खूबसूरत मेघालय में इस वक्त कांग्रेस की सरकार है. 64 किलोमीटर स्क्वॉयर में फैला दिलकश शिलॉन्ग इसकी राजधानी है. मुकुल संगमा मुख्यमंत्री हैं. आज का मेघालय 1971 में असम से अलग होकर अलग राज्य बना था. लेकिन यहां हम बात कर रहे हैं उस किस्से की, जब एक अनपढ़ 62 साल की महिला ने ये दावा किया कि शिलॉन्ग शहर की करीब 100 एकड़ में फैली जमीन उसकी है. इस जमीन पर केंद्र सरकार के ज्यादातर दफ्तर बने हुए थे.
खासी कबीले की मुखिया स्मींति नोग्घला ने दिसंबर 1986 में दावा किया कि वो 200 से ज्यादा परिवारों की जमीन की अकेली वारिस हैं. स्मींति नोग्घला ने राज्य सरकार के खिलाफ इस बाबत केस दायर कर कहा कि सरकार 100 साल पुराने उस समझौते का पालन नहीं कर रही है, जिसके तहत ये जमीन सरकार को दी गई थी.
स्मींति के इस केस में जब राज्य सरकार के पास नोटिस गया, तो अधिकारियों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन जब दूसरा नोटिस पहुंचा तो वे सतर्क हो गए. स्मीति ने अपने पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि जमीन हमारे कुनबे की है, हम सदियों तक यहीं रहे. जब अंग्रेज आए तो बंदूक के जोर पर हमें बेदखल करना चाहते थे. तब अंग्रेजों ने कहा कि हम ये जमीन उन्हें किराए पर दे दें, जब वो जाएंगे तो ये जमीन हमें लौटा देंगे. हमारे पास कोई ऑप्शन नहीं था, इसलिए हमें इस फैसले को मानना पड़ा.
क्या था दावा?
उस दौर में एक लेफ्टिनेंट कर्नल हाउटन हुए. उन्हें शिलांग की ये जमीन चाहिए थी. उन्होंने ऊ-बेह नोग्घला रगी, डारे सिंग और बारेजान मित्री नाम के तीन लोगों से बात की. पर इस तीनों ने जमीन बेचने से इंकार कर दिया. लेकिन अंग्रेज कहां मानने वाले थे. दो साल के वक्त में जमीन अंग्रेजों के कब्जे में आ गई. स्मींति नोग्घला रगी ऊ-बेह की वंशज थीं. हालांकि ऊ-बेह और कर्नल हाउटन के बीच के समझौते में बातें स्पष्ट नहीं थीं.
ऊ-बेह ने जमीन बेची या गिफ्ट में देने के लिए राजी हुए. समझौते में अधिकार दूसरे पक्ष के सौंपने और हर साल पहली जनवरी को रकम दिए जाने की बात थी. स्मींति के वकील ने इसे आधार बनाते हुए केस को भारतीय किराएदारी और पट्टे का करारनामा बताया. खासी कानून 'खाटदूह' के मुताबिक, छोटी बेटी के नाम से ही परिवार की संपत्ति रहती है. इसलिए स्मींति नोग्घला ने अपना हक लेने के लिए केस दायर किया.
किराया न मिलने से हुआ विवाद
1976 तक स्मींति की मां जिनसूर को किराया मिलता रहा. लेकिन राज्य सरकार के अफसरों की चूक से किराया देना बंद कर दिया गया. जिसे कानूनी समझौते का एकतरफा उल्लंघन माना गया, जिसके चलते 1863 का समझौता टूट गया. जिसके बाद इसकी वैधानिकता न रह जाने की बात कही गई.
10 साल से किराया अदा न किए जाने को केस का आधार बनाया गया था. सरकार ने उस दौर में ये दलील दी कि शिलांग के ऊपर दो लोग अपना दावा बताते हैं. जब तक असली वारिस का पता नहीं चलता, तब तक भुगतान करना सही नहीं होगा. नोग्घला परिवार ने इसे केस अटकाए रखने के बहाने के तौर पर देखा.