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'प्याज की सजा' को तीन दशक हो गए, आखिर क्या वजह है BJP दिल्ली की सत्ता में नहीं लौटी?

साल 1993 में आखिरी बार Delhi में BJP की सरकार बनी थी. उसके बाद से पार्टी को राष्ट्रीय राजधानी में सरकार बनाने का मौका नहीं मिला है. पहले Sheila Dixit और अब Arvind Kejriwal ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखा है.

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बीजेपी 27 सालों से दिल्ली की सत्ता से बाहर है. (ANI)
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आनंद कुमार
29 जनवरी 2025 (Updated: 4 फ़रवरी 2025, 12:23 PM IST) कॉमेंट्स
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साल 1991. संविधान का 69वां संशोधन पास हुआ. और दिल्ली में विधानसभा (Delhi Assembly elections) की वापसी हुई. फिर आया साल 1993. राज्य में विधानसभा चुनाव हुए. बीजेपी को बहुमत मिला. ये दौर काफी हलचल भरा रहा. पांच साल में दिल्ली ने बीजेपी के तीन सीएम देखे. मदनलाल खुराना (Madanlal Khurana), साहिब सिंह वर्मा (Sahib Singh Verma) और आखिर में सुषमा स्वराज (Sushma Swaraj). इस दौरान दिल्ली में बढ़ती महंगाई की मार ने जनता को बेजार कर दिया, और इसका अगुवा बना प्याज. इसके आंसुओं ने बीजेपी की सत्ता से विदाई करा दी.

इस घटना को 27 साल बीत चुके हैं. 27 साल पहले बीजेपी ‘काऊ बेल्ट’ की पार्टी मानी जाती थी. अब पैन इंडिया पार्टी है. केरल, तेलंगाना और तमिलनाडु छोड़कर तमाम राज्यों में पार्टी सीधे या गठबंधन के सहारे सत्ता का स्वाद ले चुकी है. लेकिन इन 27 सालों में बीजेपी से दिल्ली दूर है. पहले 15 साल शीला दीक्षित (Sheila Dikshit) और बाद के सालों में अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने दिल्ली में बीजेपी की वापसी नहीं होने दी है. यहां तक कि 2014 लोकसभा चुनाव के बाद तमाम राज्यों में सरपट दौड़ रहे बीजेपी के चुनावी अश्वमेध के घोड़े भी दिल्ली में थम गए. आखिर बीजेपी दिल्ली विधानसभा चुनाव का फॉर्मूला डिकोड क्यों नहीं कर पा रही है? इसको समझने की कोशिश करेंगे.

मदनलाल खुराना के फॉर्मूले पर नहीं टिक पाई बीजेपी

दिल्ली में जब बीजेपी को आखिरी बार सफलता मिली थी, तब पार्टी की स्थानीय ईकाई की कमान मदनलाल खुराना के हाथों में थी. प्रदेश में बीजेपी की सत्ता में वापसी क्यों नहीं हो पा रही इसके जवाब कहीं न कहीं भगवा पार्टी की पहली सरकार बनने की कहानी में ही छिपे हैं. खुराना लगातार जनता के मुद्दे को लेकर मुखर रहते थे. दिल्ली को राज्य का दर्जा देने के साथ कभी डीटीसी किराये में वृद्धि तो कभी दूध के महंगे होने पर आंदोलन कर रहे थे. इसका फायदा बीजेपी को मिला और उसने पहली बार सत्ता का स्वाद चखा. मदनलाल खुराना की रणनीति के बारे में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय बताते हैं, 

1993 में जब बीजेपी की सरकार बनी थी. उस समय मदनलाल खुराना के नेतृत्व को बीजेपी और दिल्ली की जनता दोनों ने खुशी खुशी स्वीकार किया. कई वर्षों से खुराना बीजेपी को मास बेस पार्टी बनाने में सफल हुए थे. वे दूरदर्शी राजनेता थे. उन्होंने देख लिया था कि 1980 के बाद से दिल्ली की डेमोग्राफी पूरी तरह से बदल गई थी. आजादी के बाद से 1977 तक जनसंघ का बोलबाला था .और इसका कारण था मुख्यत दो समुदायों का निर्णायक होना. पंजाबी समुदाय और मूल निवासी बनिया समुदाय. लेकिन धीरे-धीरे दिल्ली की डेमोग्राफी में भारी परिवर्तन हुआ. खासकर रोजगार और बेहतर अवसर की तलाश में पूर्वांचल की बड़ी आबादी दिल्ली पहुंची. खुराना ने इसको ठीक से समझा. उन्होंने बीजेपी के नए प्रकोष्ठ शुरू किए.और बीजेपी का स्वभाव बदला. बीजेपी झुग्गी झोपड़ी में काम नहीं करती थी. लेकिन वे स्वयं झुग्गी झोपड़ी में जाते थे. झुग्गी झोपड़ी के नेताओं को उन्होंने बीजेपी से जोड़ा.

खुराना के बाद बीजेपी का प्रयोग और नेतृत्व संकट

बीजेपी मदनलाल खुराना के नेतृत्व में चुनाव जीती. लेकिन कई कारणों से खुराना का कार्यकाल पूरा नहीं हो सका. उनके बाद साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने. फिर चुनाव के आखिरी महीनों में सुषमा स्वराज को कमान सौंपी गई. ताकि उनकी लोकप्रियता भुनाई जा सके. लेकिन बीजेपी की ये रणनीति कामयाब नहीं हो पाई. उसके बाद से बीजेपी का राजनीतिक संगठन लगातार प्रयोग करता रहा है. साल 1998 के बाद से उन नेताओं की एक लंबी लिस्ट है, जिन पर बीजेपी ने दांव लगाया. इसमें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे विजय कुमार मल्होत्रा, विजय गोयल, मनोज तिवारी, सतीश उपाध्याय, आदेश गुप्त, मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार रहे डॉ हर्षवर्द्धन और किरण बेदी शामिल हैं. लेकिन इन प्रयोगों के बावजूद दिल्ली बीजेपी में कोई शीला दीक्षित या फिर अरविंद केजरीवाल के कद का नेता नहीं उभर पाया.

दिल्ली बीजेपी में नेतृत्व संकट के सवाल पर रामबहादुर राय बताते हैं,

संसदीय राजनीति के जो प्रयोग हमारे यहां हुए हैं, उसमें चुनाव जीतने के सबसे बड़ी जरूरत पार्टी का एक चेहरा होना चाहिए. और वो पार्टी व जनता दोनों में सर्वमान्य हो. ऐसा दिल्ली बीजेपी में नहीं हुआ है. मदनलाल खुराना के हटने के बाद जो लोग आए. उनकी परम्परा को कायम नहीं रख पाए. और एक गुट के नेता बनकर रह गए. बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने बहुत प्रयोग किया. जो अध्यक्ष बने अच्छे लोग थे. लेकिन अच्छे होते हुए अक्षम थे. उनमें न राजनीतिक कौशल था. न संघर्ष का उतना बड़ा माद्दा था. ना ही मुद्दे की पहचान थी. और जनता में मरने खपने का उनका स्वभाव भी नहीं था. भ्रष्टाचार के जिस आंदोलन से केजरीवाल निकले. उसमें बीजेपी भी थी. लेकिन उनके किसी नेता की पहचान केजरीवाल की तरह नहीं बनी. पार्टी अंदर से कई गुट में बंटी है. और ये सबके नेता न होकर एक गुट के नेता बनकर रह जाते हैं. वही बीजेपी की पराजय का कारण है.

लोकसभा में बीजेपी विधानसभा में AAP

साल 2014 से एक ट्रेंड देखा गया है कि बीते तीन लोककसभा चुनावों यानी 2014, 2019 और 2024 में बीजेपी को दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटों पर जीत मिली. लेकिन 2014 और 19 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा. इसके अलावा MCD के पिछले चुनावों को छोड़ दें तो लंबे समय तक बीजेपी सत्ता में रही है.

इन नतीजों को वोट परसेंटेज के तौर पर समझने पर तस्वीर थोड़ी और साफ होगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 46 फीसदी वोट मिले. साल 2019 में ये आंकड़ा 57 फीसदी पहुंच गया. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में AAP और कांग्रेस साथ आए. फिर भी बीजेपी 54 फीसदी वोट पाने में कामयाब रही. इन चुनावों में आम आदमी पार्टी का वोट शेयर क्रमश: 32.9 फीसदी, 18.1 फीसदी और 24.1 फीसदी रहा है.

वहीं विधानसभा चुनावों में ये ट्रेंड पूरी तरह से बदल जाता है. 2015 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 32.2 फीसदी वोट मिले. साल 2020 में ये आंकड़ा बढ़कर 38.5 फीसदी हो गया. फिर साल 2015 में AAP का वोट शेयर 54.3 फीसदी रहा. जबकि 2020 में ये 53.6 फीसदी हो गया. 

लोकसभा और विधानसभा में वोटों के बदलते ट्रेंड पर CSDS के प्रोफेसर संजय कुमार ने बीबीसी को बताया, 

दिल्ली के वोटरों ने स्पष्ट तौर पर मन बना लिया है कि वो लोकसभा में बीजेपी को वोट देंगे. और विधानसभा में आम आदमी पार्टी को. इसलिए दोनों चुनावों में वोटों के बंटवारे में बड़ा अंतर नजर आता है.

लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बिलकुल अलग-अलग नतीजों के बारे में रामबहादुर राय एक रोचक बात बताते हैं. साल 2008 में शीला दीक्षित ने जस्टिस कुलदीप सिंह के नेतृत्व में एक परिसीमन आयोग बनाया था. आयोग ने सीटों की संख्या नहीं बदली. लेकिन जिन विधानसभाओं में बीजेपी मजबूत थी, वहां ऐसे इलाके जुड़वाए जिनमें कांग्रेस का प्रभाव था. वे अब केजरीवाल के प्रभाव के इलाके बन गए हैं. कांग्रेस नेता चतर सिंह इस आयोग में स्पेशल इन्वाइटी मेंबर थे. उनको दिल्ली के चप्पे-चप्पे की जानकारी है. उन्होंने ही मुख्यमंत्री को बताया कि ये इलाके जोड़ देंगे तो बीजेपी कमजोर हो जाएगी.

दिल्ली में 2008 में हुए परिसीमन के बारे में हमने चतर सिंह से ही बात की. सिंह आयोग के सदस्य नहीं थे. लेकिन उससे स्पेशल इन्वाइटी के तौर पर जुड़े थे. कांग्रेस के प्रभाव वाले इलाके जुड़वाने के सवाल पर चतर सिंह ने बताया, 

 उस आयोग में बीजेपी नेता विजय मल्होत्रा और ओपी बब्बर भी मेंबर थे. उनके पास भी मौका था. लेकिन वो कुछ नहीं कर पाए. और हमने उनके रहते ये काम कर लिया.

दलित वोटों को साध नहीं पा रही बीजेपी

साल 1993 में जब बीजेपी की सरकार बनी थी तो पार्टी ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 13 सीटों में से 8 पर जीत दर्ज की थी. इसके बाद से पार्टी का प्रदर्शन इन सीटों पर कुछ खास नहीं रहा है. अगले चुनाव (1998) में इन 13 सीटों में से 12 सीट जीतकर कांग्रेस ने सरकार बनाई. अगले 15 साल तक दिल्ली में कांग्रेस की सरकार रही. इस दौरान कांग्रेस ने 2003 में 10 और 2008 में नौ सीटों पर जीत दर्ज की. साल 2008 में हुए परिसीमन के बाद प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व सीटों की संख्या 13 से घटकर 12 हो गई.

2013 के विधानसभा चुनावों में इन 12 सीटों में से AAP ने नौ सीटें जीतीं. और कांग्रेस के समर्थन से उनकी सरकार बनी. फिर 2015 और 2020 के चुनावों में AAP ने दलितों के लिए आरक्षित सभी 12 सीटों पर जीत दर्ज की. 

दिल्ली में नहीं चलता हिंदुत्व के साथ विकास कार्ड

हिंदुत्व के साथ विकास के नारे के साथ बीजेपी को पूरे देश में चुनावी सफलता मिली है. लेकिन यहां बीजेपी के दो सबसे बड़े मुद्दे हिंदुत्व और विकास दोनों के रास्ते में अरविंद केजरीवाल खड़े नजर आते हैं. अरविंद केजरीवाल की मुफ्त बिजली पानी योजना और महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा जैसी योजनाओं ने उनकी पार्टी का एक वोट बेस बनाया है. इस बार तो उन्होंने महिला सम्मान योजना के तहत हरेक महिलाओं को 2500 रुपये देने का वादा भी किया है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी बताती हैं, 

मोहल्ला क्लिनिक, बिजली, पानी, मुफ्त यात्रा जैसी AAP सरकार की योजनाओं का सीधा लाभ जनता को मिलता है. और लोगों ने उन्हें आजमाया है, इसलिए वो कहीं और नहीं जाना चाहते हैं.

इसके अलावा बीजेपी की एक और ताकत है हिंदुत्व की पिच. जिस पर केजरीवाल कभी भी उनको खुलकर खेलने का मौका नहीं देते हैं. और वो खुद भी ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का कार्ड खेलने से बाज नहीं आते हैं. इस चुनाव में उन्होंने मंदिर के पुजारियों और ग्रंथियों को प्रतिमाह 18 हजार रुपये की सैलरी देने का वादा किया है. इसके अलावा केजरीवाल कभी नोटों पर लक्ष्मी गणेश की फोटो लगाने की मांग करते नजर आते हैं. तो कभी दिल्ली के बुजुर्गों को राम मंदिर की फ्री यात्रा कराते हैं. यही नहीं लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद केजरीवाल अपनी पत्नी के साथ अयोध्या में राम मंदिर की यात्रा करने गए.

कोई जनआंदोलन नहीं खड़ा कर पाई बीजेपी

शीला दीक्षित की सरकार पर कॉमनवेल्थ गेम्स में स्ट्रीट लाइट घोटाला, टैंकर घोटाला और बस शेल्टर डील में घालमेल करने के आरोप लगे. लेकिन बीजेपी उनके खिलाफ माहौल बनाने में असफल रही. इसका फायदा अरविंद केजरीवाल ने उठाया, और जनता ने उन पर विश्वास जताया भी. शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को उठा कर सत्ता में आई AAP पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप चस्पा हैं. कथित शराब घोटाले के आरोप में तो अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जेल जा चुके हैं. इसके अलावा संजय सिंह और सत्येंद्र जैन जैसे नेताओं को भी जेल जाना पड़ा है. इस मुद्दे पर रामबहादुर राय का मानना है, 

बीजेपी का प्रदेश नेतृत्व अरविंद केजरीवाल पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के खिलाफ कोई जनआंदोलन नहीं खड़ा कर पाया. विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल की जिम्मेदारी होती है जनता की आवाज उठाने की. लेकिन बीजेपी के नेता इसको जीवन मरण का प्रश्न नहीं बना सके. उनका प्रयास महज रस्म अदायगी तक सीमित रहा है.

दिल्ली में बीजेपी का वनवास 27 साल का हो चुका है. जिन कारणों के चलते बीजेपी सत्ता से दूर रही है. उस पर कितना काम हुआ है, ये आने वाले चुनावी नतीजों के बाद ही पता चल पाएगा.

वीडियो: दिल्ली विधानसभा चुनाव के बीच सीएम योगी ने अरविंद केजरीवाल को ये क्या कह दिया?

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