इन कवियों को शाबाशी. रिंग टोन के लिए नहीं लिखा, दिल जिगर जान से परे जाकर छंद रचने के लिए लिखा. एक आदमी, जो आखिर में आएगा, उसे शुक्रिया. क्योंकि वो गुलजार है.
2 जनवरी 2016 (Updated: 2 जनवरी 2016, 03:07 PM IST) कॉमेंट्स
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कविता तीन तरह की होती है. एक जो सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है. जिसे लोगों तक फिल्में पहुंचाती हैं. उनके मिसरे के मिसरे जुबान पर चढ़ जाते हैं. गुनगुनाहट के बीच ये भी ध्यान नहीं रहता कि अरे हमने तो एक कविता याद कर ली. या उसके कुछ छंद हमारे दिमागी दंद फंद का हिस्सा बन गए. दुनिया इन्हें फिल्मी गाने कहती है. खासतौर पर साहित्य के कुछ चौधरी ऐसा कह और राम राम कर शुद्ध होते हुए आगे बढ़ जाते हैं.
मैं इन्हें जनवादी कविता कहता हूं. क्योंकि ये जन-जन तक पहुंचती हैं. उनकी जिंदगी, उनके व्यवहार, उनकी दुनिया का बिना शोर मचाए हिस्सा बन जाती हैं.
दूसरी कविता वह होती है, जिसे कवि कवियों के लिए रचते हैं. इन्हें कवि पढ़ते हैं. कवियों के बीच इनकी चर्चा करते हैं. फिर कुछ कवियों की कमेटी बनती है. कवि उनकी प्रशस्ति गाता है. कवि को कवि सम्मानित करते हैं. कुछ कविप्रिय जन, तन मन से पहुंचते हैं. बिना धन खर्च किए कविता उपरांत भोज लाभ ले लौटते हैं. फिर कविता रचते हैं. ताकि वह भी कवियों की जमात में शामिल हो सकें.
इन कवियों की कविताओं तक मेरी पहुंच नहीं है. मैं अभागा हूं. जैसा भी हूं. हूं. ऐसे ही ठीक हूं. ठस भी चाहिए दुनिया के लिए.
एक और कविता होती है. जो पहली की तरह फिल्मों में नहीं आती. या आती है तो अपना वक्त लेकर. मसलन, ‘तू किसी रेल सी गुजरती है’ या फिर ‘चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले.’ कहीं सिर्फ मिसरा होता है. तो कहीं पूरी की पूरी गजल.
जाहिर है कि ये कविताएं सिर्फ कवियों के सम्मेलन के लिए नहीं लिखी जातीं. इस कविता को लिखने वाले खुरदुरी उंगलियों से बस लिख देते हैं. और वो ऐसा हजारों बरस से कर रहे हैं. शुरुआत जीवेम शरदः शतम से हुई. और सिलसिला सिली सा ये जारी ही रहेगा.
इसमें होता है. कभी चुप्पा सा शोर. कभी शोर से भी तीखी चुप्पी. ये मलंग लिख देते हैं और वक्त अपने दरिया में उनके दस्ते ले आगे बढ़ जाता है. कहीं कहीं कागज लगते हैं. लोगों की दिमाग पट्टी पर इमला उकर आती है. मसलन, माशूका को लुभाने के लिए ये कह देना कि ‘तुम्हारे हाथ में अपने हाथ को लेकर मैंने जाना. दुनिया को भी इतना ही गर्म और मुलायम होना चाहिए.’ या फिर बेशरमाई को ये लिहाफ पहनाना कि ‘आस उस दर से टूटती ही नहीं, जाके देखा, न जाके देख लिया’. बिना जाने कि केदार नाथ सिंह या फैज अहमद फैज साहब का कलाम है ये.
और हर दूसरे उर्दू से दिखते शेर को गालिब का कह चेप देना. गोया गालिब कोई गद्दी हो. जिस पर कोई भी बैठ पाद देगा और हवा में दीवान लिख जाएगा.
इन कवियों तक पहुंचने का कोई तरीका नहीं होता. ये हमें मिल जाते हैं. कुछ कोशिश, कुछ किस्मत. फिलहाल हम किसी नए गालिब तक नहीं पहुंचे हैं. केदार भी होंगे ही और. पर नरमाहट दूसरे और पहले के बीच कहीं फंसी है.
सो आज हम पहली कविता से काम चलाते हैं. जनवादी कविता. करोड़ों की जिंदगी का हिस्सा बनती. आज हम आपको एक बरस की सबसे शानदार 10 कविताएं पढ़वाते हैं. हमने जान बूझकर फिल्मों के नाम नहीं लिखे. बस टाइटल है और है कवि. पढ़िए. सुना तो होगा ही. मगर सुनने से अलगाकर सिर्फ पढ़ना भी अलग ही एहसास देगा. ऐसा मेरा भरोसा है.
इन कवियों को शाबाशी. रिंग टोन के लिए लिखने के चलन के बीच दिल जिगर जान से परे जाकर छंद रचने के लिए. एक आदमी, जो आखिर में आएगा, उसे शुक्रिया. क्योंकि वो गुलजार है. बूढ़ा सफेद वानर. हिमालय की किसी सबसे ऊंची डाल से, जंगल को फिर फिर हरा होता देखता.
1
ओ साथी मेरे कवि: राजशेखर
ओ साथी मेरे
हाथों में तेरे
हाथों की अब गिरहा दी ऐसे
कि टूटे ये कभी न
चलना कहीं
सपनों के गांव रे
छूटे न फिर भी
धरती से पांव रे
आग और पानी से फिर
लिख दे वो वादे सारे
साथ ही में रोएं हंसे
संग धूप छांव रे
हम जो बिखरे कभी
तुम से जो उधड़े कहीं
बुन लेना फिर से हर धागा
हम तो अधूरे यहां
तुम भी मगर पूरे कहां
कर लें अधूरेपन को हम आधा
जो भी हमारा हो
मीठा हो या खारा हो
आओ न कर लें
हम सब साझा
ओ साथी मेरे
2
प्यार पर एक कविता, जिसका शीर्षक नहीं पता कवि: वरुण ग्रोवर
तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
(ये दो पंक्तियां दुष्यंत कुमार की हैं, और इसके बाद जो पढ़ेंगे वो वरुण की अपनी)
तू भले रत्ती भर ना सुनती है
मैं तेरा नाम बुदबुदाता हूं
किसी लंबे सफर की रातों में
तुझे अलाव सा जलाता हूं
काठ के ताले हैं,
आंख पे डाले हैं
उनमें इशारों की चाबियां लगा
रात जो बाकी है,
शाम से ताकी है
नीयत में थोड़ी खराबियां लगा
मैं हूं पानी के बुलबुले जैसा
तुझे सोचूं तो फूट जाता हूं
3
मोह के धागे कवि: वरुण ग्रोवर
ये मोह-मोह के धागे
तेरी उंगलियों से जा उलझे
कोई टोह-टोह ना लागे
किस तरह गिरह ये सुलझे
है रोम-रोम एक तारा
जो बादलों में से गुज़रे
तू होगा जरा पागल
तूने मुझको है चुना
कैसे तूने अनकहा,
तूने अनकहा सब सुना
तू दिन सा है मैं रात,
आना दोनों मिल जाएं
शामों की तरह
के तेरी झूठी बातें
मैं सारी मान लूँ
आँखों से तेरे सच सभी
सब कुछ अभी जान लूँ
तेज है धारा
बहते से हम
आवारा आ थम के
साँसे ले यहाँ
ये मोह-मोह के धागे
तेरी उंगलियों से जा उलझे
4
गर तुम साथ हो कवि: इरशाद कामिल
पल भर ठहर जाओ
दिल ये संभल जाए
कैसे तुम्हें रोका करूं
मेरी तरफ आता
हर ग़म फिसल जाए
आँखों में तुम को भरूं
बिन बोले बातें तुमसे करूँ
गर तुम साथ हो
अगर तुम साथ हो
तेरी नज़रों में हैं तेरे सपने
तेरे सपनों में है नाराज़ी
मुझे लगता है के बातें दिल की
होती लफ़्ज़ों की धोखेबाज़ी
तुम साथ हो
या ना हो
क्या फर्क है
बेदर्द थी
ज़िन्दगी
बेदर्द है
गर तुम साथ हो
अगर तुम साथ हो
पलकें झपकते दी दिन ये निकल जाए
बैठी बैठी भागी फिरूँ
मेरी तरफ आता हर ग़म फिसल जाए
आँखों एमीन तुम को भरूं
बिन बोले बातें तुमसे करूँ
गर तुम साथ हो
अगर तुम साथ हो
5
माटी का पलंग कवि: नीरज राजावत
माटी के ख्वाब सारे
माटी के अंग
पानी के संग बहे
जीवन के रंग
माया है जीत सारी माया
है ये जंग
आखिरी मंजिल सभी की
माटी का पलंग
सांसों की पलकें
संभल के पटरी से उतर जाएं
नब्जों के गलियारे
टुकड़ों में बिखरे सारे
माटी का मकान तो है कच्चा सा
धूल में मिलेगा कतरा कतरा
इतराए काहे राही तू, कैसा घमंड
रीते काया, ढलती छाया, ऐसा नियम
जाते हुए थी कोई कटी पतंग
आखिरी मंजिल सभी की
माटी का पलंग
6
बचपन भी था साला कविः स्वानंद किरकिरे
दूध की मूछों वाला
मूत के पेचों वाला
फुंसी खरोचों वाला
बचपन भी था साला
न यादों के चक्कर थे
न सपनों के मच्छर थे
हम ही थे अपने शहंशाह
खुद अपने अफसर थे
एक तू था थोड़ा टेढ़ा
एक मैं भी थोड़ा मेढ़ा
और एक था वक्त कबूतर
जो खिड़की पे न ठहरा
चोर पुलिस वाला
बचपन भी था साला
तुझ जैसा बनना चाहा
तुझे जेब में रखना चाहा
तूने दूर से ठेंगा दिखाया
कभी हाथ न मेरे आया
मैं रोया मैं चिल्लाया
तू हाथ न मेरे आया
मैंने साजिश फिर कर डाली
उंगली पिस्तौल बना ली
कानी आंख से एम (aim) लगा के
धम से गोली चला दी
और तू टपका, धूल से चिपका
रोक ली सांसें, बज गयी ताली
वो खेल बे ओ साले
सब झूठ था बे ओ साले
बाजी छोड़ के जाने वाले
ये बेईमानी है
ये बेईमानी है ओ साले
7
आम हिंदुस्तानी कवि: अमिताभ भट्टाचार्य
धोबी का कुत्ता
जैसा घाट का न घर का
पूरी तरह न इधर का, न उधर का
सुन ले निखट्टू तेरा वोही तो हाल है
जिंदगी की रेस में जो मुंह उठा के दौड़ा
जिंदगी ने मारी लाट पीछे छोड़ा
तू है वो टट्टू
गधे सी जिसकी चाल है
प्यार में ठेंगा
बार में ठेंगा
इनकी बोतल भी गोरों की गुलाम है
रूठी है महबूबा
रूठी रूठी शराब है
हे आम हिंदुस्तानी
तेरी किस्मत खराब है
आसामान से तू यूं गिरा
खजूर पे टू अटका
तेरे हालात ने उठा के तुझको पटका
की ऐसी चंपी कि तेरे होश उड़ गए
बेवफाई देख के जो आई तुझको हिचकी
चौड़ी छाती तेरी चुटकियों में पिचकी
गम की बत्ती मुआह, मिली तो बाल झड़ गए
आदमी नहीं तू समझ खुद को मछली
उलटी गंगा में है तैरने की खुजली
पर ये हुकूमत जो है मगरमच्छ है
लालच ने तुझको ऐसी पट्टी पढ़ाई
ख्वाहिश ने ली है देगची कढ़ाई
तकदीर तेरी अभी भी चम्मच में है
हे आम हिंदुस्तानी
तेरी किस्मत खराब है
8
हमारी अधूरी कहानी कवियत्री: रश्मि विराग
पास आए
दूरियां फिर भी कम न हुईं
एक अधूरी सी हमारी कहानी रही
आसमान को जमीन, ये जरूरी नहीं
जा मिले, जा मिले
इश्क सच्चा वही
जिसको मिलती नहीं मंजिलें
रंग थे, नूर था
जब करीब तू था
एक जन्नत सा था, ये जहां
वक्त की रेत पे
कुछ मेरे नाम सा
लिख के छोड़ गया तू कहां
हमारी अधूरी कहानी
खूशबुओं से तेरी यूं ही टकरा गया
चलते चलते देखो न हम कहां आ गए
जानते अगर यहीं
तू दिखे क्यों नहीं
चांद सूरज सभी हैं यहां
इंतजार तेरा सदियों से कर रहा
प्यारी बैठी है कब से यहां
हमारी अधूरी कहानी
प्यास का ये सफर खतम हो जाएगा
कुछ अधूरा सा जो था पूरा हो जाएगा
झुग गया आसमान
मिल गए दो जहान
हर तरफ हैं मिलन का समां
डोलियां हैं सजी
खुशबुएं हर कहीं
पढ़ने आया खुदा खुद यहां
हमारी अधूरी कहानी
9
प्यार हो गया कोई शक कविः प्रसून जोशी
प्यार हो गया कोई शक
आई एम इन लव इन शक
कोई कुछ भी बोले
पंख मैंने खोले
कोई शक
पी के टुन्न है हवा
या रुमझुम है हवा
मैंने मौसम पिया
पूरा-पूरा जिया है
कोई शक
धड़कन बड़ी सांसें चढ़ीं
या जिंदगी तुसाकूते- तुसाकूते (तुम्हारी आंखें में)
धीमा धीमा ख्वाब
उड़ा कोई सातों रंग
तुसाकुते तुसाकूते
नया नया लगता सारा जहां
तेरे संग
मेरी नदी में लचक
कहने में कैसी हिचक
मैं खुलके कहूं
आज चुप न रहूं
कोई शक
प्यार में औकात चाहिए
नॉन स्टॉप बरसात चाहिए
खुद को यूं भिगोना
भीगे कोना कोना बरस
नीला गगन बादल सा मन
बरसूंगा मैं तुसाकूते तुसाकुते
धीमा धीमा ख्वाब उड़ा
कोई सातों रंग
नया नया लगता
सारा जहां
तेरे संग
तुसाकूते
10
लगता है वो जिंदा है कवि: गुलजार
जाने बुझी आंखों की
जालेदार पलकों में
ख्वाब जब सरकते हैं
लगता है वो जिंदा है
शाम की उदासी में
एक दिया जलता है
रौशनी जो होती है
लगता है वो जिंदा है
छू भी लो, वो जिंदा है
छू के देखो, जिंदा है
कुछ देर की एक नींद है
सोयी नहीं, जाग रही है
एक ख्वाब तो खोया कहीं
एक ख्वाब वो मांग रही है
आंख से चाहो तो
आज भी छू लो उसे,
वो जिंदा है
भूलती दलीलों में
कागजों की स्याही में
हर नयी गवाही में
लगता है वो जिंदा है
पास जा के देखो तो
थोड़ा थोड़ा चेहरा वो
आईने में बाकी है
लगता है वो जिंदा है
छू भी लो, वो जिंदा है
छू के देखो, जिंदा है