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कमर तक पानी, कंधों पर लाश...अंतिम संस्कार के लिए भी संघर्ष कर रहा है MP का ये गांव

अंतिम संस्कार करने के लिए ग्रामीण शव यात्रा लेकर श्मशान घाट की तरफ निकले. श्मशान घाट नहर की दूसरी तरफ था, जिस पर न ही कोई पुल था और न ही नहर पार करने के लिए नाव की कोई व्यवस्था. घटना का एक वीडियो भी सामने आया है.

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crossing the river for funeral carrying a dead body on shoulders
घटना का एक वीडियो भी सामने आया है. (फोटो: आजतक)
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प्रमोद कारपेंटर
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15 अक्तूबर 2025 (Updated: 15 अक्तूबर 2025, 05:43 PM IST)
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पुल पार करने से, पुल पार होता है. नदी पार नहीं होती. नदी पार नहीं होती. नदी में धंसे बिना… नरेश सक्सेना की इस कविता के कई अर्थ खुलते हैं. जिनकी आंखों पर फिलॉसफी का चश्मा नहीं है, उन्हें यह कविता व्यवस्था पर तंज की तरह लग सकती है. ऐसी ही एक तस्वीर आई मध्य प्रदेश से. बिना पुलिया वाली नहर की तस्वीर. विकास योजनाओं के दावों की पोल खोलती तस्वीर. 

मध्यप्रदेश के आगर मालवा जिले से महज 15 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है- लखमनखेड़ी. आजतक की रिपोर्ट के मुताबिक, बीते दिनों यहां 65 साल की लीलाबाई सिंह का निधन हो गया. अंतिम संस्कार करने के लिए परिजन व ग्रामीण शव यात्रा लेकर श्मशान घाट की तरफ निकले. श्मशान घाट नहर की दूसरी तरफ था, जिस पर न ही कोई पुल था और न ही नहर पार करने के लिए नाव की कोई व्यवस्था. इसलिए, ग्रामीणों ने भारी मन से बुजुर्ग महिला की शवयात्रा को नहर में धंसकर पार किया. घटना का एक वीडियो भी सामने आया है.

यह कोई एक दिन की बात नहीं है. ग्रामीणों का कहना है कि हर बार बारिश के मौसम में यही स्थिति रहती है. नहर में पानी भर जाता है और जब गांव में किसी का निधन होता है तो शव यात्रा इसी तरह नदी पार करके शमशान घाट तक ले जानी पड़ती है. ग्राम सरपंच रामकुंवर बाई ने फोन पर बताया कि हमारे गांव में शमशान घाट के लिए जगह नहीं है. इसलिए शमशान नदी के दूसरी तरफ बनाया गया है. 

ये भी पढ़ें: नगर पालिका के श्मशान में 'सिर्फ ब्राह्मणों का अंतिम संस्कार', बाकी को कहां मिलता है मोक्ष?

उन्होंने बताया कि पुलिया निर्माण के लिए विधायक से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों को कई बार लिखित में शिकायत दी गई और पुलिया बनवाने की अपील की गई, लेकिन आज तक सुनवाई नहीं हुई. सालों से गांव के लोग इसी परेशानी से जूझ रहे हैं. इस पूरे घटनाक्रम ने व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं. सवाल ये है कि आजादी के 75 साल बाद भी अगर किसी गांव में अंतिम संस्कार करने के लिए नहर पार करनी पड़े, तो फिर विकास योजनाओं के दावे कितने सच्चे हैं?

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