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‘नाटी चिकन’ की कहानी: कैसे कर्नाटक की सियासत में एक देसी स्वाद अचानक इतना मशहूर हो गया

Siddaramaiah कर्नाटक के सबसे लंबे समय तक रहने वाले सीएम ‘D. Devaraj Urs’ का रिकॉर्ड तोड़ने के बेहद करीब हैं. इस मौके पर 'नाटी चिकन पार्टी' की व्यवस्था की जा रही है.

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Siddaramaiah break record of Karnataka's longest CM Devaraj Urs Natti chicken party
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया. (फाइल फोटो: इंडिया टुडे)
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अर्पित कटियार
31 दिसंबर 2025 (Updated: 31 दिसंबर 2025, 02:29 PM IST)
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करीब एक साल पहले की बात है. सिद्धारमैया ने एक कन्नड़ टीवी चैनल से बातचीत में कहा था कि वे कर्नाटक के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने की इच्छा रखते हैं. उनकी यह इच्छा अब कुछ दिनों में पूरी होने जा रही है. सिद्धारमैया, कर्नाटक के सबसे लंबे समय तक रहने वाले सीएम ‘डी देवराज उर्स’ का रिकॉर्ड तोड़ने के बेहद करीब हैं. इस ऐतिहासिक मौके का जश्न मनाने के लिए एक शानदार दावत की भी व्यवस्था की जा रही है.

यह खास ‘नाटी कोली ऊटा’ (देसी मुर्गे का भोजन) पार्टी 6 जनवरी को बेंगलुरु में होगी, जिसकी योजना ‘अहिंदा’ वर्ग के द्वारा बनाई जा रही है. ‘अहिंदा’ कन्नड़ भाषा का एक संक्षिप्त रूप है, जो अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जातियों और दलितों के गठबंधन का प्रतिनिधित्व करता है.

‘नाटी’ चिकन क्या है?

'नाटी' शब्द कन्नड़ भाषा से आया है, जिसका मतलब होता है 'देशी' या 'स्थानीय'. यह साउथ इंडिया खासकर कर्नाटक ये नाम बड़ा मशहूर है. 'नाटी चिकन' दरअसल कोई खास डिश नहीं, बल्कि मुर्गे की एक देसी किस्म है. कन्नड़ भाषा में नाटी का मतलब होता है देसी या गांव का. यानी 'नाटी चिकन' का सीधा सा मतलब हुआ देसी मुर्गा. ये वही मुर्गा है जो गांवों में खुला घूमता है, दाना चुगता है, कीड़े मकोड़े खाता है और धीरे धीरे बड़ा होता है.

ये फार्म में पाले जाने वाले ब्रॉयलर चिकन से बिल्कुल अलग होता है. ब्रॉयलर जहां 35 से 40 दिन में तैयार हो जाता है, वहीं 'नाटी चिकन' को बड़ा होने में 5 से 7 महीने लग जाते हैं.

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'नाटी चिकन' कर्नाटक की खास डिश (फोटो: ITG)
'नाटी चिकन' क्यों है इतना मशहूर

'नाटी चिकन' की सबसे बड़ी पहचान उसका स्वाद और मजबूती है. इसका मांस थोड़ा सख्त होता है, लेकिन स्वाद में बेहद गहरा. यही वजह है कि इसे खाने वाले कहते हैं कि इसमें असली चिकन का टेस्ट आता है.

दूसरी वजह है सेहत. 'नाटी चिकन' में फैट कम होता है, प्रोटीन ज्यादा माना जाता है. इसे बिना हार्मोन और बिना इंजेक्शन के पाला जाता है. इसलिए हेल्थ कॉन्शियस लोग और बुजुर्ग इसे ज्यादा पसंद करते हैं.

तीसरी वजह है परंपरा. कर्नाटक के गांवों में शादी, त्योहार, बच्चे का नामकरण या कोई बड़ा मौका हो, तो 'नाटी चिकन' पकना लगभग तय होता है.

'नाटी चिकन' का ज़ायका

अगर आपने सिर्फ ब्रॉयलर खाया है, तो 'नाटी चिकन' पहली बार में आपको थोड़ा सख्त लग सकता है. लेकिन जैसे ही मसाले इसके अंदर तक घुसते हैं, स्वाद पूरी तरह बदल जाता है.

'नाटी चिकन' का ग्रेवी गाढ़ा होता है. मसालों की खुशबू तेज होती है. खाने के बाद मुंह में देर तक स्वाद बना रहता है. यही वजह है कि इसे अक्सर रागी मुद्डे, अक्की रोटी या सादे चावल के साथ खाया जाता है.

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खास है 'नाटी चिकन' का ज़ायका ( (फोटो: AI/Gemini)
'नाटी चिकन' कैसे बनता है

'नाटी चिकन' बनाना धैर्य का काम है. इसे जल्दी नहीं पकाया जा सकता. पहले चिकन को अच्छे से साफ किया जाता है. फिर इसमें देसी मसाले डाले जाते हैं. जैसे सूखी लाल मिर्च, धनिया बीज, जीरा, काली मिर्च, लौंग, दालचीनी. कई जगहों पर नारियल भी डाला जाता है.

इसके बाद चिकन को धीमी आंच पर लंबे समय तक पकाया जाता है. कई बार प्रेशर कुकर का इस्तेमाल होता है, ताकि मांस नरम हो सके. गांवों में आज भी इसे लकड़ी के चूल्हे पर पकाया जाता है.

नाटी नाम क्यों पड़ा, क्या इतिहास है

नाटी शब्द कन्नड़ का है, जिसका मतलब है देसी या स्थानीय. पहले जब फार्म वाले चिकन आए नहीं थे, तब गांवों में जो भी मुर्गा होता था, वही नाटी कहलाता था.

धीरे धीरे ब्रॉयलर चिकन आया और सस्ता, जल्दी मिलने वाला विकल्प बन गया. तब देसी मुर्गे को अलग पहचान देने के लिए उसे 'नाटी चिकन' कहा जाने लगा. कर्नाटक ही नहीं, आंध्र और तमिलनाडु में भी इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है. लेकिन नाटी नाम सबसे ज्यादा चला.

'नाटी चिकन' केमशहूर आउटलेट

बेंगलुरु में 'नाटी चिकन' खाने वालों की कभी कमी नहीं रही. शहर में ऐसे कई आउटलेट हैं जो खास तौर पर 'नाटी चिकन' के लिए ही जाने जाते हैं. पुराने इलाकों में एमटीआर और विद्यारथी भवन के आसपास मौजूद देसी होटल 'नाटी चिकन' के लिए मशहूर हैं, जहां आज भी पारंपरिक तरीके से इसे पकाया जाता है. इसके अलावा नागार्जुन और मयूर जैसे बड़े और लोकप्रिय रेस्टोरेंट्स में भी 'नाटी चिकन' खास मेन्यू का हिस्सा है. शिवाजी मिलिट्री होटल का नाम तो खास तौर पर लिया जाता है, जहां 'नाटी चिकन' को बेहद देसी अंदाज में, तेज मसालों और गाढ़ी ग्रेवी के साथ परोसा जाता है. बेंगलुरु के अलावा मैसूर, मांड्या, तुमकुर और हासन जैसे शहरों में भी 'नाटी चिकन' के छोटे बड़े होटल काफी पॉपुलर हैं, जहां स्थानीय लोग और बाहर से आने वाले लोग खास तौर पर इस देसी स्वाद के लिए पहुंचते हैं.

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'नाटी चिकन' और कर्नाटक की सियासत  (फोटो: ITG)
कर्नाटक की राजनीति में 'नाटी चिकन' कैसे आया

अब आते हैं असली सवाल पर. 'नाटी चिकन' राजनीति में क्यों घुसा.कर्नाटक की राजनीति में जाति और समुदाय का बड़ा रोल है. कुछ समुदायों में 'नाटी चिकन' सिर्फ खाना नहीं, पहचान का हिस्सा है. गांव, जमीन और देसी जीवनशैली से जुड़ा हुआ.

जब भी कोई नेता खुद को जमीन से जुड़ा दिखाना चाहता है, तो वो 'नाटी चिकन' का जिक्र करता है. कभी किसी नेता ने कहा कि वो 'नाटी चिकन' खाते हैं, ब्रॉयलर नहीं. तो कभी किसी ने सरकारी भोज में 'नाटी चिकन' परोसे जाने की बात उठाई.

हाल के सालों में चुनाव प्रचार के दौरान भी नेताओं ने 'नाटी चिकन' का जिक्र कर ग्रामीण वोटरों से जुड़ने की कोशिश की. संदेश साफ होता है. हम आपके जैसे हैं, आपकी तरह खाते पीते हैं.

कब-कब सियासत में आया 'नाटी चिकन'

'नाटी चिकन' का नाम कर्नाटक की राजनीति में तब गूंजा, जब पिछले कुछ विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान नेताओं के भाषणों में खाने तक को पहचान और वर्ग से जोड़कर पेश किया जाने लगा. चुनावी रैलियों और जनसभाओं में कुछ नेताओं ने 'नाटी चिकन' को गांव, किसान और मेहनतकश तबके का भोजन बताया, और इसके मुकाबले ब्रॉयलर चिकन को शहरी, फैक्ट्री-निर्मित और मिलावटी कहकर निशाने पर लिया. कई बयानों में 'नाटी चिकन' को कर्नाटक की देसी संस्कृति और परंपरा से जोड़ा गया, यह कहकर कि यह वही खाना है जो खेतों, गांवों और पुराने घरों में पीढ़ियों से पकता आया है.

इन बयानों के बाद सोशल मीडिया पर 'नाटी चिकन' बनाम ब्रॉयलर चिकन की बहस तेज हो गई. कोई इसे शुद्ध और सेहतमंद बता रहा था, तो कोई इसे राजनीति का नया मसाला कह रहा था. देखते-देखते यह बहस खाने की प्लेट से निकलकर चुनावी मंच और सियासत के तवे पर चढ़ गई, जहां 'नाटी चिकन' स्वाद से ज्यादा पहचान और विचारधारा का प्रतीक बन गया.

कौन थे ‘डी देवराज उर्स’?

अब वापस लौटकर आते हैं कर्नाटक की मौजूदा सियासत और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर…जो बहुत जल्दी सूबे में सबसे ज्यादा समय तक रहने वाले सीएम बन जाएंगे. फिलहाल ये रिकॉर्ड डी देवराज उर्स के नाम है. उर्स अपने दो कार्यकालों में कुल 2,792 दिनों यानी लगभग 7.6 सालों तक पद पर रहे.

1973 में मैसूर राज्य का नाम बदलकर कर्नाटक रखे जाने के बाद उर्स पहले मुख्यमंत्री बने. उर्स से पहले, कर्नाटक की राजनीति में ऊंची जाति माने जाने वाले लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों का दबदबा था. ‘अरसु’ जाति से संबंध रखने वाले उर्स ने पिछड़े समुदाय से पहले मुख्यमंत्री बनकर कर्नाटक की राजनीति में एक बड़ा बदलाव किया. 

ये भी पढ़ें: सिद्धारमैया की कहानी, जिनकी राजनीति शुरू ही कांग्रेस के विरोध से हुई

1975 में इमरजेंसी को लेकर उर्स का तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मतभेद हुआ था, जिसके बाद 1979 में उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया था. पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के नेता के रूप में जाने वाले उर्स ने इन समुदायों को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियां लागू कीं. 

उर्स के बाद, पिछड़े समुदायों से कई मुख्यमंत्री उभरे, जिनमें सारेकोप्पा बंगारप्पा, एम. वीरप्पा मोइली और सिद्धारमैया शामिल हैं. सिद्धारमैया ने भी उर्स की ‘अहिंदा’ राजनीति को आगे बढ़ाया. और आज उन्हें भी अहिंदा समुदाय के हिमायती नेता के तौर पर जाना जाता है.

महज एक हफ्ते बाद, सिद्धारमैया देवराज उर्स को पीछे छोड़ते हुए कर्नाटक के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले मुख्यमंत्री बन जाएंगे.

वीडियो: नेतानगरी: सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की लड़ाई कांग्रेस को भारी तो नहीं पड़ जाएगी?

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