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पहचान छिपाकर जान बचाई, बांग्लादेश में फंसे सरोद वादक उस्ताद सिराज अली खान की आपबीती

सरोदवादक शिराज अली खान को बांग्लादेश से जान बचाकर भागना पड़ा. इस दौरान उन्हें अपनी भारतीय पहचान भी छिपानी पड़ी. शिराज ने कहा कि पहली बार उन्हें ऐसा करना पड़ा. शिराज उस्ताद अलाउद्दीन खान के परपोते हैं.

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Shiraj Ali khan
सरोदवादक शिराज अली खान को ढाका से भागते हुए भारतीय पहचान छिपानी पड़ी (india today)
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राघवेंद्र शुक्ला
22 दिसंबर 2025 (Updated: 22 दिसंबर 2025, 09:27 PM IST)
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बांग्लादेश में अराजकता का ये आलम है कि कला और कलाकार भी सुरक्षित नहीं हैं. बांग्ला संस्कृति से जुड़ी संस्था ‘छायानट’ के कार्यक्रम के सिलसिले में बांग्लादेश गए सरोद वादक उस्ताद सिराज अली खान को आनन-फानन में वहां से वापस भागकर भारत आना पड़ा. इतना ही नहीं, जान बचाने के लिए उन्हें अपनी ‘भारतीय पहचान' भी छिपानी पड़ी. भारत वापस लौटने पर उन्होंने कहा कि पहली बार ऐसा हुआ, जब उन्हें कहना पड़ा कि वह भारतीय नहीं हैं. उन्होंने बांग्लादेश की एक भाषा बोलकर अपने आपको बचाया. 

सिराज अली खान के मुताबिक, नाम में 'खान' होने ने भी उनकी मदद की. लोगों ने समझा कि वो बांग्लादेशी हैं. सिराज अली खान ने बताया कि उनके संगतकार (साथ प्रस्तुति देने वाले) अभी भी बांग्लादेश में हैं. उनकी मां भी वहीं हैं.  

क्या घटना हुई, वो जानने से पहले ये जान लीजिए कि सिराज अली खान कौन हैं?

संगीत में एक मशहूर घराना है- मैहर घराना. इस घराने के संस्थापक थे उस्ताद अलाउद्दीन खान. पूर्वी बंगाल, जो आज बांग्लादेश है, वहां 1862 में उनका जन्म हुआ था. 20वीं सदी में मैहर के राजा बृजनाथ सिंह बाबा अलाउद्दीन को बंगाल से मैहर लेकर आए थे. कहते हैं कि राजा के दरबार में रहने से ज्यादा बाबा अलाउद्दीन मां शारदा देवी के मंदिर में गाते थे. इन्हीं अलाउद्दीन खान के घराने से पंडित रविशंकर जैसा संगीत का नगीना भारत को मिला, जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को दुनिया भर में फैलाने का अभूतपूर्व काम किया.

अलाउद्दीन खान के लड़के थे अकबर अली खान. वह भी शास्त्रीय संगीत के गजब के जानकार थे. अकबर अली खान के 4 बेटों में से एक ध्यानेश खान थे, जिनके पुत्र सिराज अली खान हैं. वही सिराज अली खान जिन्हें अपने दादा-परदादाओं की जमीन बांग्लादेश से जान बचाकर भागना पड़ा है. सिराज कोलकाता में रहते हैं. उनके परदादा उस्ताद अलाउद्दीन खान बांग्लादेश के ब्राह्मणबारिया के रहने वाले थे. यहां अलाउद्दीन खान के नाम पर एक कॉलेज भी है, जिस पर भी कुछ साल पहले उपद्रवियों ने हमला किया था. 

प्रोग्राम से पहले ही वेन्यू पर आग लगा दी

‘बांग्लादेशी और भारतीयता’ की साझा पहचान रखने वाले सिराज अली खान के लिए संकट की घड़ी उस समय आई जब वो जहां प्रोग्राम करने गए थे, वहां आग लगा दी गई. वह 16 दिसंबर को छायानट के एक प्रोग्राम में हिस्सा लेने के लिए ढाका गए थे. कार्यक्रम 19 दिसंबर को होना था. इस कार्यक्रम से पहले ही उपद्रवियों ने छायानट के दफ्तर में आग लगा दी. 19 दिसंबर की सुबह सिराज हमले की जानकारी मिली.

सिराज अली खान को जिस इमारत में प्रस्तुति देनी थी, उसे जला दिया गया. इसके बाद उन्होंने ढाका से निकलने का फैसला किया. जब वो वहां से निकल रहे थे, तभी एक चेकपॉइंट पर उन्हें रोक लिया गया. टीओआई को उन्होंने बताया, 

मुझसे पूछा गया कि क्या मेरे पास विदेशी करेंसी है. सौभाग्य से मेरे पास नहीं थी. पहली बार मैंने अपनी भारतीय पहचान का उल्लेख नहीं किया. वहां भारत-विरोधी भावनाओं की जानकारी मुझे थी. इसलिए मैंने ब्राह्मणबारिया की बोली में बात की. मेरी मां ब्राह्मणबारिया की हैं जो 1968 में शादी के बाद भारत में बस गई थीं. मैंने यह बोली उन्हीं से सीखी थी.

सिराज के मुताबिक, उनका ‘खान’ उपनाम भी काम आया और लोगों को लगा कि वह बांग्लादेश से हैं. उन्होंने कहा,

मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे अपनी भारतीय पहचान छिपानी पड़ेगी. मैंने अपना भारतीय पासपोर्ट और फोन ड्राइवर को दे दिया, जिसने उन्हें कार के डैशबोर्ड में रख दिया. एयरपोर्ट पर मुझे वो वापस मिल गए. अगर मैंने अपनी पहचान नहीं छिपाई होती तो क्या होता, मैं नहीं जानता. 

उन्होंने बताया कि उनकी मां अब भी बांग्लादेश में हैं. उनके हिंदू संगतकार भी ढाका में फंसे हैं. उनकी सुरक्षा के लिए वह उनके नाम उजागर नहीं करेंगे. सिराज का कहना है कि छायानट पर हमला बांग्ला संस्कृति पर ऐसा हमला है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती. उन्होंने कहा,

मैं हमेशा अपनी जड़ों से जुड़ने, अपने परिवार के संगीत, उस्ताद अलाउद्दीन खान की विरासत और मैहर की जीवंत परंपरा को साझा करने के लिए बांग्लादेश लौटता रहा हूं. लेकिन अब जब तक कलाकारों, संगीत और सांस्कृतिक संस्थानों को संरक्षित नहीं किया जाता, तब तक बांग्लादेश वापस नहीं लौटूंगा.

क्या है छायानट?

छायानट बांग्लादेश में बांग्ला संस्कृति और पहचान का मार्गदर्शक माना जाता है. साल 1961 में जब अविभाजित पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना ने रवींद्रनाथ टैगोर की जन्म शताब्दी मनाने पर बैन लगा दिया था, तभी छायानट की स्थापना हुई थी. बांग्लादेश के द डेली स्टार न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, भीड़ ने 6 मंजिल वाले छायानाट की बिल्डिंग के लगभग हर कमरे को निशाना बनाया और कई कमरों में लूटपाट और आगजनी की. संगीत वाद्य यंत्रों और कलाकृतियों को जला दिया. पुलिस और सेना के जवान मौके पर पहुंचे, लेकिन तब तक काफी नुकसान हो चुका था. 

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