The Lallantop
Advertisement

यूरोपियन यूनियन का बलतोड़: पढ़िए Brexit की पूरी कहानी

Brexit यानी ब्रिटेन का एग्जिट. वो ब्रिटेन जो एक जमाने में दुनिया के हर देश में घुस गया था.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
लल्लनटॉप
22 जून 2016 (Updated: 22 जून 2016, 12:39 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

ब्रेक्जिट यानी ब्रिटेन का एग्जिट. वो ब्रिटेन जो एक जमाने में दुनिया के हर देश में घुस गया था. ऐसा कि आज भी अपने देश में तंज कसने के लिए लोग कहते हैं, अंगरेज हो का बे? वो ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन से बाहर होने के लिए 23 जून को रेफरेंडम कराएगा. मतलब ओपन में जनता वोट करके बताएगी कि यूरोपियन यूनियन में रहना है कि नहीं.

पिछले 400-500 सालों से ब्रिटेन की राजनीति उनकी अपनी ही रही है. अपना काम वो स्टाइल में करते रहे हैं. सबको सिखाते भी रहे हैं. हमने तो उनकी संसदीय व्यवस्था अपने यहां लागू कर ली.
पर पिछले एक-दो सालों में ब्रिटेन की राजनीति भी चारों ओर चर्चा का विषय बनी हुयी है. एक रेफरेंडम में स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग होते होते बचा था. अभी ब्रिटेन के एग्जिट को लेकर काफी गहमा-गहमी है. अमेरिका और ईरान की तरह इंडिया वाले भी पूरी दुनिया को अपनी ही नज़र से देखते हैं. हमारी नज़र में यूरोपियन यूनियन एक जॉइंट फॅमिली है. बड़ा भाई घर छोड़ के जा रहा है. इस आधार पर हम लोग तो ब्रिटेन को जलील कर देंगे. वहां भी सभी लोग इसके पक्ष में नहीं है.
ब्रिटेन में इसके दो ग्रुप हैं: 'लीवर्स' यानी छोड़ने के पक्ष में. 'रिमेनर्स' यानी जो यूरोपियन यूनियन में ही रहना चाहते हैं. इसीलिए वोटिंग हो रही है.

यूरोपियन यूनियन क्या है और कैसे बना?

यूरोपियन यूनियन एक कस्टम्स यूनियन है. मतलब यूनियन के एरिया से बाहर के देशों से व्यापार के लिए कानून एक होगा.

दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद यूरोप के देशों की स्थिति बहुत खराब हो गई थी. उनके गुलाम देश भी आज़ाद होने लगे. पैसा हाथ में था नहीं. अमेरिका, रूस और कई देश बिजनेस बढ़ाने लगे थे. तो 1956 में छः यूरोपियन देशों फ्रांस, उस समय का पश्चिम जर्मनी, इटली, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्सेम्बर्ग के बीच Treaty of Rome साइन हुई थी.
इसके अंतर्गत European Economic Community  बनाई गई. इस कम्युनिटी का मतलब यूरोप के देशों के लिए 'कॉमन मार्केट' बनाना था. जिससे आपस में सामान खरीद-बेच में कोई दिक्कत नहीं हो. पेपरवर्क में भी और ले आने ले जाने में भी. अपने इंडिया में कैसे यूपी-बिहार से कर्नाटक तक सामान ले जाने में खटिया खड़ी हो जाती है. GST भी पारित नहीं हो पाया है. ये सब दिक्कतें वहां दूर की गईं.

कभी हां, कभी ना

उस समय ब्रिटेन यूरोपियन देशों को यूरोपियन यूनियन में एक साथ होते देखते रहा पर मेम्बर नहीं बना. पर पांच साल के अन्दर समझ आ गया कि जॉइन करने में ही फायदा है. कंजर्वेटिव पार्टी सत्ता में थी. प्रधानमंत्री हेरॉल्ड मैकमिलन ने टांका भिड़ाना शुरू कर दिया. पर विपक्षी लेबर पार्टी ने चरस बो दिया. हेरॉल्ड अभी प्रेमपूर्वक समझाते इससे पहले फ्रांस के प्रेसिडेंट चार्ल्स द गॉल ने ब्रिटेन के प्रस्ताव को वीटो कर दिया.
ch
चार्ल्स द गॉल

1973 में अगले कंजर्वेटिव पार्टी के पीएम एडवर्ड हीथ ने किसी तरह ब्रिटेन की यूरोपियन यूनियन में एंट्री करा दी. पर 1974 में लेबर पार्टी सत्ता में आ गई. लेबर पार्टी में दो गुट हो गए. एक रहना चाहता था, दूसरा छोड़ना चाहता था. इसके चलते ब्रिटेन के इतिहास में पहली बार एक मुद्दे पर रेफरेंडम कराया गया. 1975 में. रहने के फेवर में आया. 1980 में लेबर पार्टी के कुछ नेताओं ने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नाम से नई पार्टी बना ली और विरोध करते रहे.

 चीजें बदलीं

यूरोपियन इकनॉमिक कम्युनिटी भी बदली. पहले यूरोपियन कम्युनिटी और फिर यूरोपियन यूनियन बन गया. आज छः से बढ़ के कुल 28 मेम्बर हैं. रूस से अलग हुए यूक्रेन और इस्लामी देश टर्की भी इसके सदस्य बनना चाहते हैं.

यूनियन का अलग स्टाइल है 

यूरोपियन यूनियन में सारे मेंबर्स राज्यों की तरह हैं. यूनियन का एक पार्लियामेंट है. जिसमें हर मेम्बर देश से सदस्य हैं. इनका एग्जीक्यूटिव यानी सरकार टाइप का भी है: यूरोपियन कमीशन जिसमें प्रेसिडेंट और एक कैबिनेट भी है. इसके बनाये कानून सारे देशों पर लागू होते हैं.

 ब्रिटेन यूनियन का दामाद है 

ब्रिटेन और इसका सहोदर आयरलैंड दोनों ऐसे देश हैं जो यूरोपियन यूनियन में रहते हुए भी इससे अलग हैं. यूनियन में 1992 में एक Mastricht Treaty साइन हुई. इसमें यूनियन की एक करेंसी बनाने का प्रस्ताव किया गया/ बाद में 'यूरो' नाम से ये करेंसी आई. फिर एक 'Schengen Agreement' भी हुआ. इसमें व्यापार के लिए बॉर्डर पर पेपरवर्क ख़त्म कर दिया गया. ब्रिटेन और आयरलैंड दोनों ही बातों से जुदा हैं. इनके लिए दोनों शर्तें लागू नहीं होती.

लेबर और कंजर्वेटिव का झंझट

बाद में लेबर और कंजर्वेटिव के झंझट में मामला उल्टा हो गया. लेबर पार्टी वर्कर्स का एजेंडा लेकर चलती है. इनको महसूस हुआ कि यूरोपियन इकनॉमिक कम्युनिटी में रहने में ही भलाई है. इन्होंने अपना राग बदल दिया. पर कंजर्वेटिव वालों का दांव उल्टा पड़ गया. वो फ्री मार्किट तो चाहते थे पर राजनीतिक और कानूनी गठजोड़ नहीं. ब्रिटेन की आयरन-लेडी मार्गरेट थैचर कंजर्वेटिव पार्टी से पीएम थीं. उन्होंने खूब जोर लगाया. कि बहुत कानून न बन पायें. पर उनकी पार्टी में भी दो गुट बन गए थे.
Margaret_Thatcher_P2
मार्गरेट थैचर

इस गुटबाजी के चलते 1990 में थैचर हार गईं. यही नहीं इस गुटबाजी ने कंजर्वेटिव पार्टी को तीन चुनाव हरा दिए. जब कंजर्वेटिव पार्टी के डेविड कैमरून प्रधानमन्त्री बने अपने लोगों को हिदायत दिए कि बकबक न करिए. पर धीरे से ये भी कह दिया कि मामले को हम देखेंगे.

पेच कहां फंसा है?

1.कंजर्वेटिव पार्टी को मेन दिक्कत फ्री लेबर मूवमेंट से है. क्योंकि यूनियन सिंगल मार्किट है. किसी देश का इंसान किसी भी देश में काम कर सकता है.
2.बाद में जुड़े पूर्वी यूरोप के देशों से भी लोग आ-जा सकते हैं. ये देश थोड़े गरीब हैं. उनके आने से भी चिढ़ है.
3.फिर यूरोपियन यूनियन की एग्जीक्यूटिव यानी सरकार जनता के चुनाव से नहीं आती. देशों के नेता भेज देते हैं. ये लोकतंत्र के खिलाफ है. ये सदियों पुराना सिस्टम है.
4.इसके अलावा मेम्बर रहने के लिए हर साल पैसे देने पड़ते हैं. हालांकि सारे सदस्यों के कॉन्ट्रिब्यूशन को मिला के भी पूरे यूरोपियन यूनियन की GDP का 2.5% ही है ये पैसा.
5.इससे ज्यादा कपारखाऊ है लगभग 7000 नियम-कानून.
6.इसके अलावा अभी सीरिया, ईराक से माइग्रेशन बहुत हो रहा है. ग्रीस की शाहखर्ची में भी पैसे देने पड़ रहे हैं.

किसका क्या ओपिनियन है?

1.लेबर पार्टी का तो क्लियर है. 30-40 साल पहले से ही वो यूनियन में रहने के पक्ष में हैं. झगड़ा कंजर्वेटिव पार्टी के अन्दर ही है. डेविड कैमरून इस झगड़े से उबिया गए हैं. 2019 में वो राजनीति से संन्यास लेंगे. पर उनकी नेतागिरी पर ग्रहण लगा हुआ है. अभी तीन साल तो रहने दो यार.
david
डेविड कैमरून

2.'लीवर्स' का तर्क है कि बाहर हो जायेंगे तो अपने मन से किसी भी देश से सम्बन्ध बनायेंगे. यूनियन के कानून से मुक्त रहेंगे. जिसको मन करेगा उसको आने देंगे, नहीं मन किया बॉर्डर पर ही रोक देंगे. मेम्बरशिप फी भी नहीं देनी पड़ेगी.
3.'रिमेनर्स' कह रहे हैं कि इतने दिन से साथ रहने के बाद अचानक छोड़ देंगे तो बवाल कट जाएगा. दुनिया में बिजनेस ऐसे ही ढीला पड़ा है. हम फंस जायेंगे.
4.एक और पेच है. पर ढीला है. लेबर पार्टी के जेरेमी कार्बिन पहले यूनियन में रहने का विरोध करते थे. अब छोड़ने की बात पर झल्ला जाते हैं. सबको याद है कि पहले ये क्या कहते थे. इनको कोई सीरियसली नहीं ले रहा. इनका पेंच ढीला है.
5.इंडियन ओरिजिन के नेता भी हैं. ज्यादातर तो रहने के पक्ष में हैं. पर कंजर्वेटिव पार्टी की एमपी प्रीति पटेल छोड़ने के पक्ष में हैं.
the sun
प्रीति पटेल - the sun

ये पूरा मामला कंट्रोल अपने हाथ में लेने का है. हालांकि अलग हो जायेंगे तो तीन साल तो लगेगा नियम-कानून सुधरने में. हर देश में जाकर कहना पड़ेगा कि सर, पहले जो हम कहते थे वो हम नहीं कहते थे. वो वो कहते थे. अब हम जो कह रहे हैं वो हम कह रहे हैं. वो क्या कह रहे हैं हम नहीं मानते. इतना सब कोई जल्दी कैसे समझेगा?

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement