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मूर्खता पर एक निबंध

मूर्ख दिवस राष्ट्रीय अवकाश का विषय नहीं है. यह राष्ट्रीय शर्म का विषय भी नहीं है. लेकिन राष्ट्रीय झेंप से इसका नाता अटूट है.

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अविनाश
1 अप्रैल 2017 (Updated: 31 मार्च 2017, 04:27 AM IST)
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‘आज मूर्ख दिवस है.’ यह कहने पर वैसा गर्व और उत्साह अनुभव नहीं होता जैसा यह कहने पर कि आज स्वतंत्रता दिवस है. लेकिन मूर्खों की अपनी स्वतंत्रताएं हैं और वे किसी के लिए गर्व का विषय हों न हों, उत्साह में सदा रहते हैं. आखिर ये मूर्खताएं ही तो हैं जो उन्हें समझदारों से अलग करती हैं. मूर्ख दिवस का बच्चों के लिए विशेष महत्व है. इस दिन वे सुबह से ही अपने वरिष्ठों को मूर्ख बनाने के एकदिवसीय कार्यक्रम में लग जाते हैं. इस वर्ष भी वे वह सब कर सकते हैं जो उन्होंने गत वर्ष किया था. मसलन वे आपके जूते गायब कर सकते हैं, सेल फोन से बैटरी निकालकर उसे हल्का कर सकते हैं, आपके पीछे दुम लगा सकते हैं, आपको कोई बुला रहा हैं, आपके ऊपर छिपकली... या ऐसा ही कुछ और. लेकिन इतना जानना काफी नहीं है क्योंकि वे बच्चे हैं और इसलिए कुछ भी कर सकते हैं. उनसे होशियार रहने की जरूरत है, उनके पास मूर्ख बनाने के लिए कई नई-नवेली और खतरनाक तरकीबें भी होंगी. मूर्ख दिवस से पहले अपने यहां होली आती है. यह पर्व मूलतः हुड़दंगियों का पर्व है जिनकी नजर में मूर्ख दिवस से पहले होली मूर्ख बनने और बनाने का अवसर है. होली से पहले वैलेंटाइन डे आता है. इसमें लड़कियां लड़कों को और अगर अवसर मिला तो लड़के लड़कियों को मूर्ख बनाते हैं. वैसे यह खेल वैलेंटाइन डे से इतर भी संसार भर में साल भर चलता रहता है. इसे प्रेमपूर्ण मूर्खता या मूर्खतापूर्ण प्रेम कह सकते हैं. यह स्त्री-पुरुष संबंधों का शाश्वत पहलू है. वैलेंटाइन डे से पहले नव वर्ष आता है. इसमें भी कई तरह की मूर्खताएं होती हैं. ये मूर्खताएं नव वर्ष पूर्व संध्या से ही शुरू हो जाती हैं, इस तथ्य में यकीन जताते हुए कि हर रोज बदलने वाली तारीख में एक अंक बदल जाने से सब कुछ बदल जाता है. नए वर्ष से पहले भी अपने यहां कई पर्व-उत्सव मनाए जाते हैं जिनमें कई बार दोहराई जा चुकीं मूर्खताएं पुन: दोहरायी जाती हैं. आज गर्मी ने तो हद कर दी... हाय राम इतनी बारिश... आज सर्दी तो गजब है... प्रतिवर्ष यह कहते हुए हमारी सर्दियां गर्मियों में बदलती हैं और गर्मियां बारिशों में... यह कहने का आशय यहां यह है कि मूर्खताएं मूर्ख दिवस से अलग भी वर्ष भर गतिशील रहती हैं. यह अलग बात है कि इन्हें मूर्खताएं न कह कर कोई और नाम दे दिया जाता है.
अप्रैल फूल बनाने का, मनाने का और इस एक खास दिन को खास तौर पर मूर्खों के लिए रखे जाने का यह दस्तूर कब, क्यों और कैसे बना इस संदर्भ में कोई प्रामाणिक व विश्वसनीय जानकारी मौजूद नहीं है.
मूर्ख दिवस राष्ट्रीय अवकाश का विषय नहीं है. यह राष्ट्रीय शर्म का विषय भी नहीं है. लेकिन रघुवीर सहाय के शब्दों के सहारे कहें तो यह कह सकते हैं कि राष्ट्रीय झेंप से इसका नाता अटूट है. संभवत: इसलिए ही संसार के कई कोनों में इस दिन मूर्ख-महामूर्ख महोत्सव आयोजित किए जाते हैं. आजकल सब स्थानीयताओं में कहीं न कहीं इस तरह के स्टूपिटिडी सेंटर हैं जहां आप खुल कर मूर्खताएं कर सकते हैं. कई सारे ऐसे पार्क हैं जहां आप खुल कर हंस सकते हैं, भले ही खुल कर तो दूर आपको हंसी ही न आ रही हो. लेकिन आप फिर भी हंसेंगे क्योंकि आपके इर्द-गिर्द सब बेसाख्ता हंस रहे होंगे, ऐसे में न हंसना मूर्खता होगी और इसलिए यहां हंसना वैसे ही जरूरी हो जाएगा जैसे मूर्खों के बीच मूर्खताएं...
अगर मूर्ख दिवस को मूर्खता से जोड़ें और मूर्खता को बुद्धिहीनता से तब इस दस्तूर की प्रामाणिकता पर कुछ दार्शनिक किस्म का (हालांकि यह इस अवसर पर शोभा नहीं देता) विवेचन संभव हो सकता है. बुद्धि के बारे में माना जाता है कि वह केवल समझदारों के पास होती है, लेकिन यह उसका दुर्भाग्य है कि ऐसा समझदारों के द्वारा ही माना जाता है, मूर्खों के द्वारा नहीं. मूर्खों को तो अपनी मूर्खताएं ही समझदारी प्रतीत होती हैं. वे समझदारों की समझदारी को मूर्खता समझते हैं. यह पूछने की जरूरत नहीं है कि वे क्या कुछ समझते भी हैं?
यह कहना सही नहीं होगा कि विवेक के उदय के साथ ही अविवेक भी चला आया होगा, क्योंकि अविवेक विवेक से अधिक प्राचीन है, बल्कि यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि अविवेक शाश्वत है, सदा से विद्यमान है. लेकिन विवेक को अर्जित करना पड़ता है और इस अर्जन से रफ्ता-रफ्ता अविवेक को खत्म करके पूर्ण विवेक की ओर बढ़ना होता है. यह संघर्ष सबके वश की बात नहीं क्योंकि इस संसार में जीवित बने रहने के लिए प्रतिक्षण दिनचर्याओं के यज्ञ में बगैर स्वाह बोले हुए विवेक की आहुति देनी पड़ती है. यहां ‘पूर्ण विवेक’ केवल एक प्रत्यय भर है जैसे मोक्ष, निर्वाण, बुद्धत्व... वगैरह-वगैरह. और इसलिए ही यह संघर्ष सबके वश की बात नहीं क्योंकि जब जीवित बने रहना ही एक अकेला संघर्ष हो तब ऐसे प्रत्ययों पर कोई क्यों सोचेगा? इस तरह यह भूल कर कि हमारा सर्वप्रथम संघर्ष अविवेक से है हम विवेक की तिलांजलि देकर महाकवि मुक्तिबोध को गुनगुनाते हैं : अजीब है जिंदगी!!बेवकूफ बनने की खातिर ही सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूं और यह देख-देख बड़ा मजा आता है कि मैं ठगा जाता हूं हृदय में मेरे ही प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण मत्त हुआ जाता है कि जगत... यह स्वायत्त हुआ जाता है... विवेक उदय के बाद जैसे-जैसे परिवर्तित, परिष्कृत व विकसित हुआ, वैसे-वैसे ही अविवेक भी परिवर्तित, परिष्कृत व विकसित हुआ. एक दौर में अज्ञान पर विजय हासिल करते हुए अर्जित की गईं संसार की सबसे बड़ी उपलब्धियों को गौर से जांचने पर ज्ञात होता है कि संसार की सबसे बड़ी मूर्खताएं भी इन्हीं उपलब्धियों के आस-पास घटी हैं. जैसे-जैसे संसार में विवेकवानों के वर्ग बने, वैसे-वैसे ही इन वर्ग की दरारों से अविवेक की दीवारें खड़ी और मजबूत होती गईं. फिर धीरे-धीरे सब तरफ ये दीवारें ही दीवारें रह गईं. बहुत ध्यान से देखने पर कहीं दरारें दिखतीं. रोज-ब-रोज नए-नए पेंट आने लगे बाजार में— इन दीवारों को आकर्षक बनाने और दरारों को छुपाने के लिए. बाद इसके हुआ यूं कि कोई फर्क ही नहीं रह गया दरार और दीवार में. लेकिन दरारें खत्म नहीं हुईं. वे अब भी चुपचाप पूरी लगन के साथ अपना काम कर रही हैं. वे बार-बार दीवारों पर हावी होकर उभर आती हैं— यह याद कर कि उनका सर्वप्रथम संघर्ष अविवेक से है. यहां यह भी जोड़ना चाहिए कि सर्वत्र बातें विवेक की होती हैं, लेकिन वर्तमान में विवेक पीछे छूटता जा रहा है. इसकी वजह यह है कि सर्वत्र पैरासाइट्स सक्रिय हैं, कामचोर सम्मानित हैं और शोषक मजे में हैं. पैरासाइट्स, कामचोर और शोषक... ये तीनों शब्द मूर्ख शब्द के ही पर्यायवाची हैं— यह कोई शब्दकोश या समांतर कोश नहीं बताता. ये पर्यायवाची प्रतिबद्ध, कर्मठ और सृजक मनुष्यों को प्रतिपल यह यकीन दिलाते रहते हैं कि तुम्हें कुछ नहीं आता, तुम मूर्ख और मामूली हो... यह दूसरी बात है कि तुम हमारी तरह पैरासाइट्स, कामचोर और शोषक नहीं हो. आखिर इस परिदृश्य में जहां सारा ज्ञान इनकी बपौती हो, इस तरह के मूर्ख और मामूली व्यक्ति विवेक के लिए जाएं तो जाएं कहां... क्योंकि विवेक पीछे छूटता जा रहा है और अनुशासन अयोग्यों के लिए है और सारी समझदारी अतीत के लिए इस ज्ञान के साथ कि आत्ममुग्धता एक अच्छी चीज है, अगर वह मूर्खों के बीच बरती जाए. *** इन्हें भी पढ़ें :

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