उग्र : जिसने समाज की नंगई दिखाई, बदले में 'अश्लील' का तमगा पाया
आज बड्डे है.
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बेचन शर्मा 'उग्र'

ये सुबोध मिसरा हैं. कई तरह के काम करते हैं. जर्नलिज़म भी पढ़े हैं. इंगलिश लिटरेचर भी. शरिया भी पढ़ते हैं, संस्कृत भी. मिजाज ऐसा कि हर चीज नोट करते हैं. हिंदी से विशेष लगाव है. अपने अनुभव लिख भेजे हैं हमें. पढ़िए:
"वह शख्स इस फन का पूरा उस्ताद है. त्याग और प्रेम के जाल में बालकों को फंसाता है. परन्तु सुन्दर बालकों को. जिसे रूप है, वही उसके क्लास का 'मॉनिटर' है. जिसे रूप है, वही गालों पर कोमल चांटे खाकर, Stand up on the bench के Order से बच सकता है. बेचारे बद-शक्लों की उसके राज्य में मौत ही समझिये." इन पंक्तियों जैसा हाल आपने कहीं और देखा है? दिल्ली में जिन्होंने मेट्रो के पहले से बसों में सफ़र किया है, वो आपको ऐसे कई 'लौंडेबाज़' आदमियों की कहानी बता सकते हैं. हमारे मोहल्ले का एकमात्र दर्ज़ी भी ऐसा ही था, पैंट का नाप लेते वक़्त जांघों और ज़िप के आस-पास खूब हाथ फिराता था. लड़के डर से भाग आते थे. ये सब बातें तो अभी की हैं, ताज़ा समय - इक्कीसवीं सदी की. और जानते हैं ऊपर लिखी पंक्तियां किस समय की हैं? अंदाज़ा लगाइए...

बेचन शर्मा 'उग्र'
हिन्दी साहित्य के प्रचार-प्रसार में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अमूल्य योगदान रहा है. ऐसा ही एक पत्र था 'मतवाला'. 'मतवाला' वही संस्थान है, जिसने हिन्दी साहित्य के पटल पर 'निराला' को स्थापित किया था. 31 मई 1924 को 'मतवाला' में एक कहानी छपी 'चाकलेट'. कहानी का विषय था 'लड़कों के प्रति समाज में बढ़ता व्यभिचार'. समाज के शब्दों में कहा जाए तो 'लौंडेबाज़ी' और लेखक के शब्दों में 'चाकलेट-पंथी'. 'मतवाला' प्रकाशक को थोक के भाव चिट्ठियां मिलने लगीं. शिकायत की. जैसी कि आशा थी ही. मगर आश्चर्य ये रहा कि प्रशंसा भी खूब हुई. उधर इस साहित्यिक-विस्फोट के कर्ता लेखक को, जैसा कि हिन्दी का नियम रहा है, सलाहें मिलने लगीं - "लोग तुम्हें 'छिछोरा' 'लौंडा' 'चाकलेट' और जाने क्या-क्या कह कर तुम्हारी निन्दा किया करते हैं. अब भाई वैसी कहानियां न लिखना!"
उस समय के प्रख्यात पत्रकार बनारसी दास चतुर्वेदी ने तो 'चाकलेट' के विरोध में बाकायदा 'घासलेट' आंदोलन चलाया. मगर ये लेखक कहां मानने वाला था! 'चाकलेट-पंथी' के विषय पर ही चार और कहानियां लिख डाली. पालट, हम फिदाए लखनऊ, कमरिया नागिन सी बलखाय और चाकलेट-चर्चा. इन कहानियों को ही संकलित करके कहानी-संग्रह छपा 'चाकलेट'. इसकी भूमिका में लेखक ने ललकारते हुए लिखा, "है कोई ऐसा माई का लाल जो हमारे समाज को नीचे से ऊपर तक सजग दृष्टि से देखकर, कलेजे पर हाथ रखकर, सत्य के तेज से मस्तक तानकर, इस पुस्तक के अकिंचन लेखक से यह कहने का दावा करे कि तुमने जो कुछ लिखा है गलत लिखा है. समाज में ऐसी घृणित, रोमांचकारिणी और काजलकाली तस्वीरें नहीं हैं!"

यह लेखक थे 'उग्र'. श्रीयुत पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'. उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले में एक जगह है 'चुनार', जिसे तीर्थ का पुण्य नाश करने वाला माना जाता है. इसी चुनार के सद्दूपुर गांव में एक गरीब ब्राह्मण के घर पैदा हुए बेचन पांडे. जन्मतिथि पौष शुक्ल अष्टमी, विक्रमी संवत 1957. अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से 29 दिसम्बर सन 1900.
'बेचन' नाम की कथा भी अति रोचक है. पिछली कई संतानों की मृत्यु हो जाने से माता-पिता ने तय किया कि इस संतान को जीवित रखने के लिए बेचने का टोटका अपनाया जाए. अपनी आत्मकथा 'अपनी खबर' में 'उग्र' लिखते हैं, "मैं भी दिवंगत अग्रजों की राह न लगूं. इसलिए तय यह पाया कि पहले तो मेरी जन्म-कुंडली न बनाई जाए, साथ ही जन्मते ही मुझे बेच दिया जाए. सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला. और किस कीमत पर? महज़ टके पर एक. उसका भी गुड़ मंगाकर मेरी मां ने खा लिया था."
ढाई वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु हो गई, घर की ज़िम्मेदारी पड़ी 'उग्र' के बड़े भाई पर. बड़ा भाई जुए में दिलचस्पी लेने लगा. घर में जुए की फड़ पड़ने लगी. शिक्षारम्भ तो दूर की बात, चार-पांच वर्ष के बच्चे के कान में 'रंडी' और 'वेश्या' शब्द पड़ने लगे. घर पे छापा पड़ा, भाई गिरफ्तार हुआ. छूटकर आया तो कमाने के लिए अयोध्या की रामलीला-मण्डलियों में अदाकारी करने लगा. और साथ ही ले गया आठ वर्ष के 'उग्र' को. "जिसकी अपनी जोरू ज़िन्दगी-भर नहीं रही. वह ज़िन्दगी के शुरुआती सालों में ही राम की जोरू बन चुका था. यानी यह जो आज बड़े तीसमारखां बनते हैं पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' दरअसल जोरू हैं राम की."
रामलीला मण्डलियों में रहते 'उग्र' ने मण्डली चलाने वाले महंतों और कलाकारों के दुराचार देखे. उनके दोनों बड़े भाई भी साथ में ही मंडलियों में काम करते रहे इसलिए वे शिकार होने से बचते रहे. लेकिन वो पूरी तरह पाक-साफ बच गए हों ऐसा भी नहीं, ये 'उग्र' ने अपनी आत्मकथा में स्वयं कहा. वासना का जो तांडव वहां 'उग्र' ने देखा उसी ने उनको इस व्यभिचार पर लिखने को प्रेरित किया. चौदह वर्ष की उम्र में संतान न होने के कारण 'उग्र' के चाचा ने उन्हें गोद लिया. और शिक्षा-दीक्षा शुरू कराई. शिक्षा के लिए ही बनारस के 'हिन्दू स्कूल' पहुंचे और वहीं पर 'राष्ट्रीय आंदोलन' काल के साहित्यिक परिदृश्य से उनका परिचय हुआ. मगर आठवीं में फेल हुए, और भाई की मार के डर से वापिस गांव होते हुए कलकत्ता भाग लिए. लेकिन नियति से कोई कब भाग पाया है. नौ-दस महीनों में वापिस बनारस लौट आए असहयोग आंदोलन के दौर में. आंदोलन में जेल भी गए. इन्हीं दिनों कानपुर के एक सज्जन ने एक राष्ट्रगान प्रतियोगिता करवाई. इसी प्रतियोगिता में अपनी रचना भेजने के लिए पहली बार बेचन पाण्डेय से 'उग्र' बने. उग्र कहते हैं, "राष्ट्रभक्त लेखक ऐसे कर्कश उपनाम इसलिए चुना करते थे कि बलवान ब्रिटिश साम्राज्य के नृशंस शासक नाम से ही दहल जाएं."

'उग्र' ने जब अपना पहला उपन्यास 'चन्द हसीनों के खुतूत' लिखा तो उन्हें 'अश्लीलता' का तमगा देने वाला साहित्य-समाज, उन्हें एक कलात्मक रचनाकार के रूप में स्वीकार करने को बाध्य हो गया. हिन्दी उपन्यास में यह पत्रात्मक शैली बिलकुल नई थी. उनके उपन्यास 'शराबी' के कथानक में इतनी नवीनता और परतें हैं कि इसे सिनेमा-पटल पर उतारा जा सकता है. स्त्री-विषयक उनके उपन्यास 'कढ़ी में कोयला', 'जी जी जी' बहुत ही रोचक शैली में लिखे गए हैं. आन्दोलनों के दौर का काशी 'फागुन के दिन चार' में एकदम जीवन्त दिखाई पड़ता है तो मरणोपरांत छपा उनका उपन्यास 'सब्जबाग' दलित चेतना का भाष्य है.
'उग्र' की कहानियां अपने असर में बेहद प्रभावकारी हैं. 'मां कैसे मरी' कहानी में जलियांवाला बाग काण्ड का विवरण पाठकों को उस वीभत्सकारी घटना के बीच खड़ा कर देता है. 'उसकी मां' कहानी को आलोचकों ने मैक्सिम गोर्की की कहानी 'मां' के समकक्ष माना है. 'मो को चूनरी की साध', 'शहीद भोंदू भट्ट', 'ऐसी होली खेलो लाल' जैसी तमाम कहानियां इस विधा में उन्हें, उनके समकालीनों से अलग करती हैं. कहानी लेखन में उग्र की सिद्धहस्तता इस से पता लगती है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' लिखा तो 'आधुनिक काल' में 'छोटी कहानियों' पर लिखने में उन्होंने पृ.520 से 523 तक कुल 62 लाइनें लिखीं और इसमें से 11 लाइनें उन्होंने 'उग्र' पर खर्च कीं. शेष 51 लाइनों में बाकी सभी को निपटा दिया गया. यहां तक कि 'प्रेमचंद' और 'प्रसाद' पर भी 3 से 4 लाइनें ही लिखीं.
'उग्र' ने शब्द-सौंदर्य से चमत्कृत साहित्य नहीं लिखा. उन्होंने ऐसे नुकीले औजार गढ़े जिनसे समाज की गन्दगी ढंकने वाले सारे परदे चीर दिए. प्रसिद्ध हिन्दी सेवी बाबू शिवपूजन सहाय ने 'उग्र' के बारे में कहा था कि "भैया उग्रजी हिन्दी साहित्य के हाविट्ज़र तोप हैं. जिधर मुंह करते हैं बम्बार्ड करके छोड़ते हैं ". 'उग्र' के नाम कोई साहित्यिक सम्मान नहीं दर्ज. 'उग्र' को इनकी आवश्यकता भी नहीं. 'उग्र' को पढ़ने वाले में सामान्य-साहित्यिक-ज्ञान का होना आवश्यक नहीं. मैंने 'मन्टो' को पढ़ा, और सोचने लगा कि हिन्दी साहित्य में कोई भी नहीं जो 'मन्टो' की तरह सच्चाई को उघाड़ कर रख दे. लेकिन तभी मेरा परिचय 'उग्र' से हुआ. इतना खरा सच लोग फिक्शन के नाम पर नहीं लिख पाए जितना 'उग्र' ने अपनी आत्मकथा 'अपनी खबर' में लिखा. 'उग्र' ने प्रशंसा पाने की भी आशा नहीं की और न ही आलोचकों की परवाह. वे तो प्रचण्ड सत्य उघाड़ते रहे और कलम से समाजिक आडम्बरों पर भयंकर प्रहार करते रहे. उनकी कलम पर अंकुश जेल में भी नहीं रहा. बनारस की जेल से, 'मतवाला' प्रकाशक 'सेठ महादेव प्रसाद' को छपने के लिए भेजे एक कवित्त में 'उग्र' ने अपना मतवालापन दिखाते हुए लिखा.
"कालीदार वाले तुम काली दार वाले हम
तुम रूद्र हो तो हम 'उग्र' महाराज हैं."
*दार- स्त्री (मां काली) और दाल (जेल की काली दाल)
*रूद्र- भगवान शिव (जिन्हें काशी नरेश कहा जाता है)
अक्टूबर 1928 में 'चन्द हसीनों के खुतूत' की समीक्षा लिखते हुए नामी अंग्रेजी अखबार 'द लीडर' ने लिखा था- "It would hardly be an exaggeration to say that there is not a single dull page in the whole book." (ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इस पूरी किताब में एक भी नीरस पृष्ठ नहीं है.) 'उग्र' के लेखन का भी यही सार है. 23 मार्च 1967 को 'उग्र' की मृत्यु हुई. जोड़ा जाए तो 'उग्र' कुल 23575 दिन जिए. और इतने दिनों में उन्होंने एक भी पृष्ठ ऐसा नहीं लिखा जो कि निष्प्रभ हो. इस टिप्पणी के साथ यह लेख समाप्त करना पड़ रहा है कि जो 'उग्र' पुरस्कारों-सम्मानों में न समा पाए वे एक लेख मात्र में कहां सिमटने वाले हैं.