रेप-यौन उत्पीड़न केस झूठा साबित होने पर भी पीड़ित मुआवजा वापस नहीं मिलता: दिल्ली हाई कोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा ने बताया कि एफआईआर दर्ज होने के बाद पीड़िता को अक्सर अंतरिम मुआवजा दे दिया जाता है. लेकिन आगे चलकर कई बार ऐसा होता है कि पीड़िता अपने बयान से मुकर जाती है, समझौता कर लेती है या एफआईआर और केस को रद्द कराने की मांग करती है.
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दिल्ली हाई कोर्ट ने यौन अपराधों (रेप, यौन उत्पीड़न/शोषण) के मामलों में पीड़ितों को मिलने वाले मुआवजे के दुरुपयोग पर चिंता जताई है. कोर्ट का कहना है कि कई मामलों में पीड़ित/पीड़िता को दिया गया मुआवजा वापस नहीं लिया जाता, भले ही बाद में आरोप झूठे निकलें या मामला समझौते के तहत खत्म हो जाए.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा ने कहा कि FIR दर्ज होने के बाद पीड़िता को अक्सर अंतरिम मुआवजा दे दिया जाता है. लेकिन आगे चलकर कई बार ऐसा होता है कि महिला अपने बयान से मुकर जाती है, समझौता कर लेती है या FIR और केस को रद्द कराने की मांग करती है.
कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में पहले से दिया गया मुआवजा न तो वापस लिया जाता है और न ही इसे वसूलने के लिए कोई साफ व्यवस्था मौजूद है. इसका नतीजा यह होता है कि सरकारी पैसा बिना हिसाब के खर्च हो जाता है और असली पीड़ितों के लिए बनी योजनाओं पर सवाल खड़े होते हैं.
हाई कोर्ट ने ये भी बताया कि दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (DSLSA) को कई बार यह जानकारी ही नहीं मिलती कि आईपीसी की धारा 376 या पॉक्सो एक्ट से जुड़े मामलों में FIR रद्द हो चुकी है, खासकर तब जब मामला समझौते के आधार पर खत्म किया गया हो. इसी वजह से DSLSA यह तय नहीं कर पाता कि दिया गया मुआवजा वापस लिया जाए या नहीं.
दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण यानी DSLSA एक सरकारी संस्था है, जो गरीब और जरूरतमंद लोगों को मुफ्त कानूनी मदद और पीड़ित मुआवजा उपलब्ध कराती है. ये संस्था अदालतों के जरिये दी जाने वाली विक्टिम कम्पनसेशन स्कीम को लागू करने और उसकी निगरानी का काम करती है.
हाई कोर्ट ने इन कमियों को दूर करने के लिए नए निर्देश जारी किए हैं. कोर्ट ने कहा है कि जिन यौन अपराध मामलों में पीड़िता को मुआवजा दिया गया हो. उन सभी में ट्रायल कोर्ट को अपना आदेश और संबंधित रिकॉर्ड जरूरी तौर पर DSLSA को भेजना होगा.
यह व्यवस्था दो हालात में लागू होगीपहला- जब FIR या आपराधिक कार्यवाही समझौते के आधार पर रद्द की जाए.
दूसरा- जब ट्रायल के दौरान पीड़िता अपने बयान से पलट जाए.
इसके अलावा, कोर्ट ने ये भी अनिवार्य किया है कि यौन अपराधों से जुड़े मामलों में FIR या केस रद्द कराने के लिए दायर की जाने वाली हर याचिका में यह साफ बताया जाए कि महिला को विक्टिम कम्पनसेशन स्कीम के तहत कोई मुआवजा मिला है या नहीं.
हाई कोर्ट ने साफ कहा कि इन निर्देशों का मकसद पारदर्शिता और जवाबदेही तय करना है. ताकि सरकारी पैसे का सही इस्तेमाल हो और यौन अपराधों की वास्तविक पीड़िताओं को मिलने वाले मुआवजे की व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बना रहे.
साल 1995 में विधिक सेवा अधिनियम आया. इसी कानून के बाद पहली बार गरीब और जरूरतमंद लोगों को सरकारी मदद और मुआवजा मिलने का रास्ता खुला. फिर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने मल्लिकार्जुन केस में साफ कहा कि रेप पीड़िताओं को बिना देरी के आर्थिक मदद मिलनी चाहिए. कोर्ट ने जोर दिया कि पैसा तुरंत दिया जाए, ताकि पीड़िता को इलाज और जरूरी सहारा मिल सके.
साल 2012 के निर्भया केस ने पूरे देश को झकझोर दिया. इसके बाद सरकार ने निर्भया फंड बनाया, जिससे यौन अपराधों की पीड़िताओं को आर्थिक मदद दी गई.
इसके बाद 2015 से 2018 के बीच कानून और सख्त हुए. हर राज्य को ये अनिवार्य किया गया कि यौन अपराध के मामलों में पीड़िता को 60 दिन के अंदर अंतरिम मुआवजा देना ही होगा.
ये स्टोरी हमारे यहां इंटर्नशिप कर रहीं लक्ष्मी तिवारी ने लिखी है.
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