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क़ैदी शाहजहां अपने बेटे औरंगजेब का गिफ्ट खोलते ही बेसुध क्यों हो गया?

दारा शिकोह से हारी हुई लड़ाई जीतकर औरंगज़ेब चिल्लाया, 'ख़ुदा है, ख़ुदा है'.

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पेंटिंग: औरंगज़ेब, हाथी पर कूच करते हुए (एटलस हिस्टोरिक' शैटेलेन द्वारा, 1705-20)
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14 जुलाई 2021 (Updated: 14 जुलाई 2021, 18:12 IST)
Updated: 14 जुलाई 2021 18:12 IST
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आज 14 जुलाई है और इस तारीख़ का संबंध है एक शहज़ादे के बादशाह बनने की कहानी से. शहज़ादा, जिसने अपने पिता को कैद करवाया, अपने भाइयों को मरवा दिया, बादशाह बनने के बाद आधी सदी तक राज किया और आज तक विवादों में रहता आया है.
शहज़ादे का नाम, अब्दुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मोहम्मद औरंगजेब आलमगीर. जिसे हम आज सिर्फ़ ‘औरंगज़ेब’ के नाम से जानते हैं. दक्खिन की निज़ाम शाही- 1636 की बात है. हमारी स्टोरी के मुख्य किरदार का पिता, यानि शाहजहां अपने साम्राज्य को मजबूत करने की कोशिश में लगा था. दक्खिन की निज़ाम शाही अपना सर उठा रही थी. दक्खिन यानि आज के महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का इलाक़ा. आज़ ही के दिन यानि 14 जुलाई को शाहजहां ने औरंगज़ेब को दक्खिन का सूबेदार नियुक्त किया. ये औरंगज़ेब की पहली नियुक्ति थी. औरंगज़ेब बीजापुर की तरफ़ रवाना हुआ (बीजापुर आज के कर्नाटक में पड़ता है). 25 हज़ार मुग़ल सैनिकों के साथ औरंगज़ेब ने बीजापुर को फ़तह कर लिया.
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औरंगज़ेब, हाथी से लड़ते हुए (पेंटिंग: बादशाह नामा)


लेकिन औरंगज़ेब ख़ुद अपनी इस जीत का जश्न ना मना पाया. रंग में भंग पड़ा एक संधि से. बीजापुर के शासक आदिल शाह ने औरंगज़ेब के बड़े भाई दारा शिकोह की मदद से शाहजहां से संधि कर ली थी. 18 साल का औरंगज़ेब इस बात को ज़ब्त कर गया. दोनों भाइयों के बीच की रंजिश में ये दूसरा अध्याय था.
तो पहला क्या था? इस कहानी का पायलट एपिसोड 3 साल पहले ही लिखा जा चुका था. पहला अध्याय- 28 मई, 1633. बादशाह के मनोरंजन लिए दो हाथियों की लड़ाई का कार्यक्रम रखवाया गया था. तब औरंगज़ेब 14 साल का था. खेल चल ही रहा था कि बीच लड़ाई में एक हाथी अचानक मदमस्त हो गया. उसने वहां मौजूद भीड़ पर हमला कर दिया. लोग इधर-उधर भागने लगे. औरंगज़ेब अपने घोड़े पर बैठकर हाथी की तरफ़ लपका. उसने भाले से हाथी के माथे पर वार कर दिया. औरंगज़ेब जिस घोड़े पर बैठा था, हाथी ने उसकी ओर अपनी सूंड लहराई. घोड़ा गिरता, इससे पहले ही फुर्ती दिखाते हुए औरंगज़ेब घोड़े से कूद गया. शहज़ादे को मुसीबत में देख बाक़ी लोग मदद के लिए आने लगे. बड़ी मुश्किल से हाथी पर क़ाबू पाया गया. औरंगज़ेब की बहादुरी से खुश होकर बादशाह ने उसे सोने पर तुलवाया. कहते हैं इस पूरी घटना के दौरान दारा शिकोह भी वहीं मौजूद था. पर उसने औरंगज़ेब की मदद करने की कोशिश नहीं की. ये घटना आने वाले भविष्य का संकेत दे रही थी. शतरंज का खेल-  आगे चलकर इन भाइयों की लड़ाई ने क्या मोड़ लिया. ये समझने के लिए हमें उस पूरे खेल को समझना होगा. जो दिल्ली के तख़्त को पाने के लिए खेला जा रहा था. इस शतरंज की मोहरें कहां-कहां बिछी थीं? कौन सा मोहरा कौन सी चाल चल रहा था? आइए जानते हैं.
शाहजहां के 4 बेटे थे. दाराशिकोह, शाहशुजा, औरंगज़ेब और मुराद बख़्श. इनमें सबसे बड़ा था दाराशिकोह. वो शाहजहां का चहेता था. चारों भाइयों में गद्दी को लेकर आपसी रंजिश न हो. इसलिए बादशाह ने चारों भाइयों को अलग-अलग सूबों की कमान दे दी. दारा शिकोह को काबुल और मुल्तान का ज़िम्मा सौंपा गया. शुजा को बंगाल, औरंगज़ेब को दक्खिन और मुराद बख़्श को गुजरात भेज दिया गया.
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युवा दारा शिकोह, तालीम लेते हुए


दारा शिकोह उम्र में बड़ा होने के नाते खुद को गद्दी का असली हक़दार मानता था. पर मुग़लिया इतिहास में ये रस्म तो कभी रही ही नहीं. जहांगीर ने अपने बेटे खुसरौ को कैद में डलवाया था. खुद शाहजहां ने अपने पिता जहांगीर के खिलाफ विद्रोह किया था. अपनी सौतेली मां को कैद में डलवा दिया था. गद्दी पाने के लिए अपने सौतेले भाई का कत्ल करवा दिया था. मुग़लिया सल्तनत पर दावा करने वाला हर व्यक्ति एक बात से वाक़िफ़ था. ये कि तख़्त हासिल ना किया तो ताबूत में भेज दिया जाएगा.
दारा शिकोह और औरंगज़ेब की दुश्मनी में एक और मोड़ आया 1644 में. जब शाहजहाँ की बेटी जहांआरा एक दुर्घटना में घायल हो गई. शाहजहां ने तुरंत औरंगज़ेब को बुलावा भेजा. औरंगज़ेब को पहुंचने में देर हो गई. इस बात से शाहजहां इतना नाराज़ हुआ कि उसने औरंगज़ेब को दक्खिन की सूबेदारी से बेदख़ल कर दिया. उसने दक्खिन की सूबेदारी भी दारा शिकोह के हवाले कर दी.
वैसे तो ये सब छोटी-छोटी घटनाऐं थी. लेकिन इन्हीं घटनाओं ने दोनों भाइयों के बीच दुश्मनी का बीज बोया. आने वाले वर्षों में मुग़लिया सल्तनत को एक और खूनी खेल देखना था. जहांआरा और रोशनआरा  1656 में, शाहजहां इतना बूढ़ा हो चला था कि राजशाही चलाने के काबिल नहीं रहा. ये देखकर चारों भाइयों ने गद्दी पर अपना हक़ जताना शुरू कर दिया. काबुल और मुल्तान की सूबेदारी मिलने के बावजूद दारा शिकोह दिल्ली में ही रुका हुआ था. उसने सभी भाइयों के शाहजहां से मिलने पर रोक लगा दी. औरंगज़ेब और भाइयों के समर्थकों को दरबार से हटा दिया.
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रोशनारा, भाइयों की लड़ाई में जिसने औरंगज़ेब का साथ दिया


यहां पर ये बात बताना भी ज़रूरी है कि दारा शिकोह मज़हब के मामलों में उदारवादी था. वो दूसरे धर्म के विद्वानों के उपदेश सुना करता था. वो सूफ़ी संत सरमद का शिष्य और दोस्त भी था. उलेमा और सल्तनत के मज़हबी रसूख़दार लोग उससे नाराज़ रहते थे.
शाहजहां की दो बेटियां भी थी. जहांआरा और रोशनाआरा. जहांआरा अपने पिता की चहेती शहज़ादी थी. वो दाराशिकोह को बादशाह बनते देखना चाहती थी. रोशनआरा अपनी बहन से जलती थी. और इसलिए वो दिल्ली की गद्दी पर औरंगज़ेब को देखना चाहती थी. औरंगज़ेब को भड़काने के लिए वो महल की सब खबरें औरंगज़ेब को भिजवाती थी. दारा शिकोह और औरंगज़ेब की जंग- औरंगज़ेब पहले ही दक्खिन की सूबेदारी छिन जाने से ग़ुस्से में था. दारा शिकोह के दूसरे धर्मों से बढ़ती नज़दीकी की खबरों को सुनकर वो बौखला उठा. 1658 में औरंगज़ेब ने आगरा पर चढ़ाई करने की योजना बनाई. उसने अपने समर्थकों से कहा-
‘बादशाह कुफ़्र और काफिरी के प्रभाव में है. हमें पुराने बादशाह को इस से मुक्त करना होगा. सल्तनत में अमन फैलाने के लिए सही मज़हब को दोबारा क़ायम करना होगा.’
मई 1658 में दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच ज़ंग हई. औरंगजेब ने अपने भाई मुराद बक्श को साथ मिला लिया था. उसने से आधी सल्तनत देने का वादा किया. बाद में वो अपने वादे से मुकर गया और उसने मुरादबक्श को मरवा दिया.
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पेंटिंग: दारा शिकोह अपनी फ़ौज के साथ


दारा शिकोह की फ़ौज औरंगज़ेब की फ़ौज से कहीं ज़्यादा बड़ी थी. वो औरंगज़ेब की फ़ौज पर भारी पड़ रही थी. लेकिन कहते हैं कि जंग के दौरान दारा शिकोह से एक गलती हो गई. वो अपने एक मुलाज़िम के कहने पर हाथी से उतरकर घोड़े पर बैठ गया. अपने सेनानायक को हाथी पर ना देख अफ़वाह फैल गई-
‘दारा शिकोह मारा गया’.
औरबगज़ेब ने मौक़ा देखते हुए ललकारते हुए कहा-
‘दिली याराना, वक्त अस्त. खुदा है, खुदा है’ यानि ‘हिम्मत दिखाने का यही वक्त है यारों, ख़ुदा हमारे साथ है’.
दारा शिकोह ये लड़ाई हार गया. उसे बंदी बना लिया गया. बचपन का बदला- फटेहाल कपड़ों में दारा शिकोह को एक हाथी पर बैठाया गया और पूरे शहर में घुमाया गया. औरंगज़ेब बचपन की दुश्मनी का बदला ले रहा था.
दारा शिकोह को इस हाल में देखकर एक भिखारी चिल्लाया-
‘ऐ! दारा शिकोह, देख अपनी हालत. कभी तू इस धरती का मालिक हुआ करता था. मुझे भी कुछ ना कुछ दे ही देता था. आज तेरे पास कुछ भी नहीं है. बता आज क्या देगा?
इस पर दारा शिकोह ने अपने शरीर से लिपटा शॉल निकाला और भिखारी की तरफ़ उछाल दिया.
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औरंगज़ेब अपने दरबार में (पेंटिंग: बिचित्र)


औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को परिवार सहित कैदख़ाने में डाल दिया. जेल में क़ैद होकर भी दारा शिकोह एक ख़तरा था. जनता के एक बड़े हिस्से में उसके समर्थक थे.
इतिहासकार निकोलाओ मनूची ने अपनी किताब ‘स्टोरिया दो मोगोर’ में लिखा है-
‘दारा शिकोह को मारने के लिए औरंगज़ेब ने अपने सैनिक कैदख़ाने में भेजे. तब दारा अपने बेटे के साथ खाना बना रहा था. सैनिकों ने बड़ी बेरहमी से दारा का गला उसके बेटे के सामने काट डाला. औरंगज़ेब ने दारा शिकोह का कटा हुआ सिर एक डिब्बे में बंद किया. और शाहजहां के पास यह कहलवाकर भिजवाया-
‘तोहफ़ा क़बूल करें. आपका बेटा आपको भूला नहीं है’.
शाहजहां ने तोहफ़ा देखकर खुश होते हुए कहा-
‘ख़ुदा का शुक्र है, औरंगज़ेब को अभी भी अपने पिता की याद है’.
डिब्बा खोलकर जब शाहजहां ने दारा शिकोह का कटा हुआ सिर देखा तो वो बेहोश हो गया. होश में आने पर वो इतना दुखी हुआ कि अपने दाढ़ी के बाल तब तक नोंचता रहा. जब तक उसके चेहरे से खून ना निकलने लगा.’
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औरंगज़ेब के प्रति वफादार सिपाही 1658 में औरंगाबाद महल पर नज़र रखे हुए


मनूची आगे बताते हैं-
‘औरंगज़ेब का दिल अब भी ना भरा. उसने दारा शिकोह का धड़ एक मकबरे में दफ़नाया. और सिर को ताजमहल के सामने ज़मीन में गाड़ दिया.
उसने शाहजहां से कहा-
‘जब भी तुम बेगम का मक़बरा देखोगे. तुम्हें ये भी याद आएगा कि तुम्हारे सबसे प्यारे बेटे का सिर भी वहीं गड़ा हुआ है.’
औरंगज़ेब ने दारा शिकोह के गुरु और दोस्त सूफ़ी फ़क़ीर सरमद को भी कैद करवा दिया. सरमद पर इस्लाम के खिलाफ जाने का आरोप लगाया गया. उलेमा ने उससे कहा कि वो कलमा पढ़े,
ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मद उर रसूलल्लाह’, मतलब ‘अल्लाह के सिवाय दूसरा कोई ख़ुदा नहीं, मोहम्मद उस अल्लाह के दूत हैं’.
सरमद ने कहा-
ला इलाहा’. मतलब ‘ख़ुदा नहीं है’.
उलेमा ने सरमद से कहा कि वो पूरा कलमा पढ़े तो सरमद ने जवाब दिया-
‘अभी तो इतना ही समझ पाया हूं. जब पूरा समझ जाऊंगा तो पूरा पढूंगा’.
उलेमा ने जाकर औरंगज़ेब को ये सब बताया. औरंगज़ेब ने हुक्म दिया-
‘इस काफ़िर का सर धड़ से अलग कर दिया जाए’.
मृत्यु- औरंगज़ेब कुल 88 साल की उम्र तक ज़िंदा रहा. उसने अपने कई बच्चों की मौतें देखी. अंतिम समय में वो बहुत कमज़ोर और बीमार था. उसे अहसास हो चुका था की मुग़ल शासन का अंत नज़दीक है. जिसके बीज खुद उसने ही बोये थे. मरते वक्त उसके आख़री शब्द थे-
‘’आज़मा फ़साद बक’ यानि ‘मेरे बाद बस फ़साद ही फ़साद है’ मैं इस दुनिया में अजनबी ही आया और अजनबी ही जा रहा हूं.’

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