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अमेरिका लाख धमकियां दे, तालिबान बगराम एयरबेस नहीं देगा, वजह इतिहास में छिपी है

Bagram Air Base history: बगराम के जिस एयरबेस को साल 2021 में अमेरिका ने खुद ही छोड़ दिया था और वहां से अपने सारे ‘तामझाम’ भी वापस मंगा लिए थे. उसी पर फिर से उसका दिल कैसे आ गया?

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Bagram Air base
तालिबान ने अमेरिका की बगराम की डिमांड ठुकरा दी है (India Today)
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राघवेंद्र शुक्ला
23 सितंबर 2025 (Updated: 23 सितंबर 2025, 06:50 PM IST)
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पुरानी कहावत है. ‘जिसने भी सेंट्रल एशिया को काबू में कर लिया, वो पूरे यूरेशिया पर अपना दबदबा बना सकता है.’ पूरी दुनिया पर ही ‘दबदबा’ बनाने को आतुर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस बात को दिल पर ले लिया है. तभी तो हाथ-धोकर अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस के पीछे पड़े हैं. चीन, ईरान, पाकिस्तान और भारत पर निगरानी के सबसे सटीक चौराहे पर मौजूद बगराम को लेकर उन्होंने धमकी दी है कि अगर अफगानिस्तान उन्हें एयरबेस पर कब्जा नहीं देगा तो अंजाम बुरा होगा. लेकिन तालिबान सरकार भी उनकी धमकी से डरी नहीं. पलटवार करते हुए साफ बोल दिया कि एयरबेस पर कब्जा तो छोड़ो उसकी जमीन का एक कण भी अमेरिका को नहीं मिलेगा. 

अब सवाल है कि जिस एयरबेस को साल 2021 में अमेरिका ने खुद ही छोड़ दिया था और वहां से अपने सारे ‘तामझाम’ भी वापस मंगा लिए थे. उसी पर फिर से कब्जा करने का दिल कैसे आ गया? ऐसा क्या है इस एयरबेस में, जिसके लिए प्रेसिडेंट ट्रंप को ‘धमकी’ पर उतर आना पड़ा? 

बगराम का इतिहास क्या है?

बगराम अफगानिस्तान का प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है. कुषाण साम्राज्य के दौरान इस शहर की काफी अहमियत थी. ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में अफगानिस्तान अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रोफेसर राघव शर्मा बगराम एयर बेस के बनने की कहानी बताते हैं. 

उनके मुताबिक, 1950 के दशक में जब बगराम में हवाई पट्टी का निर्माण शुरू हुआ, तब अमेरिका और सोवियत संघ में शीत युद्ध (Cold War) चल रहा था. इसी समय अफगानिस्तान ने अमेरिका से आर्थिक मदद मांगी थी, लेकिन वॉशिंगटन को तब पाकिस्तान ज्यादा इंपॉर्टेंट लगा. उसने न सिर्फ पाकिस्तान की ओर झुकाव दिखाया बल्कि अफगानिस्तान को सलाह दी कि पाकिस्तान के साथ सीमा को लेकर अपने विवाद सुलझा ले. अमेरिका ने इस सलाह की एक कॉपी पाकिस्तान को भी भेज दी थी, जिससे अफगानिस्तान काफी नाराज हुआ. अमेरिका से चोट खाया वह धीरे-धीरे सोवियत संघ की ओर होता गया.

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बगराम सोवियत संघ का सबसे बड़ा एयर बेस था (India Today) 

सोवियत संघ ने भी अफगानिस्तान की खूब मदद की. उसने अफगानिस्तान में हवाई पट्टियां (airstrips) बनाईं. कॉलेज खोले और बड़े पैमाने पर आर्थिक मदद दी. ये सब देखकर अमेरिका भी सतर्क हुआ और उसने भी अफगानिस्तान को सहायता देनी शुरू कर दी. हालांकि, इस प्रतियोगिता में सोवियत संघ काफी आगे था. उसने अफगानिस्तान में अमेरिका से ज्यादा निवेश किया और इसी दौरान बगराम एयरबेस का बड़े पैमाने पर विकास हुआ.

अफगानिस्तान की सियासत में उथल-पुथल

1972 तक अफगानिस्तान में राजशाही व्यवस्था थी. यानी वहां राजा देश का प्रमुख होता था. राजा जाहिर शाह उस समय देश के राजा थे लेकिन 1973 में उनके चचेरे भाई दाऊद खान ने उनका तख्तापलट कर दिया. राघव शर्मा के मुताबिक, इसमें उनकी मदद की थी अफगान आर्मी के ऑफिसर्स ने, जो सोवियत संघ में प्रशिक्षित होकर आए थे. उनका झुकाव वामपंथी सोच की ओर हो गया था. 

दाऊद के जमाने में अफगानिस्तान की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी ‘पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान’ (PDPA) बेहद ताकतवर हो गई थी. पीडीपीए में भी दो फ्रैक्शन थे. एक खल्क और एक परचम. परचम ज्यादा मजबूत थे. दाऊद को लगा कि वह शासक है और उसके पास ताकत है तो वह कुछ भी कर सकता है. कुछ समय बाद उसने परचम धड़े के लोगों को किनारे लगाना शुरू कर दिया. इससे पार्टी में खलबली मच गई.

‘परचम’ खेमे के एक बड़े विचारक थे- मीर अकबर खैबर. दाऊद ने उनको जेल में डाल दिया. वहां उनकी मौत हो गई. इससे वामपंथियों में बड़ा आक्रोश पैदा हुआ और अप्रैल 1978 में अफगानिस्तान में एक और तख्तापलट क्रांति हो गई. इसे ‘साउर क्रांति’ यानी 'अप्रैल क्रांति' के नाम से जाना जाता है. इसके बाद नूर मोहम्मद तराकी की सरकार बनी. तराकी वामपंथी पार्टी के खल्क गुट का था. उसकी सरकार काफी कमजोर थी. इसकी दो वजहें थीं. 

एक तो खल्क और परचम के बीच फूट बहुत ज्यादा थी. खल्क में भी आपस में विवाद था. तराकी और हफीजुल्ला अमीन की आपस में नहीं बनती थी. 

दूसरा- सरकार अस्थिर थी. इनके पास समर्थन नहीं था. फिर भी सरकार ने दो-तीन फैसले ऐसे किए, जिसने विवाद खड़ा कर दिया. पहला- लैंड रीडिस्ट्रिब्यूशन किया जो क्लासिक कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो का हिस्सा था. इसके तहत कहा गया कि बड़े जमींदारों से जमीन लेकर भूमिविहीनों को देंगे. इससे ‘जमींदार खानों’ का सरकार को समर्थन कम हो गया. 

सरकार ने महिला शिक्षा और विवाह कानून में भी तब्दीली की. यानी समाज के ऐसे हिस्से को छेड़ा जो रूढ़िवादी थे. इससे मौलवी और ट्राइबल लीडर्स जैसे धड़े, जिनका समाज में दबदबा था, बहुत नाराज हुए. उनका कहना था कि सरकार उस डोमेन में अपनी टांग अड़ा रही है, जो हमेशा से स्टेट के हक से बाहर रहा है.

एक कारण ये भी था कि कम्युनिस्ट किसी भगवान को नहीं मानते थे. ये तो ‘गुनाह’ था. इन्हीं सब विवादों के बीच तराकी का भी तख्तापलट कर दिया गया और ये काम किया, उसके खुद के मेंटर और खल्क पार्टी के ही हफीजुल्ला अमीन ने. 

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काबुल से 50 किमी उत्तर में स्थित है बगराम (india today)

हालांकि, इससे पहले तराकी ने कई बार सोवियत संघ से मदद मांगी थी कि आर्मी भेजकर हमारी अस्थिर सरकार को बचा लीजिए. लेकिन सोवियत संघ अफगानिस्तान में सेना भेजने के पक्ष में नहीं था. लेकिन जब अमीन तख्तापलट करता है तो मॉस्को का मन बदल जाता है. सोवियत नहीं चाहता था कि अफगानिस्तान में वामपंथी सरकार गिर जाए और अफगानिस्तान में कम्युनिज्म कायम करने का उसका मकसद फेल हो जाए. यही वजह थी कि पीडीपीए लीडरों की सिफारिश पर सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में अपनी आर्मी भेजी. 

अफगानिस्तान जाकर रूसी आर्मी ने पहला काम किया कि अमीन को मार डाला और उसे हटाकर अपने समर्थक गुट को बैठा दिया. बबरक कर्मल को राष्ट्रपति बनाया गया और उनके साथ हजारों सोवियत सलाहकार तैनात कर दिए गए. 

यही वो समय था, जब अफगानिस्तान पर अपने कब्जे की रक्षा के लिए सोवियत ने बगराम एयर बेस को मिलिट्री बेस की तरह डेवलप किया. 1979 से लेकर 1989 तक बगराम एक महत्वपूर्ण सोवियत अड्डा था, जहां से सुखोई Su-25 विमानों ने पहाड़ों में छिपे तमाम मुजाहिदीनों को निशाना बनाया. 

हालांकि, दशक भर तक अफगानिस्तान से जूझने और धन-जन की भारी हानि के बाद 14 फरवरी 1989 को सोवियत संघ की सेना घर वापस लौट गई. एक-एक करके सभी रूसी सैनिक अमूू दरिया पार करके जिस रास्ते आए थे, उसी रास्ते वापस लौट गए. रूसी सैनिकों के चले जाने के बाद बगराम एयर बेस कई सालों तक वीरान पड़ा रहा. 

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सोवियत संघ ने 1989 में बगराम एयरबेस छोड़ दिया था (India Today)
फिर आई अमेरिका की बारी

बगराम का रोल इसके बाद साल 2001 में फिर शुरू हुआ, जब अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में इसे अपना मेन सेंटर बनाया. तब तक अफगानिस्तान का यह इलाका एकदम खंडहर बन चुका था. 

दरअसल, 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अफगानिस्तान में छिपे आतंकियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. इसी क्रम में उसने बगराम पर कब्जा कर लिया. एयरबेस को फिर से बसाया गया और इसका एरिया बढ़ाकर लगभग 30 वर्ग मील (77 वर्ग किमी) तक कर दिया.

शिमला जैसा शहर

इंडिया टुडे के शुभम तिवारी की रिपोर्ट के मुताबिक, यह एयरबेस एक छोटे शहर जितना बड़ा है. यानी भारत के शिमला शहर से थोड़ा ही छोटा. 3300 एकड़ में फैला हुआ बगराम अफगानिस्तान में अमेरिका का सबसे बड़ा और सबसे व्यस्त सैन्य अड्डा बन गया था. इसका रनवे 7 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबा है. यह तकरीबन 40 हजार सैनिक और कॉन्ट्रैक्टर्स का ठिकाना बन गया जहां हर तरह की सुविधाएं भी विकसित की गईं. जैसे मेडिकल फेसिलिटी, फास्ट फूड की दुकानें और छोटा-मोटा बाजार भी. 

राघव शर्मा बताते हैं कि बगराम एयरबेस एक तरह से 'अमेरिकन वॉर ऑफ टेरर’ का सेंटर था, जहां तमाम तालिबानी नेताओं को हिरासत में रखा गया. यह सुर्खियों में इसलिए भी रहा क्योंकि वहां कैदियों का भयंकर शोषण होता था. इस सेंटर की तुलना क्यूबा के कुख्यात ग्वांतानामो बे अड्डे से भी की जाने लगी. 

अमेरिका ने यहां कई कैदियों को रखा, जिनमें सिराजुद्दीन हक्कानी जैसे बड़े तालिबानी नेता भी शामिल थे. तालिबान सरकार के बगराम को अमेरिका को न सौंपने के पीछे ये भी एक बड़ी वजह बताई जाती है.   

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अमेरिका के जाने के बाद तालिबान ने बगराम पर कब्जा कर लिया (India Today)
अमेरिकी कब्जे के दो दशक

तकरीबन 2 दशक तक अमेरिका की सेना बगराम में कब्जा जमाए बैठी रही. यहीं से तालिबान के खिलाफ ऑपरेशन्स को अंजाम दिया जाता था. हालांकि, इस दौरान उसके अपने देश में इसे लेकर विरोध होने लगा, क्योंकि अफगानिस्तान में भारी संख्या में अमेरिकी सैनिक मारे जा रहे थे. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, तत्कालीन रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन ने सितंबर 2021 में हाउस आर्म्ड सर्विसेज कमेटी को बताया था कि बगराम को बनाए रखने के लिए कम से कम 5 हजार अमेरिकी सैनिकों को खतरे में डालना पड़ता.

नतीजा ये हुआ कि डॉनल्ड ट्रंप की जब पहली बार सरकार बनी तो तालिबान के साथ एक समझौता हुआ. इसके तहत अफगानिस्तान की धरती से सभी नाटो और अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने का फैसला किया गया. ये काम पूरा होने में एक साल लग गया. लेकिन अगले चुनाव में ट्रंप अमेरिका की सत्ता से बाहर हो गए और जो बाइडेन आ गए थे. 2 जुलाई 2021 को अमेरिकी सेना ने बगराम खाली कर दिया और 15 अगस्त को तालिबान ने इस जगह पर कब्जा कर लिया.

2024 का राष्ट्रपति चुनाव जीतकर ट्रंप फिर सत्ता में लौटे और अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से बोरिया-बिस्तर समेटने के 4 साल बाद वह फिर से बगराम मांगने लगे हैं. 

प्रोफेसर राघव शर्मा के मुताबिक, बगराम एयरफील्ड को लेकर ट्रंप प्रशासन का कहना है कि इसे अमेरिका को वापस सौंप दिया जाए, क्योंकि यह बेस अमेरिका ने बनाया था और उस पर उन्होंने बहुत पैसा खर्च किया है. लेकिन यह दलील ऐतिहासिक रूप से सही नहीं है, क्योंकि वास्तव में बगराम एयरबेस को सबसे पहले सोवियत संघ ने बनाया था. 

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रफेसर अंबरीष ढाका बताते हैं कि अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति के लिहाज से बगराम एक महत्वपूर्ण जगह है. इतिहास में जब-जब मध्य एशिया से दक्षिण की ओर सैन्य गतिविधियां हुईं, वे इस बगराम घाटी से होकर ही आगे बढ़ीं. यही कारण है कि सिकंदर ने भी अपने समय में बगराम को एक अहम पड़ाव (base) के रूप में इस्तेमाल किया था. वह आगे कहते हैं,

आज की परिस्थिति में डॉनल्ड ट्रंप इसे इसलिए हासिल करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि चीन या रूस वहां अपना प्रभाव (influence) बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. बगराम सिर्फ एक सैन्य ठिकाना नहीं है, बल्कि इस पर कंट्रोल से क्षेत्रीय प्रभाव भी स्थापित होता है.

ट्रंप के हालिया बयान पर अंबरीष का कहना है कि फिलहाल, अमेरिका और तालिबान का कोई अच्छा कनेक्शन नहीं है. ऐसे में ट्रंप पता नहीं किस आधार पर ये बात कर रहे हैं. यह उनके बयान की गंभीरता पर भी सवाल खड़े करता है.

क्या चाहता है अमेरिका?

लंदन में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में डॉनल्ड ट्रंप ने बताया था कि अमेरिका बगराम बेस दोबारा लेकर वहां से चीन पर नजर रखना चाहता है. यह उस जगह से एक घंटे की दूरी पर है जहां चीन अपने परमाणु हथियार बनाता है. ट्रंप का इशारा शायद पश्चिमी शिनजियांग प्रांत के लोप नूर स्थित चीन के परमाणु परीक्षण की ओर था.

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बगराम से 1000 किलोमीटर के दायरे में कोई पक्का परमाणु ठिकाना नहीं है. लेकिन काशगर (चीन) में एक परमाणु साइट होने का शक है, जो बगराम से करीब 700 किलोमीटर दूर है. हालांकि, अमेरिकी अधिकारियों ने साफतौर पर कहा है कि बगराम को वापस लेने की उनकी कोई योजना नहीं है. एक अधिकारी ने तो ये तक कहा कि उन्हें नहीं लगता कि यह हकीकत में संभव भी है.

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अमेरिका के छोड़ने के बाद बगराम एयरबेस खंडहर हो गया है (India Today)
क्या मुश्किल है?

अमेरिका अगर इस बेस को हासिल भी कर लेता है तो इसे इस्लामिक स्टेट और अल कायदा जैसे आतंकियों से सुरक्षित रखना बहुत बड़ी चुनौती होगी. इसके लिए हजारों सैनिकों की जरूरत पड़ेगी. इतना ही नहीं, बेस की मरम्मत पर भारी खर्च आएगा. अफगानिस्तान लैंडलॉक्ड देश है, इसलिए वहां तक सप्लाई पहुंचाना भी बेहद कठिन काम होगा. बेस का बड़ा इलाका सुरक्षित करना पड़ेगा ताकि बाहर से रॉकेट हमले न हो सकें. 

रिपोर्ट में एक पूर्व अमेरिकी रक्षा अधिकारी ने भी माना कि चीन के नजदीक होने के बावजूद इस बेस को लेने से कोई खास फायदा नहीं है बल्कि जोखिम ही ज्यादा है.

प्रोफेसर राघव शर्मा के मुताबिक, अमेरिका के लिए बगराम में वापसी आसान इसलिए नहीं है, क्योंकि ईरान, चीन और रूस जैसे क्षेत्रीय खिलाड़ी (Regional Players) नहीं चाहते कि अफगानिस्तान में अमेरिका का सैन्य ठिकाना फिर से बने. साल 2001 में हुए 9/11 आतंकी हमले के बाद ‘वॉर ऑन टेरर’ के तहत जब अमेरिका ने तालिबान की हुकूमत को गिराया, उस समय रूस और ईरान ने भी इसका समर्थन किया था. लेकिन उसके बाद से हालात बदल गए हैं. अमेरिका का रवैया भी इन देशों से टकराव वाला हो गया. ऐसे में वो कभी नहीं चाहेंगे कि अमेरिका वापस आए और उसका इस इलाके में दबदबा बने.

तालिबान का जवाब

हालांकि, तालिबान सरकार ने साफ कह दिया है कि वह अमेरिका को बगराम एयरबेस कभी नहीं सौंपेगी. अफगान विदेश मंत्रालय के अधिकारी जाकिर जलीली ने सोशल मीडिया पर लिखा कि अफगानिस्तान और अमेरिका आपसी सम्मान और साझा हितों के आधार पर आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते बना सकते हैं, लेकिन अमेरिका को अफगानिस्तान में किसी भी तरह का सैन्य ठिकाना नहीं मिलेगा.

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तालिबान बगराम को किसी को नहीं सौंपेगा (India Today)

इसके पीछे बड़ी वजह है कि बगराम अफगानिस्तान और तालिबान के लिए अमेरिकी शोषण का प्रतीक बन गया है. उसके लिए यह विचारधारा का सवाल भी है. राघव शर्मा का कहना है कि ये वो जगह है, जहां तालिबान के बड़े नेता कैद थे. 20 साल तक इसे हासिल करने के लिए उन्होंने ‘जिहाद’ किया. ऐसे में वो अमेरिका को फिर से यहां क्यों आने देंगे? वह अपने सोल्जर्स को कैसे समझाएंगे कि अमेरिका का यहां आना क्यों लाजमी है? तालिबान सरकार के लिए ये सिर्फ सैन्य ठिकाना नहीं है, बल्कि अमेरिकी कब्जे और जंग का प्रतीक भी है.

इसके अलावा तालिबान सरकार की मुस्लिम पहचान पर भी इस्लामिक स्टेट-खुरासान जैसे संगठन सवाल उठाते हैं. वो कहते हैं कि तालिबान मुसलमान नहीं हैं क्योंकि वो काफिरों यानी अमेरिका जैसी शक्तियों के साथ समझौते कर रहे हैं. ऐसे में तालिबान सरकार के लिए अपने सैनिकों को कन्विन्स कर पाना ही मुश्किल हो जाएगा कि हम बगराम अमेरिका को क्यों सौंप दें?

क्या यहां चीन का प्रभाव बढ़ रहा है?

अब ‘अमेरिका के डर’ पर भी बात कर लेते हैं कि चीन यहां अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है या नहीं? प्रोफेसर शर्मा कहते हैं, “हम ये भूल जाते हैं कि तालिबान से चीन का संबंध आज से अच्छा नहीं है. 90 के दशक से चीन का तालिबान से बढ़िया संबंध है. लेकिन इन संबंधों में अब बड़ा अंतर आया है. 90 के दशक में चीन पाकिस्तान के जरिए अफगानिस्तान के पास जाता था. लेकिन अब चीन कहता है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच का विवाद वो सुलझाएगा.”

यानी पहले जहां अफगानिस्तान से संबंधों में वह पाकिस्तान पर आश्रित था. वहीं, अब डायरेक्ट तालिबान सरकार से संपर्क स्थापित करता है. उसने तालिबान सरकार के साथ दूतावास स्तर पर संबंध बहाल किए हैं. आर्थिक निवेश की घोषणाएं की हैं. अफगानिस्तान से वैश्विक प्रतिबंधों को हटाने की वकालत की है. वह पहला बड़ा मुल्क था जिसने तालिबान का एंबेसडर बीजिंग में स्वीकार किया था.

ऐसे में ये कहें कि चीन का वहां प्रभाव बढ़ा है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. राघव शर्मा का कहना है कि अफगानिस्तान में चीन का दबदबा बढ़ना भारत के लिए भी चिंता की बात है.

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अफगानिस्तान में बढ़ रही चीन की मौजूदगी (India Today)

शर्मा के मुताबिक, “बीच में ऐसी खबरें आई थीं कि ईरान और चीन अलकायदा और तालिबान के कुछ फोर्सेज को ट्रेन कर रहे हैं. लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है, कह पाना मुश्किल है. अफगानिस्तान में मीडिया हाउसेज बंद हो गए हैं. वहां से सूचना का फ्लो ठीक नहीं है. अभी जो सूचना मिलती है वो पैची यानी अस्पष्ट है. वहां इन्फॉर्मेशन ब्लैक होल है. सूचनाओं के लिए सरकारी सूत्रों या सोशल मीडिया पर निर्भर रहना पड़ता है. इसलिए ऐसी बातें अभी अफवाह ही लगती हैं.”

मौजूदा हालात में चीन या ईरान के लिए यह संभव है कि वे तालिबान को कुछ सहायता या ट्रेनिंग दें, लेकिन तालिबान बगराम एयरबेस आधिकारिक रूप से उन्हें सौंप देना, ये असंभव बात है.

ये बात एकदम साफ है कि फिलहाल किसी विदेशी ताकत को तालिबान बगराम नहीं देगा.

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