मुख्यमंत्री के बाद अब प्रदेश अध्यक्ष भी गोरखपुर से, BJP ने पंकज चौधरी को UP की कमान क्यों सौंपी?
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के ‘चौधरी’ का बस ऐलान होना बाकी है. महाराजगंज से 7 बार के लोकसभा सांसद पंकज चौधरी को यूपी भाजपा के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी मिलने जा रही है.

‘राहत रूह’ आयुर्वेदिक तेल दिमाग को एकदम ठंडा कर देता है. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जो सियासत बात-बात पर ‘गर्म’ हो जाती है. दिल्ली और लखनऊ में वक्त-बेवक्त तनाव बढ़ जाता है, उस पर 'राहत रूह से चंपी’ कराने की तैयारी हो गई है. इस तेल को बनाने वाली कंपनी के मालिक और यूपी की महाराजगंज लोकसभा सीट से 7 बार के सांसद पंकज चौधरी यूपी भाजपा के नए ‘चौधरी’ बनने वाले हैं.
नाम, नामांकन और निर्वाचन शनिवार, 13 दिसंबर को फाइनल हो गया. 14 दिसंबर यानी रविवार को ऐलान की औपचारिकता पूरी की जाएगी. क्योंकि पंकज चौधरी पार्टी की परंपरा के मुताबिक निर्विरोध प्रदेश अध्यक्ष चुने जा रहे हैं.
सियासत और संसद में जितना उनका अनुभव है. पार्टी में उनका जैसा कद है, प्रतिष्ठा है. कार्यकर्ताओं में जैसी उनकी पैठ है. आलाकमान इसी उम्मीद के साथ पंकज चौधरी को यह जिम्मेदारी दे रहा है कि भविष्य में ‘दिल्ली-लखनऊ’ की हर ‘गरमागर्मी’ को वह संभाल लेंगे. प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए शनिवार, 13 दिसंबर को जब वह नामांकन करने आए तो पार्टी ने एकजुटता भी दिखाई. सीएम योगी आदित्यनाथ, दोनों डिप्टी सीएम केशव मौर्य और बृजेश पाठक समेत भाजपा के तमाम दिग्गज नेता उनके नामांकन में शामिल हुए.

पंकज चौधरी कारोबारी हैं. आयुर्वेदिक तेल राहत रूह बनाने वाली कंपनी हरबंशराम भगवानदास के वह मालिक हैं. अपने इलाके में ऐसे प्रभावशाली हैं कि महाराजगंज जिला पंचायत में उनका ही ‘आदमी’ जीतता है. साल 1991 में पहली बार वह महाराजगंज लोकसभा सीट से सांसद बने थे. इसके बाद से वह सिर्फ 2 बार चुनाव हारे. एक बार 1999 में सपा के अखिलेश सिंह से और दूसरी बार 2009 में कांग्रेस के हर्षवर्द्धन से.
पंकज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से पहले ही संसद पहुंच गए थे. योगी 1996 से सांसद बन रहे हैं जबकि इनसे एक टर्म पहले ही 1991 में पंकज चौधरी का लोकसभा में पादार्पण हो गया था.
पंकज चौधरी रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के करीबी हैं. उत्तर प्रदेश के पूर्व भाजपा अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी को अपना राजनैतिक गुरु मानते हैं. यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह से भी उनकी नजदीकी रही. लगातार सांसद होने के बावजूद उनके प्रदर्शन के लिहाज से न तो संगठन में और न सरकार में ही उन्हें कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली. कहा जाता है कि कल्याण सिंह से नजदीकी का नुकसान उन्हें झेलना पड़ा.
मोदी सरकार में भी 2021 में पहली बार उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. उन्हें ‘कम महत्व वाला’ वित्त राज्य मंत्री बनाया गया, लेकिन पार्टी में वरिष्ठता और कद के हिसाब से राज्यमंत्री का पद उनके लिए पर्याप्त नहीं माना गया. भाजपा की राजनीति को लंबे समय से कवर करने वाले पत्रकार नवनीत मिश्रा कहते हैं,
यूपी प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद देर से ही सही लेकिन अब पंकज चौधरी को उनका खोया हुआ हक मिल रहा है.

नवनीत मिश्रा आगे कहते हैं कि पंकज चौधरी की कुछ व्यक्तिगत और कुछ सियासी विशेषताएं हैं, जिसकी वजह से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे गाढ़े वक्त में उन्हें कमान सौंपी है, जब 2024 के लोकसभा चुनाव में अयोध्या समेत पार्टी को पूर्वांचल की कई सीटें गंवानी पड़ी हैं. एक तो 7 बार के सांसद होने के बावजूद पंकज चौधरी ‘लो प्रोफाइल’ (Low profile) रहते हैं. ऐसे नेता हैं, जो कभी विवादों में नहीं रहे. पार्टी लाइन से बाहर जाकर कुछ नहीं कहते. नापतोल कर बोलते हैं और अपने काम से काम रखते हैं.
पंकज चौधरी ही क्यों?पंकज चौधरी पिछले 30 साल से भाजपा में हैं. साल 1991 में वह बीजेपी की कार्यसमिति के सदस्य बने. यूपी भाजपा में सबसे पुराने लोगों में से एक होने के नाते वह संगठन के एक-एक व्यक्ति को नाम और चेहरे से पहचानते हैं. लंबा संसदीय अनुभव भी उनके पास है. मंत्री बनने के बाद दिल्ली से भी उनका तालमेल बढ़िया रहा है. ऐसे समय में जब बार-बार दिल्ली और लखनऊ में टकराहट हो रही है, बर्तन खटक रहे हैं, तब पंकज चौधरी जैसे ‘समन्वयकारी’ नेता को यूपी में कमान सौंपना केंद्र और राज्य के बीच आई ‘संगठनात्मक दूरी’ को पाटने का काम कर सकता है. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ से उनके पुराने संबंध हैं. दोनों साथ-साथ सांसद रहे हैं. उनके भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनने से प्रदेश संगठन में तो गुटबाजी पर कम से कम लगाम लगेगी, ऐसी संभावना जताई जा रही है. वह अटल-आडवाणी के बाद मोदी-शाह के साथ भी काम करने के अनुभवी हैं.

हालांकि, पंकज चौधरी के निर्वाचन पर सवाल भी उठ रहे हैं कि उनके पास संगठन चलाने का तो कोई अनुभव नहीं है. फिर उन्हें भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की अहम जिम्मेदारी क्यों दी गई, जबकि यूपी में चुनाव को सिर्फ 2 साल बचे हैं? नवनीत मिश्रा इसका जवाब देते हैं कि चौधरी 7 बार के लोकसभा सांसद हैं. ऐसे में चुनावी राजनीति को वह कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से समझते हैं. उनके पास जनता से जुड़ने की कला है. ये सब जो अनुभव उनके पास है, वो किसी संगठनात्मक पद पर न रहने के बावजूद उनकी उम्मीदवारी को धार देता है. दूसरी बात, चौधरी मिलनसार हैं और उनके पास सबको साथ लेकर चलने की क्षमता है, जो भाजपा की आज सबसे बड़ी जरूरत है.
जातीय समीकरण में फिटलेकिन पंकज चौधरी को यूपी का कप्तान बनाए जाने की सिर्फ यही वजहें नहीं हैं. वो ऐसे वक्त में मंच पर लाए गए हैं, जब समाजवादी पार्टी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को करारा झटका दिया है. भाजपा की 'यादव माइनस ओबीसी' की जो सोशल इंजीनियरिंग बनी थी, उस पर डेंट लगा है. समाजवादी पार्टी अपने पीडीएफ फार्मूले को बहुत आक्रामक तरीके से आगे बढ़ा रही है और पार्टी को इसका तोड़ अब तक नहीं मिल पाया है. सरकार का चेहरा योगी आदित्यनाथ हैं और पार्टी के सबसे बड़े हिंदुत्ववादी नेता के रूप में भी वो सबसे आगे हैं लेकिन हैं तो वह अगड़ी जाति के ही.

ऐसे में जो ओबीसी वोटर भाजपा के परंपरागत वोटर नहीं थे और बीते कई चुनावों में भाजपा को वोट दिया था, वो उसके पाले से निकलकर समाजवादी पार्टी में जा रहे थे. उन्हें पार्टी से बांधे रखने की बड़ी चुनौती पार्टी के सामने थी. इस सवाल के लिए पंकज चौधरी सटीक जवाब बनकर सामने आए. वो कुर्मी जाति से ताल्लुक रखते हैं. यूपी में यादवों के बाद अगर ओबीसी में देखा जाए तो कुर्मियों की आबादी सबसे ज्यादा है. कुर्मी एक डॉमिनेटिंग कॉस्ट भी है जो वोट मोबिलाइज भी करती है. इसके अलावा अखिलेश यादव के पीडीए फॉर्म्यूला की काट भी भाजपा को इस दांव से मिलती दिख रही है.
‘एक तीर से कई निशाना’ साधने की भाजपा की पुरानी रणनीति रही है. पंकज चौधरी के बहाने भगवा पार्टी ने अपना दल वाली अनुप्रिया पटेल को भी बड़ा झटका दिया है. नवनीत मिश्रा कहते हैं कि कुर्मी वोटर्स को साधने के लिए भाजपा के पास अब पंकज चौधरी हैं. इससे अनुप्रिया पटेल की ‘बार्गेनिंग पॉवर’ भी कम होगी और वह आने वाले विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे पर ज्यादा अड़ियल रवैया नहीं दिखा पाएंगी.
गोरखपुर में 'पावर सेंटर'पंकज चौधरी भी गोरखपुर से आते हैं जो यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ का चुनाव क्षेत्र है. जहां से योगी विधायक हैं. इसी गोरखपुर में साल 1989 में वह पहले नगर निगम में पार्षद बने और फिर डिप्टी मेयर. ऐसे में पंकज चौधरी के भाजपा अध्यक्ष बनते ही कहा जाने लगा कि यूपी में भाजपा सरकार और संगठन दोनों का केंद्र गोरखपुर हो जाएगा. इससे क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ने की आशंका है. नवनीत मिश्रा के मुताबिक,
योगी से टकरावभाजपा एक ऐसी पार्टी है जो तात्कालिक जरूरतों के लिए ऐसे कुछ समीकरणों को नजरअंदाज करती है. मिसाल के तौर पर, एक समय में भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात से रहे और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी गुजरात से थे. एक ही समय में संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा की कमान राजस्थान के व्यक्तियों के हवाले रही. जगदीप धनखड़ जो राज्यसभा सभापति थे, वो भी राजस्थान के रहने वाले हैं और लोकसभा स्पीकर ओम बिरला भी राजस्थानी हैं. पार्टी कई बार अपनी जरूरतों के मद्देनजर ऐसे समीकरणों में ढील भी दे देती है.
गोरखपुर, योगी आदित्यनाथ और पंकज चौधरी को एक साथ सोचने पर एक और बात की चर्चा उठती है कि क्या गोरखपुर क्षेत्र के दोनों ‘क्षत्रपों’ की आपस में बनती है? पंकज चौधरी राजनाथ सिंह के करीबी हैं तो कहा गया कि उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने से यूपी में राजनाथ सिंह का प्रभाव बढ़ेगा तो क्या इससे योगी का असर भी कम होगा? इस पर नवनीत मिश्रा कहते हैं,
ये कहना गलत होगा कि योगी का प्रभाव कम करने की कोशिश है. बल्कि भाजपा का यह एक बड़ा रणनीतिक प्रयोग है. यह संगठन और सरकार के बीच ‘चेक्स एंड बैंलेंस’ बनाने की रणनीति है.
उनके मुताबिक, उत्तर प्रदेश में योगी से एक धड़ा नाराज चल रहा है. यह सरकार के आगे संगठन के कमजोर पड़ने का परसेप्शन बना चुका है.

ऐसे में बीजेपी नेतृत्व के सामने संतुष्ट और असंतुष्ट दोनों धड़ों को साधने की चुनौती है. जब भाजपा ने राज्य में कुर्मी प्रदेश अध्यक्ष बनाना तय किया तो दो ही चेहरे थे. स्वतंत्रदेव सिंह और पंकज चौधरी. चूंकि स्वतंत्रदेव की योगी के करीबी की छवि बन चुकी है. वो ज्यादातर मौकों पर उनके साथ ही देखे जाते हैं. ऐसे में उनके बनाने से सरकार और संगठन दोनों का पावर सेंटर एक जगह शिफ्ट होने का संदेश जाता. इससे असंतुष्ट धड़े की नाराजगी और बढ़ती. ऐसे में पंकज चौधरी के रूप में गोरखपुर से ही एक और समानांतर पावर सेंटर खड़ा कर दूसरे वर्ग को भी साधने की कोशिश की गई है.
कुर्मी वोटरों की वापसी की चुनौतीअब जो भी हो. यूपी बीजेपी के अध्यक्ष के तौर पर पंकज चौधरी की ताजपोशी लगभग तय है. इंडिया टुडे से जुड़े समर्थ श्रीवास्तव के मुताबिक, इस पद पर आने के बाद चौधरी के सामने सबसे बड़ी चुनौती कुर्मी वोट बैंक को बीजेपी की तरफ वापस लाने की होगी, जो 2022 के विधानसभा चुनाव से सपा की ओर जा चुका है. उन्हें चुनौती सपा के क्षेत्रीय कुर्मी क्षत्रप जैसे रामप्रसाद चौधरी, लालजी वर्मा से भी मिलेगी. बीजेपी ने 2027 चुनाव से पहले कुर्मी कार्ड खेला है. यह एक बड़ा राजनीतिक दांव है लेकिन इस समाज को पूरी तरह से किसी एक पार्टी के पक्ष में ले जाना अभी तक संभव नहीं रहा है. वो फिर चाहे बेनी प्रसाद वर्मा हों या फिर विनय कटियार. कोई नेता ये काम नहीं कर पाया.
भाजपा में चुनाव की प्रक्रियाशनिवार, 13 दिसंबर को भाजपा अध्यक्ष के लिए नामांकन की समय सीमा खत्म हो गई. सिर्फ एक नामांकन हुआ, पंकज चौधरी का. इसके साथ ही चौधरी भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष निर्दलीय निर्वाचित हो गए हैं. सिर्फ घोषणा बाकी है. लोगों के मन में इसे लेकर भी सवाल है कि अगर ऐसे ही चुना जाना था, तो भाजपा चुनाव क्यों कराती है?

नवनीत बताते हैं कि ये भाजपा की परिपाटी है. इसके संगठनात्मक ढांचे में कोई भी निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं. चुनाव से पहले सारे स्टेकहोल्डर्स बात होती है. डिस्कस किया जाता है. सबको एक नाम पर राजी किया जाता है. इसके बाद उसका सिंगल नामांकन कराते हैं. पहले नामांकन होता है. उस नामांकन पत्र की जांच की जाती है और फिर दूसरे दिन उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है. भाजपा में संगठनात्मक चुनाव का यही प्रोसेस है.
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