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किसी भी चीज को 'कला' में तब्दील कर सकता था ये जादूगर

गांधीजी के साथ आजादी की लड़ाई लड़ने वाले इस आर्टिस्ट का कल निधन हो गया.

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30 जून 2016 (Updated: 30 जून 2016, 02:46 PM IST) कॉमेंट्स
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आज सुबह-सुबह पता चला कि K G सुब्रमनियन नहीं रहें. किसी भी तरह के आर्ट में दिलचस्पी लेने वालों का दिल ही टूट गया.
प्रोफेसर सुब्रमनियन पेंटर, आर्ट हिस्टोरियन, आर्ट टीचर, लेखक और शिल्पकार थे. उनके काम की सबसे बड़ी खासियत थी, उनका अलग-अलग तरह के ढेरों मीडियम पर काम करना. मीडियम मतलब वो चीज़ या सतह जिसको लेकर कोई आर्ट बनाया जाए. ये पेंटिंग भी हो सकती है और मूर्ति कला भी. प्रोफेसर सुब्रमनियन 1924 में केरला के एक छोटे से गांव में पैदा हुए थे. फिर बचपन का अधिकतर समय उन्होंने पुद्दुचेरी के माहे में बिताया था. उस समय ये जगह फ्रेंच कंट्रोल में थी. और इसी वजह से उन्हें पेरिस की आर्ट मैगजीन और पेपर पढ़ने को मिल जाया करते थे. ऐसे 12-13 साल की उम्र में ही उन्हें पिकासो जैसे आर्टिस्ट और 'सर्रिअलइस्म' जैसे कुछ आर्ट के तरीकों के बारे में पता चल सका. कॉलेज के दिनों में ही प्रोफेसर सुब्रमनियन को गांधीजी की बातें बड़ी सही लगने लगीं. और वो आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए. इसी चक्कर में काफी दिन तक जेल में भी रहना पड़ा था इन्हें. आर्ट में इनका इतना मन लगता था, कि इनके बड़े भइया को लगा कुछ तो करना चाहिए. और इसीलिए उन्होंने खट से फ़ेमस आर्टिस्ट नंदलाल बोस को चिट्ठी लिख दी. नंदलाल बोस उस वक़्त शान्तिनिकेतन में ही थे. अरे नंदलाल बोस तो रबिन्द्रनाथ टगोर के भाई अबनिन्द्रनाथ टगोर के स्टूडेंट भी थे. ये शान्तिनिकेतन के प्रिंसिपल भी रह चुके थे. हां तो, प्रोफेसर सुब्रमनियन का काम इतना पसंद किया गया, कि उन्हें शान्तिनिकेतन के कला भवन में एडमिशन मिल गया. यहां पे उन्हें नन्दलाल बोस के साथ-साथ रामकिंकर बैज और बिनोदबिहारी मुखर्जी जैसे कमाल के आर्टिस्ट लोगों से सीखने का मौका मिला. प्रोफेसर सुब्रमनियन बिनोदबिहारी मुख़र्जी के सबसे करीब थे. फिर उन्होंने बड़ोदा के आर्ट कॉलेज में कई सालों तक पढ़ाया. अब उनके कुछ आर्ट दिखाते हैं आपको. images (1)
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प्रोफेसर सुब्रमनियन के आर्ट में हमेशा तीन ख़ास चीज़ों की बात की जाती है. पहली तो ये कि ये 'ट्रेडिशनल' और 'मॉडर्न' को बखूबी जोड़ सकते थे. इनके मुताबिक किसी आर्ट को 'स्थानीय' बनाने के लिए ज़रूरी नहीं कि उसे परंपरा के दायरे में ही बांध कर रखा जाए.
दूसरी चीज़ ये कि एक आर्टिस्ट के तौर पर प्रोफेसर सुब्रमनियन ढेर सारे मीडियम और तरीकों से ख़ुद को एक्सप्रेस कर पाते थे. वो बड़े आराम से कभी शीशे तो कभी कागज़ पर पेंटिंग बना दिया करते थे. उतना ही नहीं, वो मूर्तियां और 'मुरल' आर्ट भी बनाया करते थे. 'मुरल आर्ट' का मतलब है सीधे दीवार या सीलिंग पर ही कोई आर्ट बनाना. तीसरी ख़ास बात ये थी कि वे 'ख़ास' और 'आम' यानी रोजमर्रा की चीज़ों को इतनी सहजता से जोड़ देते थे कि उनके आर्ट में दोनों बिलकुल अगल-बगल में ही मिल जाते थे. और फिर उनकी बीच की दूरी धुंधली होती जाती थी. प्रोफेसर सुब्रमनियन के कुछ वीडियो मिल जाते हैं, जिनसे आर्ट के बारे में उनके विचार पता चलते हैं. उनका मानना था कि हर मीडियम की एक भाषा होती है. ठीक वैसे ही जैसे हर म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की एक ख़ास भाषा होती है. सबसे कमाल की बात है कि प्रोफेसर सुब्रमनियन किसी एक आर्ट फॉर्म से बंधे हुए नहीं थे. वे पेंटिंग्स, मूर्ति कला, डांस, म्यूजिक सारे आर्ट फॉर्म को एक-दूसरे से जोड़ सकते थे. उनका मानना था कि हर आर्ट फॉर्म को वक़्त के साथ-साथ अपना वजूद बनाए रखने के लिए अपनी भाषा को मजबूत और 'एक्सप्रेसिव' बनाए रखना होगा. और उन सभी आर्ट की बेसिक समझ पर वे बोल और लिख सकते थे. लोक कथाओं और मिथकों से लेकर बच्चों और बिल्लिओं तक, प्रोफेसर सुब्रमनियन कई अलग तरह के थीम पर अपने आर्ट बनाया करते थे.
उनकी मौत के बाद उनके स्टूडेंट्स और साथियों ने उनके बारे में काफी कुछ बताया. उन लोगों ने बताया कि प्रोफेसर सुब्रमनियन गिफ्टेड होने के साथ-साथ बहुत मेहनती थे. शान्तिनिकेतन में जब उनके कुछ आर्ट रखे-रखे ख़राब हो गए थे. तब उन्होंने उन आर्ट्स को रिपेयर करने की बजाए दोबारा पूरा बनाया. अपने अंतिम वक़्त तक वे पेंटिंग्स बनाने में लगे हुए थे.
अभी पटना में ललित कला अकादमी में उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी हुई थी. अब अगर आप भी उनके आर्ट देखना चाहते हैं, जो कि आप बिलकुल चाहते होंगे. तो पूरे अगस्त पुद्दुचेरी में उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी रहेगी. फिर ऐसा दिल्ली में भी होगा और उसके बाद गुवाहाटी में भी.

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