SC ने बेल दी तब भी जेल अधिकारियों ने कैदी को रिहा नहीं किया, कोर्ट ने कायदा सिखा दिया
जेल अधिकारियों ने आरोपी की रिहाई में इसलिए एक महीने की देरी लगा दी क्योंकि उसके रिहाई आदेश में एक वैधानिक प्रावधान की एक उपधारा (Sub Clause) का जिक्र नहीं किया गया था, जबकि सारे जरूरी डिटेल्स उपलब्ध थे.

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के जेल अधिकारियों (Jail Authorities) को फटकार लगाई है. मामला धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत जेल में बंद एक आरोपी की रिहाई से जुड़ा है. शीर्ष अदालत के स्पष्ट जमानत आदेश के बावजूद अधिकारियों ने एक मामूली तकनीकी खामी के आधार पर कैदी की रिहाई में लगभग महीने भर की देरी कर दी. कोर्ट ने इसे बेहद ‘दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण’ करार दिया है.
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने जमानत मिलने के बाद भी लगभग एक महीने तक विचाराधीन कैदी को सलाखों के पीछे रहने पर अफसोस जताया. बेंच ने अपनी टिप्पणी में कहा,
यह बेहद दुखद है कि देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा जमानत दिए जाने के बावजूद विचाराधीन आरोपी को एक बहुत ही मामूली तकनीकी खामी के आधार पर जेल में रहना पड़ा.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जेल अधिकारियों ने आरोपी की रिहाई में इसलिए एक महीने की देरी लगा दी क्योंकि उसके रिहाई आदेश में एक वैधानिक प्रावधान की एक उपधारा (Sub Clause) का जिक्र नहीं किया गया था, जबकि सारे जरूरी डिटेल्स उपलब्ध थे.
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश जेल नियमावली, 2022 की धारा ‘92 ए’ का हवाला देते हुए 'इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के त्वरित और सुरक्षित प्रसारण' (FASTER) सिस्टम के तहत दिए गए आदेशों के पालन करने की बाध्यता पर जोर दिया. इस प्रावधान के तहत सुप्रीम कोर्ट के FASTER सिस्टम से दिए जाने वाले सभी आदेशों को डिजिटली प्रमाणित माना जाएगा. और रिहाई में होने वाले देरी को रोकने के लिए सभी जेल अधिकारियों के लिए इसका पालन करना अनिवार्य है.
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि यदि अधिकारियों ने जेल नियमावली की धारा 92 ए पर ध्यान दिया होता, तो शायद इस स्थिति से बचा जा सकता था. कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के जेल महानिदेशक को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि जेल अधिकारी भविष्य में इसको लेकर सतर्क रहें.
इस मामले में आरोपी पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 366 (किडनैपिंग) और उत्तर प्रदेश गैर कानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021 की धारा 3 और 5 के तहत आरोप लगाए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 29 अप्रैल, 2025 को उसे जमानत दे दी थी. कोर्ट ने उसे निचली अदालत द्वारा तय की जाने वाली शर्तों पर रिहा करने का आदेश दिया था.
इसके बाद गाजियाबाद के एक एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज ने 27 मई, 2025 को रिहाई आदेश जारी किया. लेकिन जेल अधिकारियों ने आरोपी को रिहा करने से इनकार कर दिया. उन्होंने बताया कि रिहाई के आदेश में धर्मांतरण विरोधी कानून, 2021 की धारा 5 की उपधारा 1 का विशेष तौर पर जिक्र नहीं था. उनकी आपत्ति के बाद जेलर ने सुधार आवेदन दायर किया. आवेदन पेंडिंग रहने के चलते आरोपी जेल में बंद रहा.
रिपोर्ट के मुताबिक जेल अधिकारियों के इस रवैये को सुप्रीम कोर्ट ने 'न्याय का मजाक' करार दिया. कोर्ट ने कहा कि आरोपी की पहचान, क्राइम नंबर, पुलिस स्टेशन या अपराध की प्रकृति के बारे में कोई कंफ्यूजन नहीं था, इसके बावजूद कैदी को स्वतंत्रता से वंचित रखना कर्तव्यों की गंभीर अवहेलना है.
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