आराम करने गए. और मैं पहुंची लेडीज कॉमन रूम. वहां से नहा-धोकर बाहर आने में लगभग 15 मिनट लगे होंगे. हॉल में पहुंची. वहां सब इधर-उधर छितराए हुए थे. कोई खाने गया था. कोई चाय सुड़क रहा था. कोई दो कुर्सियां जोड़कर उन्हीं पर सो गया था. हबड़-तबड़ में सबको उठाया. चलो भई हाथ मुंह धोकर तैयार होओ. ढाबा पर जाकर समोसे खा आओ. इधर लोग गायब हुए, उधर टीम के तीन-चार साथी बैठ गए डिस्कस करने. कि शो कैसा हुआ. कहां कमी रह गई. बीच-बीच में वो लोग आते रहे जिन्होंने पहला शो देखा था. इन सबके बीच कब चार बज गए, पता ही नहीं चला.
Das Din Ka Anshan हिंदी साहित्य सभा का पिछला नाटक 'दस दिन का अनशन' लोगों को पसंद आया था. ये उसी नाटक के दौरान खींची गई एक तस्वीर है.

हॉल के बाहर हल्की भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी. ये वाला शो बड़ा होने वाला था. शाम को खा-पी चुकने के बाद नाटक देखने को मिले, तो कौन मना करेगा. हाथ में चाय के कप लिए दो-तीन लोग साइड से झांक गए थे. हमने अपनी मेकअप आर्टिस्ट से कहा, बहिन जरा देख लो किसी को कुछ करना हो तो. क्लासमेट थी. अपना मेकअप का डब्बा उठा लाई थी. लेकिन आर्टिस्ट सुनने में फैंसी लगता है. तो उसे हम यही बुलाते थे. सब हो गया. पंद्रह मिनट बचे थे. एक आदमी बाहर देख कर आया. बताया अरे दूसरे डिपार्टमेंट के प्रोफ़ेसर लोग भी हैं.
Dhak Dhak हमारी सच में ऐसी ही सिचुएशन थी. (तस्वीर: फिल्म हेरा-फेरी का स्क्रीनशॉट)

हमने अनाउंसमेंट कर दी. प्ले शुरू होने वाला है. लेकिन जैसे ही तैयारियां पूरी होने वाली थीं, किसी ने आवाज़ लगाई. वहां गए तो बैकस्टेज पर घुप्प अंधेरा. और उससे भी ज्यादा अंधियारा लोगों के चेहरों पर छाया हुआ था. पूछा क्या हुआ. तो पता चला, बिजली चली गई. अब वहां किसी को काटो को खून नहीं. हॉल के बाहर भीड़ इकठ्ठा थी. अंदर हम बैठे थे. हमारे सिर पर अंधेरा बैठा था. मिनट बीतते जा रहे थे, हम घड़ियों पर टकटकी लगाए बैठे थे.
अब तक प्ले शुरू हो जाना था. तीसरे सीन तक पहुंच जाना था. लेकिन हम स्टेज की सीढ़ियों पर बैठे थे. खाली कुर्सियां निहार रहे थे. पौन घंटे में हमसे हॉल छिनने वाला था. बाहर जाकर देखा तो भीड़ छंटनी शुरू हो गई थी. लोग पूछ रहे थे, प्ले कब शुरू होगा. बैकअप की कोई दिक्कत थी, पता नहीं क्या हुआ था. कुछ चल नहीं रहा था. जब प्रोफ़ेसर्स भी जाते दिखे, तो लगा, यार कितनी मेहनत की थी. प्रेम से नाटक बनाया था. अब लोग देख भी न पाएंगे. दिल में टीस सी उठ गई. रॉकस्टार के जॉर्डन टाइप जैसा फील कर रहे थे सब भीतर-भीतर. पर अब क्या कर सकते थे. हमने सोचा, चलो सामान समेटें. जैसे झाड़-पोंछकर उठे, बिजली आ गई. सारे एक साथ उछले. लेकिन देर तो हो गई थी. लोग जाने लगे थे. तो फ़टाफ़ट नया प्लैन बनाया गया.
Lan Ke हम कच्चे खिलाड़ी तो थे नहीं, तो हमारा प्लैन भी गलत नहीं होता, हमें इसका भरोसा था. (तस्वीर: फिल्म अंदाज़ अपना अपना से स्क्रीनशॉट)

सभी एक साथ बाहर गए, और लोगों को जा-जाकर बताया कि नाटक शुरू होने वाला है. जो लोग अब भी हॉल के बाहर खड़े थे, वो हमारी फुदकती हुई टीम को देखकर न जाने क्या सोच रहे थे. हमारे पास अब सिर्फ आधे घंटे के करीब समय था.
जितने लोग दिखे, उनको बुलाकर फिर से अनाउंसमेंट कराई गई. हॉल अब भी खाली-सा ही था. लेकिन प्ले शुरू करना ज़रूरी था. अगर आपने कभी स्टेज पर होने वाले नाटक में भाग लिया है, तो आप जानते होंगे कि जब सामने से स्पॉटलाइट पड़ती है तो आंखें एक पल को चौंधिया जाती हैं. फिर कुछ समझ नहीं आता कि सामने कौन है, क्या है. जब आप स्टेज पर होते हैं, तो आपके पास सिर्फ स्टेज होता है. उस पर चलते पैर आपके अपने नहीं होते. आपकी आंखें और आपकी ज़बान अपनी नहीं होती. वो आपने किरदार को उधार दिए होते हैं. और किरदार सामने पड़ी कुर्सियों की परवाह नहीं करता. उसके लिए उसका पूरा अस्तित्व उस लकड़ी के एक 15 फुट बाई 15 फुट के टुकड़े के गिर्द घूमता है. इतने कम समय के लिए पाए अपने जीवन को वो इधर-उधर देखकर कैसे खो दे भला. तो उस वक़्त टीम के सभी लोग सिर्फ और सिर्फ स्टेज पर फोकस बनाए हुए थे.
Dharohar New वो पोस्टर जो हमने बांटे थे. और जिसमें पूरे इवेंट की डीटेल थी. नाटक पहले दिन होना था.

लेकिन एक छोटी-सी चूक हो गई.
किरदार का आर्क नाटक के ख़त्म होने के ठीक पहले ऊंचाई छूने वाला था. उसे गिरना था. पस्त हो जाना था. उसके ऊपर लाल धार गिरनी थी. और इसी के साथ आंखें बंद हो जानी थी. सब कुछ तय था. स्टेज के ऊपर छत की तरफ सामने एक पटरी बनी थी जिस पर चला जा सकता था. मेरा क्लासमेट वहीं खड़ा था. रंग गिराने के लिए. लेकिन न जाने किस चीज़ में उलझ गया. आखिरी क्षण में. रोकते-रोकते भी आंखें ऊपर की ओर उठने को हुईं. किसी बहाने से. कहां है अंत? उसी समय छपाक की आवाज़ के साथ रंग सीधे आंखों में पड़ा. और एक चीख के साथ किरदार का वहीं पटाक्षेप हो गया. इस सीन के बाद एक रौद्र रस की परफॉरमेंस होनी थी. हमारी परफ़ॉर्मर स्टेज पर मौजूद थी. जलती हुई आंखें लिए स्टेज पर पड़ी उस लड़की ने सामने नहीं देखा था. उसके चारों तरफ घूमती परफ़ॉर्मर के पैरों की थाप और उसके घुंघरुओं की आवाज़ गूंज रही थी. एक क्षण को उसके पैरों का महावर दिखा था. बस.
Ahalya New नाटक की प्रमोशनल तस्वीरों में से एक. हमारे कैमरा इंचार्ज साहब ने कमाल काम किया था.

परफॉरमेंस ख़त्म हुई. पर्दा गिरा. जैसे ही दो सेकंड मिले मैंने भागकर चेहरा धोया. आंखें अब भी परपरा रही थीं. वापस आई और बैकस्टेज हम सब इकठ्ठा हो गए. इसके बाद धीरे-धीरे कैरेक्टर्स के नाम अनाउंस हुए. और जब सब एक साथ सामने खड़े हुए, तब भी सामने सब कुछ धुंधला-सा ही दिख रहा था. लेकिन नाटक ख़त्म हो गया था. हमने वादा पूरा कर दिया था. इसकी ख़ुशी ज़ेहन में मौजूद थी. किसी को पता नहीं चल पाया था कि ऊपर से रंग गिरने के बाद लड़की की जो चीख निकली थी वो सौ फीसद असली थी.
नाटकों के आखिर में सभी के क्रेडिट दिए जाते हैं. किसने क्या किया, क्या किरदार निभाया. इसी में प्रोडक्शन वालों के नाम भी आते हैं. लाइट और म्यूजिक वालों के भी. जब लाइट कंट्रोल का नाम अनाउंस हुआ, तो हमारे टीममेट ने बत्तियां एक सेकंड के लिए जलाईं और बुझाईं. उस एक सेकंड में सामने हॉल दिखा. और ये भी, कि कुर्सियां भर गई थीं. ये भी कि हॉल खाली करके बंद करने का जिम्मा जिन्हें सौंपा गया था, वो कोने में खड़े मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. धीरे-धीरे बत्तियां धीमी हुईं. और सामने खड़े तालियां बजाते लोग दिखाई दिए. पूरी टीम ने एक-दूसरे के हाथ जोर से पकड़ रखे थे. हममें से एक-दो शायद कांप भी रहे थे. क्योंकि हमें यकीन नहीं था कि क्या हम इसे सचमुच निभा पाएंगे.
Stephens New कॉलेज का हमारा आखिरी नाटक कैसा होगा, हमें पता नहीं था. लेकिन अंत तक पहुंचते पहुंचते सब ठीक हो ही गया था. जैसा ओम शांति ओम में ओम मखीजा ने कहा था. ये तस्वीर याद दिलाती है उस समय की जब मोबाइल फोन्स में जाबड़ डिजिटल कैमरा जैसे फीचर आए नहीं थे. 2मेगापिक्सल का VGA कैमरा हुआ करता था. उसी से खींची गई तस्वीर है ये.

लेकिन आखिर में स्टेज के सामने खड़ी उस ऑडियंस से ज्यादा हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता था. उस पल में और कुछ भी हमें दे दिया जाता, तो हम उससे इस क्षण की बदली न करते. प्रोफेशनल न हुए थे, कॉलेज के 18-19 साल के बच्चे थे. जिनके लिए ये तालियां और कुछ अच्छा कर जाने की ख़ुशी ही सब कुछ थी. हमारे CV में ये दो महीने की मेहनत नहीं जानी थी. ना ही इसकी वजह से कोई कैंपस प्लेसमेंट वाली कम्पनियां हमें भाव देतीं. लेकिन फिर भी, हमारे लिए वो एक मोमेंट था, जिसे पूरी जिंदगी हमसे कोई नहीं छीन सकता.
अंधेरे में डूबा हुआ वह स्टेज आज भी छुपाए बैठे है अपने-आप में कई कहानियां. सदियों पुरानी सांसें वहां अब भी डूबती-उभरती हैं. उस कोने में किसी की चीख धड़कती है, तो इस कोने में इश्क की गुफ्तगू मचलती सी महसूस होती है. हवा के झोंकों से थरथराते उसके पर्दे एक नामालूम सी दास्तान कहा करते हैं. वह स्टेज नायक है भावनाओं का. स्वप्नभंग का. अभिनय का. जीवन का. और जब लाइटें जलती हैं धीरे-धीरे, अंधेरा छंटता है, तब प्रकाश में आता है हर गाथा का ये प्रच्छन्न नायक. तालियों की गड़गड़ाहट के बीच. मौनपूर्वक अपनी नायिका से वार्तालाप में तल्लीन. एक नई गाथा कहने को तैयार. जिसका सार यही होगा कि जीवन रंगमंच नहीं, रंगमंच ही जीवन है!


वीडियो: 'गुलाबो सिताबो': अमिताभ और आयुष्मान को लड़ते देख मज़ा आएगा?

Advertisement