The Lallantop
Advertisement

टाइगर ज़िन्दा रहेगा क्योंकि इस टाइगर को फांसना फिलहाल तो किसी के बस की बात नहीं

क्यों पड़े हो चक्कर में? कोई नहीं है टक्कर में.

Advertisement
salman khan, tiger zinda hai,
'टाइगर ज़िंदा है' के सीन्स में सलमान खान.
27 दिसंबर 2021 (Updated: 27 दिसंबर 2023, 13:05 IST)
Updated: 27 दिसंबर 2023 13:05 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

जगह - लखनऊ. उम्र - आठवीं क्लास. मुझे अपनी उम्र हमेशा क्लास या इयर के हिसाब से याद रहती है. उस हिसाब से मैंने कॉलेज से निकलने के बाद से बढ़ना बंद कर दिया है. एक दोस्त कपूरथला ले गया. उसे एक दुकान मालूम थी जहां बेहतरीन छोले भटूरे मिलते हैं. मैं वहां पहुंचा और तृप्त होकर वापस आया. एक प्लेट में दो भटूरे, अनलिमिटेड छोले और अचार. अचार हालांकि मैं खाता नहीं. दाम - 10 रुपये. एक बार फिर - 10 रुपये. लखनऊ में इससे बेहतर छोले-भटूरे ढूंढे नहीं मिलेंगे. इसकी गारंटी के साथ. हर कोई आता और तृप्त होकर जाता. वो दिन है और आज का दिन है, अपन वहां अक्सर पाए जाते हैं.
एक सिंपल सा ठेला जिसपर हर वक़्त 3-4 लीटर तेल खौल रहा होता था. पास में बड़ी सी एक परात में मैदा साना जा रहा होता था. कभी भी उस परात को खाली और तेल को ठंडा नहीं देखा. चूंकि वो कोई फैंसी दुकान नहीं है इसलिए शहर भर में उसके बोर्ड नहीं लगे हैं. अखबार में इश्तेहार नहीं निकलता. मैंने कितने ही लोगों को वहां के बारे में बताया है. कइयों को वहां ले जाकर खिलाया है और उस दुकान को नए रेगुलर कस्टमर दिलवाए हैं. बस सभी से एक ही बात कही है - "वहां आस-पास ज़्यादा कुछ देखना मत." क्या है कि थोड़ी गंदगी रहती है. चूंकि एक प्रॉपर दुकान नहीं है इसलिए आस-पास की साफ़-सफाई की गारंटी नहीं है. लोगबाग आते हैं, खाते हैं और जहां मन आया प्लेट छोड़कर चल देते हैं. खाया, कोने में कुल्ला किया, निकल लिए. दही बड़े भी मिलते हैं. वो खाए और कहीं भी दोना फेंका, बढ़ लिए. सुबह झाड़ू लगती है लेकिन दिन भर में इतनी भीड़ जुटने से काफ़ी कचरा इकट्ठा हो जाता है. जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, कूड़ा बढ़ता जाता है.

इस सब के बावजूद, उस ठेले वाले की बिक्री में शायद ही कमी आई हो. चाहे बैंक बंद हो, चाहे नोट बंदी हुई हो, उसने रोज कढ़ाई चढ़ाई, रोज़ भटूरे बेचे. मांग है कि कम नहीं हो रही. दाम वही - 10 रुपये. आज भी. उसके रेगुलर कस्टमर हैं. रिक्शे वाले से लेकर कपूरथला के सहारा टावर में काम करने वाले अफ़सरों तक. बर्मा बेकरी से लगे प्रिंटर सही करने वाली दुकान से लेकर सहारा प्रेस के बगल में मॉडल शॉप से लगे कैफ़े कॉफ़ी डे में काम करने वाले लड़कों तक. कोई कमी नहीं आई है. हमारे जैसे लोग आज भी इस बात का दंभ भरते हैं कि लखनऊ में जेब में 30 रुपये हैं तो आप दिन काट सकते हैं.
सलमान खान यही ठेला है. 10 रुपये में भर पेट, बढ़िया और स्वादिष्ट खाने से लहालोट रहना है तो इसके पास पहुंच जाइए. कोई तीम-झाम नहीं. कोई होम डिलीवरी नहीं. कोई टिश्यू पेपर नहीं. कोई पानी पीने के लिए गिलास नहीं. जो आता है, करता है और गजब करता है. सलमान खान जब नीले शेड का चश्मा लगाकर, गले में भौकाली चेक वाला स्टोल डालकर रेत पर चलता है तो कितनी भी रेत आंखों में घुसे मगर आदमी पलक न झपकाना चाहे. आप मान ही नहीं सकते कि उसके पैर रेत में धंस रहे होंगे. ऐसा लगता भी नहीं. ऐसे में लॉजिक बहुत पीछे छूट जाता है. आप तर्क को कहां घुसेड़ रहे हैं? सामने सलमान खान नीला चश्मा पहन के घूम रहा है भाई!
tiger zinda hai salman khan

बन तो रही हैं लॉजिकल फ़िल्में. और कितनी लॉजिकल फ़िल्में चाहिए? फिर कहेंगे कि वेरायटी नहीं है. फ़िल्म है, बहू के हाथ का खाना नहीं कि आप ही के मन का बनता रहे. मेरी एक दोस्त थी, उसे फैंसी मामला पसंद था. ठेले-वेले का नहीं खाती थी. कहती थी बीमार पड़ जाएगी. एकदम इंग्लिस पिच्चर. साथ जाती थी मगर वो 10 रुपये वाले छोले-भटूरे खाती नहीं थी. उसका फ़ैसला था. वो किस चीज़ से वंचित है उस पगली को नहीं मालूम. बेचारी.

सलमान खान एक हीरो है. उसे ऐक्टर मत कहिये. वो अपने आप में एक घटना है. स्क्रीन पर लार्जर-दैन-लाइफ़ कैरेक्टर प्ले कर रहा है. आप उसका पैजामा खींचने पर लगे हुए हैं. आप पूछते हैं कि सलमान जब बूढ़ा हो जाएगा या रिटायर हो जाएगा या जब ख़तम हो जाएगा तो अपने खाते में कैसी फ़िल्में दिखाएगा. मैं कहता हूं कि वो बताएगा कि उसने एक फ़िल्म की जिसने पहले ही वीकेंड पर 100 करोड़ कमा लिए. आप बात काटने के लिए लॉजिक वाला तर्क ले आयेंगे. वो चाहेगा तो जॉली एलएलबी जैसा एक डायलॉग चिपका देगा, "लॉजिक गया गधी के पिछवाड़े में." और आप 100 करोड़ में कितने ज़ीरो होते हैं, इस सवाल में ही उलझे रहेंगे.

वो भटूरे वाला कितने ही सालों से गंदगी के बीच खड़ा भटूरे बना रहा है, लोग उसके पास जा रहे हैं. लगातार. बार-बार. वो क्यूं अपने अच्छे-भले कारोबार का नास पढ़े? बिना सफ़ाई रखे जब उस आदमी को दिन में 3 लड़के सिर्फ मैदा सानने के लिए ही रखने पड़ रहे हैं तो उसे किसने काटा है जो वो काउंटर सजाए और एसी लगाकर अपने रुपयों की ऐसी की तैसी करे?

सलमान के साथ भी वही है. वो जो कुछ भी कर रहा है, लोग उसे देखने पहुंच रहे हैं. उसका काम है रुपया कमाना. उसका काम हो रहा है. इस वक़्त इंडस्ट्री में उससे ज़्यादा आसानी से कोई भी पैसा नहीं कमा रहा है. उसका मकसद हल हो रहा है. वो अपना घर चला रहा है. आपको चाहिए कि वो आपके अनुसार काम करे. क्यूं? आप क्या हैं? क्या आपने उसे वोट देकर वहां भेजा था? क्या उसने ऐसा कोई घोषणापत्र जारी किया था जहां उसने आपके अनुसार अच्छी फ़िल्में करने का वादा किया था? क्या सलमान ने किसी बड़े मैदान में हज़ारों की भीड़ के सामने अच्छी (आपके स्टैण्डर्डानुसार) फ़िल्में करने का शपथ ग्रहण समारोह किया था? नहीं न. फिर?

हर उस ऐक्टर की तरह जो आपके हिसाब से बहुत अच्छी फ़िल्में कर रहा है, सलमान खान भी जो कर रहा है, अपने लिए कर रहा है. दुनिया में कोई भी ऐक्टर इसलिए ऐक्टिंग नहीं करता कि उसे अपनी फ़िल्मों और नाटकों से दुनिया बदलनी होती है. वो बस इसलिए बार-बार, हर रोज़, हर घंटे कैमरे के सामने, लोगों के सामने इसलिए आता है ताकि खुद को तृप्त कर सके. इस तृप्त हो जाने के क्रम में उसे बदले में मेहनताना भी चाहिए होता है. सलमान इस गारंटी के साथ एक फ़िल्म साइन करता है कि फ़िल्म हिट होगी इसलिए उसका मेहनताना कई छोटी फ़िल्मों की बजट से भी ज़्यादा होता है. उन फ़िल्मों के बजट से भी ज़्यादा जिनमें समाज में बदलाव लाने की ताकत होती है. इस सच्चाई को जितनी जल्दी हो सके, जज़्ब कर लिया जाना चाहिए. शान्ति कायम होगी.
सलमान की कुछ पुरानी तस्वीरें
सलमान की कुछ पुरानी तस्वीरें

सलमान के घर के बाहर भीड़ जुटी थी. उसके फैन्स पागल हो रहे थे. सैकड़ों क्या, हज़ारों का हुजूम. पुलिस को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. ट्रैफिक की ऐसी-तैसी हुई पड़ी थी. अंत में खुद सलमान की ही मदद ली गई. सलमान अपनी बालकनी में आया, फैन्स को सलाम ठोंका. हाथ हिलाया. मुस्कुराया. फिर हाथ जोड़कर चले जाने को कहा. उसके साथ उसका परिवार भी बालकनी में साथ ही खड़ा था. जाने के लिए विनती कर के वो अन्दर चला गया. भीड़ तब भी नहीं गई. अंदर सलमान के पास फिर से फ़ोन आया. वो बाहर निकला - गुस्से में. वहीं से खड़े-खड़े गुस्सा होने का इज़हार किया. बड़ी-बड़ी आंखें बाहर निकाल दीं. और फिर अंदर चला गया. अगले 10 मिनट में भीड़ छंट चुकी थी.

बजरंगी भाईजान की शूटिंग. राजस्थान. सलमान खान दिन का शूट ख़तम कर के वापस जा रहे थे. सफ़ेद गाड़ी में बैठे सलमान के पीछे उनके फैन्स बाइक दौड़ा रहे थे. एक-आध बार बाइक्स उनकी गाड़ी में लड़ते-लड़ते बचीं. सलमान ने अचानक गाड़ी रुकवाई और बाहर निकल गए. तमतमाए हुए. गुस्से में बाइक्स की ओर बढ़ गए. वो सभी दूर हो गए. उन्हें समझ में आ गया था कि जो हो रहा था, भाई को अच्छा नहीं लग रहा था. अब उनकी गाड़ी से सट कर कोई भी चलता हुआ नहीं दिख रहा था.कौन सा बड़ा ऐक्टर आज के टाइम में ऐसा करने का बूता रखता है और कौन अपने फैन्स पर ऐसा कंट्रोल रखता है? जवाब दिया जाए.

कहा जाता है कि इस बात का ख्याल रखा जाए कि फिल्म में तर्क की अकाल मौत न हो. एक फ़िल्म देखी थी मशेती (Machete). साल 2010 की अंग्रेजी फ़िल्म है. फ़िल्म और फ़िल्म का नायक डैनी त्रेहो अपने आप में कल्ट हैं. इस फ़िल्म को देखिएगा और लॉजिक ढूंढने निकल पड़ियेगा. और हां, इस फ़िल्म में टैक्सी ड्राइवर, रेजिंग बुल, वन्स अपॉन अ टाइम इन अमेरिका, दि अनटचेबल्स, गुडफ़ेलाज़ जैसी फ़िल्मों में काम करने वाले, 2 बार ऑस्कर जीतने वाले और कुल 7 बार नॉमिनेट हुए रॉबर्ट-डि-नीरो भी काम कर रहे थे. आप डिनीरो को भी ये सलाह देंगे कि वो 'कूड़े' में काम करना बंद कर दे?
machete poster

इसके अलावा एक और कमाल का ऐक्टर. फ़िलिप सायमोर हॉफ़मैन. फ़िल्म कपोटे में एक होमोसेक्शुअल लेखक ट्रूमैन कपोटे का किरदार निभाते हुए ऑस्कर जीतने वाले हॉफ़मैन मिशन इम्पॉसिबल में एक मिनट भर का रोल करते हुए नज़र आते हैं. मिशन इम्पॉसिबल यानी वो फ़्रेन्चाइज़ी जिसमें टॉम क्रूज़ को मुंबई के भयानक ट्रैफ़िक में तीन मिनट में कितने ही किलोमीटर गाड़ी भगाते हुए दिखाया गया है. ये एक ऐसा नामामूली और गैर लॉजिकल स्टंट है जिसे सलमान भाई ने भी ट्राई नहीं किया है. वैसे, गाड़ियों से स्टंट भाई करते भी नहीं हैं क्यूंकि गाड़ी उनका ड्राइवर चला रहा होता है. और ये पूरी तरह से उनका निजी मसला है जिसे इस बहस में उनकी फ़िल्मों के साथ रखना बेमानी होगा.
फ़िलिप सायमोर हॉफ़मैन
फ़िलिप सायमोर हॉफ़मैन

क्या है कि पैसा चाहिए होता है. इस बात से तो आप इन्कार ही नहीं कर सकते. 'इतने पैसों का क्या करेगा वो?' कहकर आप अपनी नासमझी का परिचय देंगे. फ़िल्म से जुड़े किसी भी आदमी को पैसा मिलेगा तभी जब उसे देखने लोग आयेंगे. फ़िल्म देखने लोग आएंगे, इस बात की गारंटी उसी वक़्त हो जाती है जब सलमान खान उसमें होता है. लोगों को स्क्रीन पर सलमान की क्या खूबियां पसंद आती हैं, ये सलमान और फ़िल्म बनाने वाले जानते हैं. तो क्यूं सलमान एक 'मीनिंगफुल' फ़िल्म बनाये? उसकी फ़िल्म का हमेशा एक ही मीनिंग होता है - भाई कुछ भी कर सकते हैं. यही लॉजिक है, यही स्क्रिप्ट है. कहना मुक्काबाज़ के संजय कुमार का कि 'एक्सपीरियंस शेयर कर रहे हैं. लेना है तो लीजिये वरना सरकिये. हमको बोलने का मौका दीजिये ए बाबू!' वो एक बात और कहता है. कहता क्या, तमाचा सा रसीद करता है, 'अपने टैलेंट का प्रमाणपत्र लेके सोसायटी में झंडा गाड़ने निकले हो? दांत चियार के टें बोल जाओगे. पहले सही व्यक्तित्व के समक्ष दांत निपोरना सीखो.' सलमान खान को उसके टैलेंट का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. वो इन सबसे ऊपर है. वो दांत निपोर रहा है. उन दांतों की चमक की रोशनी में छोटे बजट की फ़िल्मों की शूटिंग चल रही होती है. और ये एक ऐसा लॉजिक है जो आपको किसी भी हालत में समझना ही होगा.



बड़ी फ़िल्में अर्थात कमाई करने वाली फ़िल्में फ़िल्मी ईकोसिस्टम को चलायमान रखती हैं. ये ढेर कमाती हैं तो प्रोड्यूसर छोटी फ़िल्मों में इनसे हुए मुनाफे का एक हिस्सा लगाने को तैयार हो जाता है. वरना अपनी जेब से तो एक रुपिया न लगे. आपकी रीजनल सिनेमा की फ़िल्मों के पीछे की गई मेहनत अंगूर से किशमिश बन जाएगी लेकिन उसे स्क्रीन तक नहीं मिलेगी. उसके लिए सारा खाद-पानी और सारा ईंधन इन्हीं फ़िल्मों से आता है, जिन्हें आप सिनेमा के मर्डर के लिए दोषी क़रार दे चुके हैं.


सच्चाई यही है कि बड़े स्टार के नाम पर ही भीड़ बुलाई जा सकती है और भीड़ बाकायदे पैसा खर्च भी कर सकती है. उसे वो बड़ा हीरो पर्दे पर बड़े काम करते हुए देखना होता है. वरना यही भीड़ ट्यूबलाइट को भी 10 वाट का बल्ब बना कर छोड़ देती है. 1991 में अपनी मौत से ठीक दस दिन पहले 'क्वीन' के लीड वोकलिस्ट और महान 'म्यूज़िकल प्रॉस्टिट्यूट' फ्रेडी मरक्युरी ने अपने मैनेजर से कहा था, "मेरी इमेज के साथ तुम्हें जो मर्जी आए करो. मेरे संगीत को रीमिक्स करो, री-रिलीज़ करो, जो करना है करो. बस मुझे बोरिंग मत बनाना." सलमान खान बोरिंग नहीं है. और इसीलिए इस कदर जीवित है. जब वो स्क्रीन पर आता है तो आपकी बाज़ुएं फड़कने लगती हैं. आप न चाहकर भी चीख पड़ते हैं. ऐसा करवा पाना कोई मामूली काम नहीं है. ये पेटीएम का दौर है वरना आज भी उसके शर्ट उतारने पर स्क्रीन पर खुल्ले पैसे फेंके जाते.

आप जिसे पल्ले से कूड़ा बांधना कह रहे हैं, असल में वो शाही टुकड़ा है, वो शाही टुकड़ा जो महापौष्टिक खाने के बाद अंत में आता है. कैलोरी से लबालब लेकिन जिसके बिना डिनर किसी काम का नहीं रहता. आप उस आदमी के पीछे पड़े हैं जिसने समूचे देश की हेयरस्टाइल बदल के रख दी थी. क्यूं पड़े हो चक्कर में? कोई नहीं है टक्कर में.



 ये भी पढ़ें:

टाइगर ज़िंदा था, टाइगर ज़िंदा है, टाइगर ज़िंदा रहेगा
 

thumbnail

Advertisement

Advertisement