चुनाव लड़ रही बहू के लिए ससुर अमेरिका से गांव लौटे, एक ही वोट के अंतर से जीती सरपंची!
तेलंगाना के निर्मल जिले में बागापुर की ग्राम पंचायत के चुनाव के नतीजों ने पूरे गांव को चौंका दिया. दो प्रत्याशियों में कांटे की टक्कर थी. जब नतीजा आया तो हर कोई हैरान था.

कहते हैं कि ‘बूंद-बूंद से सागर बनता है’ और समंदर के हर बूंद की अपनी कीमत होती है. महल की हर एक ईंट की अहमियत है. हर ईंट के पास अपने घर को थामे रहने की विराट जिम्मेदारी है. ऐसे ही लोकतंत्र भी अगर एक महल है और जनता इसकी ईंट तो इस ‘एक ईंट’ की कीमत क्या होती है, इसका जवाब तेलंगाना के निर्मल जिले के एक छोटे से गांव बागापुर ने दे दिया है.
इंडिया टुडे से जुड़े अब्दुल बशीर की रिपोर्ट के अनुसार, ये कहानी मुत्याला श्रीवेधा की है, जो लोकश्वरम मंडल की बागापुर ग्राम पंचायत में सरपंच पद की प्रत्याशी थीं. मुकाबला आसान नहीं था. सामने हर्षस्वाती नाम की जो प्रतिद्वंदी थीं, उनसे कांटे की टक्कर थी. मामला ‘अब इधर-तब उधर होने' वाला था. जैसे बैडमिंटन खेल रहे हों और सिर्फ एक पॉइंट पर फैसला हो जाना हो. शटल कभी इधर. कभी उधर. अब गिरा कि तब गिरा. जैसे ही गिरा कि खेल खत्म. बागापुर में सरपंच के ऐसे ही बारीक मुकाबले का जब नतीजा आया तो पूरा गांव सन्न रह गया. श्रीवेधा चुनाव जीत गईं, सिर्फ एक वोट से! हर्षस्वाती से उनकी जीत का फासला सिर्फ एक वोट का था.
बागापुर गांव की ये घटना सिर्फ एक चुनावी खबर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में मतदान की उस खास ताकत का दिलचस्प उदाहरण है, जिसे हम अक्सर 'एक वोट' कहकर ‘इग्नोर’ कर देते हैं. इस चुनाव में श्रीवेधा को 189 वोट मिले जबकि उनकी प्रतिद्वंदी हर्षस्वाती को मिले 188 वोट. गणित की भाषा में 'एक' महज अंक है, लेकिन लोकतंत्र की भाषा में यह हार और जीत के बीच खिंची वो लक्ष्मण रेखा है, जिसे पार करने में अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं.
वाजपेयी की गिर गई थी सरकारयाद कीजिए अप्रैल 1999 का वो दिन. अपने राजनीतिक आदर्शों में ‘जोड़तोड़ की सरकार को चिमटे से भी न छूने’ की वकालत करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के सामने इसी 'एक' वोट की चुनौती थी. यह एक वोट मिल जाता तो उन्हें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे शक्तिशाली पद नहीं छोड़ना पड़ता. वह प्रधानमंत्री बने रहते अगर विश्वासमत की वोटिंग वाले स्कोरबोर्ड पर उनकी सरकार के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत न पड़े होते. एक वोट ने उनकी सरकार गिरा दी थी.
तब वाजपेयी ने भी सोचा होगा कि एक वोट... क्या सिर्फ एक वोट ने उनकी सरकार का फैसला कर दिया! जवाब था- हां.
खैर, यह तो दलीय राजनीति के गठजोड़ वाले मतदान की कहानी है. यहां एक दल को सेट करते ही कई वोट अपने आप मैनेज हो जाते हैं. मुकाबला मुश्किल होता है, जनता की सीधी अदालत में. जहां हर वोट अपने आप में एक यूनिट है. हर किसी को प्रभावित करना है. हर किसी को कन्विन्स करना है कि उसे ही वोट क्यों दिया जाए. श्रीवेधा की कहानी में यही चुनौती है.
एक ही गांव के दो प्रत्याशी. गांव में कुल 426 पंजीकृत वोटर थे. इनमें से 378 लोगों ने मतदान किया. श्रीवेधा को 189 वोट मिले. जबकि उनकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी हर्षस्वाती (Harshaswathi) को 188 वोट मिले. एक वोट इनवैलिड हो गया. सोचिए कितना करीबी मुकाबला था. लेकिन, ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती.
सात समंदर पार से आया 'वो' एक वोटश्रीवेधा जिस एक वोट से जीतीं और जिसने कहानी को इतना दिलचस्प मोड़ दिया, उसका तो अलग ही किस्सा है. श्रीवेधा को मिला ये स्पेशल वोट और किसी का नहीं उनके ससुर मुट्याला इंद्रकरण रेड्डी का था. एक वोट जिसने नतीजा ही बदल दिया. नहीं तो मैच ड्रॉ ही हो जाता. इसमें भी रोचक बात ये है कि इस एक वोट के लिए रेड्डी सात समंदर पार से गांव चले आए थे. चुनाव से पहले तक वो अमेरिका में थे. चाहते तो बहू को फोन पर शुभकामनाएं दे देते. लेकिन तब वो लोकतंत्र के इस ‘जादू’ का हिस्सा कैसे बनते? वह अमेरिका से खासतौर पर बहू को वोट देने के लिए गांव आए.
अक्सर लोग चाय की टपरी पर बैठकर कहते हैं, ‘मेरे एक वोट से क्या बदल जाएगा?’ बागापुर का यह नतीजा उनको जवाब है कि आपके एक वोट से परिणाम बदल जाएगा. ये उनको जवाब है कि नीली स्याही लगी हर उंगली में नतीजा बदलने की ताकत होती है. सरकार भी. इस नतीजे से कम से कम गांव की सरकार तो बदलने का सबूत अपने पास है.
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