जब जेपी ने बिहार के पहले मुख्यमंत्री पर जातिवाद का आरोप लगा अखबार में लेटर छपवा दिया!
साल 1957 के विधानसभा चुनावों के बाद Jayprakash Narayan ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री Sri Krishna Sinha को चिट्ठी लिखकर उन पर जातिवाद के गंभीर आरोप लगाए. जवाब में सिन्हा ने सफाई देते हुए जेपी को ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया.

बिहार की राजनीति में जाति का सवाल बड़ा अहम है. क्षत्रप नेताओं पर जातिगत राजनीति करने का आरोप सामान्य बात मानी जाती है. जाति को अगर आप लालू यादव या नीतीश कुमार काल से जोड़कर देखते हैं, तो आपको जेपी और पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा के पत्रों पर गौर फरमाने की ज़रूरत है. साल 1957 के विधानसभा चुनावों के बाद बिहार की राजनीति के दो पुरोधा जयप्रकाश नारायण (Jayprakash Narayan) और श्रीकृष्ण सिन्हा (Sri Krishna Sinha) ने पत्र लिखकर एक दूसरे पर इशारों-इशारों में जातिवादी होने का आरोप लगाया था.
बात 1957 की है…बिहार में विधानसभा चुनाव हो चुके थे. चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली. अब विधायक दल का नेता चुनने की बारी थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा और उप मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिन्हा आमने-सामने थे. बाजी सिन्हा के हाथ लगी. और अनुग्रह नारायण सिंह को फिर से उपमुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा. इसके कुछ दिनों बाद अनुग्रह नारायण सिंह की मृत्यु हो गई.
1957 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार तो बन गई थी. लेकिन श्रीकृष्ण सिन्हा के राइट हैंड और लेफ्ट हैंड माने जाने वाले कृष्ण वल्लभ सहाय और महेश प्रसाद सिन्हा को हार का सामना करना पड़ा था. दोनों श्रीकृष्ण सिन्हा की कैबिनेट में मिनिस्टर रहे थे. चुनाव में हार के बाद श्रीकृष्ण सिन्हा ने महेश प्रसाद सिन्हा को खादी बोर्ड का चेयरमैन बना दिया. लेकिन केबी सहाय को कुछ भी नहीं बनाया. केबी सहाय कायस्थ थे. और महेश प्रसाद सिन्हा भूमिहार.
जयप्रकाश नारायण ने सर्चलाइट अखबार में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिन्हा के नाम एक चिट्ठी लिखी, इसमें जेपी ने लिखा, 'यू हैव टर्नड बिहार इन टू भूमिहार राज.' जवाब में श्रीबाबू ने उन्हें लिखा- ‘यू आर गाइडेड बाई कदमकुआं ब्रेन ट्रस्ट.’ कदमकुंआ ब्रेन ट्रस्ट टर्म कायस्थ नेताओं के गुट के लिए इस्तेमाल किया जाता था.
जय प्रकाश नारायण ने श्रीकृष्ण सिन्हा को लिखी अपनी चिट्ठी में उनसे पूछा,
महेश बाबू और कृष्ण वल्लभ बाबू आपके सबसे प्रिय समर्थक थे. कृष्ण वल्लभ बाबू अब आपके समर्थक नहीं रहे. दोनों ही चुनाव हार गए. महेश बाबू आपके समर्थक हैं. वे खादी बोर्ड के चेयरमैन बनाए गए. उनको बंगला, चपरासी, टेलीफोन और दूसरी सुविधाएं दी गईं. आगे चल कर उनको बिहार प्रांतीय कांग्रेस का कोषाध्यक्ष भी बनाया गया. वहीं बिहार और कांग्रेस में तमाम सेवाओं के बावजूद कृष्ण वल्लभ बाबू आज कहीं नहीं हैं.
उस दौर में श्रीबाबू के नाम से जाने जाने वाले श्रीकृष्ण सिन्हा ने इसका जवाब देते हुए लिखा,
कृष्ण वल्लभ सहाय ने 1937 के चुनाव में मेरा विरोध किया था. लेकिन फिर भी मैंने उनको अपना संसदीय सचिव बनाया. मैं उनको कैबिनेट में शामिल करना चाहता था. लेकिन उस समय कैबिनेट में केवल चार बर्थ थे. इसलिए चाहकर भी उनको शामिल नहीं कर सका. लेकिन बतौर संसदीय सचिव मैंने उन पर इस हद तक भरोसा जताया कि राज्य में कहा जाने लगा कि कृष्ण वल्लभ सहाय डिफैक्टो प्रधानमंत्री हैं.
महेश बाबू का पक्ष लेने के आरोप का जवाब देते हुए सिन्हा ने चिट्ठी में लिखा कि उन्होंने पिछले बीस सालों तक कृष्ण वल्लभ सहाय को जो सरकार में जो स्थान दिया है, महेश प्रसाद उसके बारे में सोच भी नहीं सकते हैं. उन्होंने कहा कि महेश प्रसाद 1937 में पहली बार विधानसभा के सदस्य बनें. लेकिन उनको 1952 में पहली बार मंत्री बनने का मौका मिला.
इतना ही नहीं जेपी ने सिन्हा को लिखा कि उनकी सरकार में बिहार में भूमिहार राज स्थापित हुआ और बिहार को जातिवाद ने जकड़ लिया है. उन्होंने लिखा
बिहार को जानने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात से इंकार करेगा कि आप में या अनुग्रह बाबू में जातिवादी सोच हैं. बावजूद आपकी सरकार को भूमिहार राज और अनुग्रह बाबू को राजपूतों के नेता के तौर पर देखा जाता है. विषैली अमरलता की तरह जातिवाद ने पूरे बिहार को जकड़ लिया है. केवल आप ही इसे उखाड़ कर फेंक सकते हैं. इस देश में राजनीतिक उत्तराधिकारी चुनने की परंपरा शुरू हो चुकी है. मेरा पक्का मानना है कि यदि आप जातिवाद की जड़ काटना चाहते हैं तो आपको निर्णय लेना होगा कि आपके बाद आपकी जाति का कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सके.
इसके जवाब में श्रीकृष्ण सिन्हा ने लिखा,
आपने जो लिखा है उससे पता चलता है कि राज्य की स्थिति का आकलन करते हुए आप भी शक-संदेह से भरे वातावरण से मुक्त नहीं हो सके. आपने बाजारू काना-फूसी को तरजीह दी. सुविधानुसार कुछ बातों पर विश्वास किया. और कुछ पर अविश्वास. हो सकता है कि आपने ऐसा अचेतन मन से किया है. मेरे बाद कौन मुख्यमंत्री पद को ग्रहण करेगा. यह निर्णय करने का अधिकार केवल उन लोगों को है, जो इससे संबंधित हैं. मैं आपको यह आश्वासन दिलाता हूं कि मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि महेश को मुख्यमंत्री बनाया जाए.
उन्होंने इस आरोप का भी खंडन किया कि वह प्रदेश में भूमिहार राज को कायम रखना चाहते थे. उन्होंने कहा कि भूमिहारों को कोई भी विशेष समर्थन नहीं दिया गया है और न ही उनके पक्ष में कोई फैसला किया गया है. उन्होंने कांग्रेस द्वारा कराए गए एक जांच कमीशन का भी उल्लेख किया, जिसने जांच के बाद इन सभी आरोपों को निराधार पाया था.
सिन्हा ने आखिर में जेपी का नाम लिए बिना कहा कि आजकल यह प्रचलन बन चुका है कि जो व्यक्ति जातिवाद से जितना अधिक ग्रस्त होता है, उतना ही अधिक वह दूसरों की निंदा करता है. भूमिहार राज का नाम भी इन्हीं लोगों के द्वारा दिया गया है जो पूरी तरह से जातिवाद में डूबे हुए हैं.
लेटर वॉर के पीछे की कहानीअब जेपी और 'श्रीबाबू' के बीच की लड़ाई के दो अहम कैरेक्टर्स की गुत्थी सुलझाने की कोशिश करते हैं. लेटर वॉर के पीछे की पृष्ठभूमि से पर्दा तभी हटेगा. महेश प्रसाद सिन्हा श्रीकृष्ण सिन्हा की जाति के थे. और उनके करीबी भी थे. आज़ादी की लड़ाई के दौरान सिन्हा जब जेल में थे तो करीबी रिश्तेदारों ने उनके परिवार को बेसहारा छोड़ दिया था. इस दौरान महेश ही थे जो उनके साथ खड़े रहे. बात सिर्फ साथ देने या मदद करने की नहीं थी, श्रीकृष्ण जब जेल में थे, महेश ने कुछ समय के लिए उनके परिवार को अपने घर पर भी रखा.
अब यह कहना ज्यादती बिल्कुल नहीं होगा कि श्रीकृष्ण सिन्हा के मन में महेश प्रसाद के लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर जरूर रहा होगा. हालांकि, यह भी गौर किया जाना चाहिए कि महेश प्रसाद सिन्हा की कैबिनेट में एंट्री अनुग्रह नारायण सिंह की सिफारिश पर साल 1952 में हुई थी, जबकि वो साल 1937 से ही बिहार विधानसभा के सदस्य थे.
अब आते हैं कृष्ण वल्लभ सहाय की ओर. सहाय 1963 में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने थे. उन्होंने साल 1937 में प्रधानमंत्री के प्रांतीय चुनाव में श्रीकृष्ण सिन्हा की मुखालफत की थी. वह कायस्थ राजपूत गुट के साथ थे, जो अनुग्रह नारायण सिंह के पक्ष में था. लेकिन सिन्हा अपने स्वजातीय नेताओं, गणेश दत्त और स्वामी सहजानंद सरस्वती के समर्थन से प्रधानमंत्री चुने गए.
इस सरकार में कांग्रेस की ओर से दो संसदीय सचिव चुने गए. केबी सहाय को भी श्रीबाबू का सचिव बनाया गया. उनको कायस्थ राजपूत गुट के द्वारा मनोनीत किया गया था, जिसका नेतृ्त्व राजेंद्र प्रसाद और अनुग्रह नारायण सिंह कर रहे थे. लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान वो सिन्हा के बेहद करीब आ गए. जेपी को लिखी चिट्टी में सिन्हा इसका जिक्र भी करते हैं कि वो केबी सहाय को मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन कैबिनेट में चार ही बर्थ थे. इसलिए वो चाहकर भी उनको मंत्री नहीं बना सके.
श्रीकृष्ण सिन्हा भले ही केबी सहाय को मंत्री नहीं बना सके थे, लेकिन उनकी निष्ठा जरूर जीत ली थी. अब राजनीतिक हलकों में केबी सहाय को ‘कृष्ण’ का ‘कृष्ण वल्लभ’ कहा जाने लगा.
जेपी को लिखी चिट्ठी में सिन्हा जिक्र करते हैं कि साल 1946 में गठित हो रहे कैबिनेट में उन्होंने कृष्ण वल्लभ सहाय को शामिल करने की कोशिश की. लेकिन एक बार फिर वो असफल रहे. लेकिन बाद में हुए कैबिनेट विस्तार में उन्होंने अपनी बात मनवा ली, और केबी सहाय मंत्री बने.
जेपी को लिखी अपनी चिट्ठी में सिन्हा एक और घटना का जिक्र करते हैं, जिससे दोनों की घनिष्ठता का पता चलता है. उन्होेंने लिखा
महेश प्रसाद सिन्हा की एंट्री के बाद आई दूरीकेबी सहाय को कैबिनेट में शामिल करने के कुछ दिनों बाद महात्मा गांधी ने सलाह दी थी कि कृष्ण वल्लभ बाबू को अपनी कैबिनेट से ड्रॉप कर दूं. मैंने उन्हें जवाब दिया- मैं आपका आदेश मानने को तैयार हूं. लेकिन उनके साथ मुझे भी बाहर जाना पड़ेगा. इसके बाद केबी सहाय का निष्कासन रुक गया.
महेश प्रसाद सिन्हा शुरुआत से ही बिहार की राजनीति में श्रीकृष्ण सिन्हा के समर्थक माने जाते थे. हालांकि, सिन्हा की कैबिनेट में उनकी जगह साल 1952 में बनी. राजनीतिक इतिहासकार राघव शरण शर्मा बताते हैं कि अनुग्रह नारायण सिंह ने महेश प्रसाद की सिफारिश की थी. जिसके बाद उनको कैबिनेट में शामिल किया गया.
महेश प्रसाद का श्रीकृष्ण सिन्हा कैबिनेट में शामिल होना, कृष्ण वल्लभ सहाय के लिए सबसे बड़ा झटका था. केबी सहाय खुद को सिन्हा के उत्तराधिकारी के तौर पर देख रहे थे. लेकिन महेश प्रसाद के आने से उनको अपनी कुर्सी असुरक्षित दिखने लगी.
लेकिन कुछ समय बाद केबी सहाय का झुकाव अनुग्रह नारायण सिंह की ओर होने लगा. उनके लोगों ने सिन्हा और अनुग्रह नारायण सिंह के बीच भेद डालना शुरू किया. इस फूट की बागडोर अनुग्रह बाबू के बेटे सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने संभाली. इसका असर दिखा साल 1957 के चुनाव के बाद विधायक दल के नेता के चुनाव में.

साल 1952 में महेश बाबू के कैबिनेट में शामिल होने के बाद से उनकी सक्रियता ने सिन्हा के गुट में फूट पड़नी शुरू हो गई. गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पांडे अपनी किताब ‘बिहार में जातिवाद’ में बताते हैं कि महेश प्रसाद के भूमिहार समर्थकों की उग्रता ने तत्कालीन मुख्यमंत्री सिन्हा के गुट में विभाजन पैदा कर दिया. इसके बाद महेश प्रसाद और केबी सहाय के बीच की शत्रुता भी साफ-साफ दिखाई पड़ने लगी.
महेश बाबू के ट्रांसपोर्ट विभाग में अनेक तरह के भ्रष्टाचार की भी खबरें आने लगी थीं. इस बीच साल 1955 के अगस्त के दूसरे सप्ताह में पटना और नवादा में पुलिस की गोली से दो छात्रों की मौत हो गई और कई लोग घायल हुए.
पटना में कॉलेज के छात्रों और बस के कंडक्टर और ड्राइवर के बीच विवाद हुआ. दरअसल बस का किराया बढ़ाया गया था. लेकिन छात्रों ने पुराने किराए से अधिक रुपये देने से इनकार कर दिया. इसके चलते तनाव बढ़ गया. बस सेवा से जुड़े कुछ लोगों ने छात्रों की पिटाई कर दी. इसके चलते छात्र आक्रोशित हो गए. स्थिति तनावपूर्ण हो गई. हालात नियंत्रित करने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी. इस गोलीबारी में एक युवा भूमिहार छात्र दीनानाथ पांडे की मौत हो गई.
इस समय महेश प्रसाद सिन्हा ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर थे. उनके खिलाफ माहौल बनने लगा. दबाव में आकर उन्होंने मामले की न्यायिक जांच का आदेश दिया. एसके दास कमीशन ने अपनी जांच रिपोर्ट में बताया कि छात्रों पर गोली चलाने का निर्णय अन्यायपूर्ण था. सरकार ने पांडे के परिवार और घायलों के परिवार को आर्थिक सहायती दी. लेकिन छात्रों का विश्वास जीतने में असफल रही.
1957 के चुनावों में केबी सहाय पटना से और महेश प्रसाद सिन्हा पटना से चुनाव लड़ रहे थे. ये दोनों ही चुनाव हार गए. दोनों को महामाया प्रसाद सिन्हा ने हराया. इस चुनाव में महेश बाबू और केबी सहाय दोनों ने एक दूसरे को हराने की भरपूर कोशिश की. ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की पटास्कर कमीशन ने इस बात को प्रमाणित भी किया.
पटना में कायस्थों का वोट विभाजित हो गया क्योंकि महामाया भी कायस्थ थे. वहीं मुजफ्फरपुर में दीनानाथ पांडे की युवा विधवा शांति ने अपने नवजात शिशु को लोगों के पास ले जाकर उसे न्याय देने की मांग की. इसके चलते सिन्हा को भूमिहारों के वोट भी नहीं मिले.
इस चुनाव में हार के बाद महेश प्रसाद को खादी बोर्ड का चेयरमैन बना दिया गया. जबकि नितांत अकेले पड़े केबी सहाय को कोई भी जिम्मेदारी नहीं मिली. इसके बाद ही जयप्रकाश नारायण ने श्रीकृष्ण सिन्हा को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कायस्थ होने के चलते केबी सहाय को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया था. CPI (M) के सीनियर नेता गणेश शंकर विद्यार्थी ने साल 2019 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में बताया था,
कायस्थों के वर्चस्व को भूमिहार और राजपूतों ने दी चुनौतीजेपी के आरोपों में कोई दम नहीं था. सच ये है कि उन्होंने अपने स्वजातीय केबी सहाय के लिए ऐसा आरोप लगाया था. उन्होंने आगे बताया कि उस वक्त कदमकुंआ में कायस्थों की एक मीटिंग हुई थी. उस मीटिंग के बाद जेपी ने श्रीबाबू पर बेबुनियाद आरोप लगाए थे. उनका आरोप ही जातिवादी था.
जेपी और श्रीकृष्ण सिन्हा के बीच के टकराव को बिहार की तत्कालीन राजनीति में ऊंची जातियों के वर्चस्व की लड़ाई के आईने में समझना होगा. 20वीं सदी की शुरुआती दो दशकों में कांग्रेस पर सवर्णों का वर्चस्व रहा. इसमें कायस्थ सबसे ऊपर थे. उस समय बिहार कांग्रेस का नेतृत्व करने वालों में ब्रज किशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, रामनौमी प्रसाद और गोरख प्रसाद जैसे नेता थे. इनमें से अधिकतर वकील और जमींदार थे. साल 1934 में कांग्रेस प्रदेश कार्यकारिणी में इनकी संख्या 54 फीसदी थी.
लेकिन 1952 आते-आते ये हिस्सेदारी लगभग 5 फीसदी रह गया. इनको भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूतों से चुनौती मिलने लगी. इसके बाद अपना अस्तित्व बचाने के लिए कायस्थों को राजपूतों के साथ तालमेल करना पड़ा. जिसके चलते बिहार की राजनीति में दो गुटों का अस्तित्व कायम हुआ. एक ओर भूमिहार थे, तो दूसरी ओर राजपूत और कायस्थ. एक गुट था श्रीकृष्ण सिन्हा का, और दूसरा अनुग्रह नारायण सिंह का. दूसरे छोटे छोटे खेमों का इन दोनों पावर सेंटर के बीच आना-जाना चलता रहा.
केबी सहाय 1937 में सिन्हा के संसदीय सचिव बनने से पहले राजपूत-कायस्थ गुट में थे. लेकिन संसदीय सचिव बनने के बाद वो राजपूत-कायस्थ गुट से भूमिहार गुट में आ गए. इसके बाद से जेपी का रुख उनके प्रति कठोर हो गया. आजादी के बाद श्रीकृष्ण सिन्हा की पहली सरकार में मंत्री बनने के बाद उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर निशाना भी साधा था. लेकिन फिर 1950 के दशक के आखिरी हिस्से में सिन्हा का साथ छोड़ने के बाद फिर से जेपी के नजदीकी हो गए. और उनके लिए जेपी ने श्रीकृष्ण सिन्हा के खिलाफ स्टैंड लिया.
पहली सरकार बनने के बाद से ही पड़े जातिवाद के बीजइस पूरे प्रसंग को हम ‘बिहार में जातिवाद, स्वतंत्रता पूर्व’ किताब के इस नोट पर समाप्त करेंगे कि 1937 में बिहार में पहली सरकार बनने के बाद से ही जाति बिहार की राजनीति में गुटों के गठन का आधार, समर्थन की गोलबंदी का आधार और सत्ता के लाभों और हितों के संरक्षण का आधार बन गई. आजादी की लड़ाई के बाद से ही बिहार की राजनीति में वैसे लोगों का वर्चस्व कायम हो गया, जो जातिवाद की बीमारी से गहराई तक ग्रसित थे.
जयप्रकाश नारायण और श्रीकृष्ण सिन्हा जैसे राष्ट्रीय ख्याति के नेताओं पर भी राज्य की जातिवादी राजनीति से खुद को बाहर निकालने और अपनी पक्षपाती दृष्टिकोण को त्यागने में असफल रहने के आरोप लगे. उन पर राज्यव्यापी समस्याओं और विकास के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने में असफल रहने के भी आरोप लगे. ये भी कहा गया कि उस काल में राजनीति तीन ऊंची जातियों भूमिहार, कायस्थ और राजपूत के गुटों में कैद हुई. और दूसरी जातियों के लोग सुविधा और परिस्थिति के मुताबिक इस गुट या उस गुट से गठजोड़ करते रहे.
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