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अरावली को लेकर मचे हंगामे की पूरी कहानी, एक क्लिक में जान लीजिए!

सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की परिभाषा दी है कि जो भी पहाड़ियां 100 मीटर से कम ऊंची होंगी वह अरावली पर्वतमाला की नहीं मानी जाएंगी. इस फैसले के बाद से पर्यावरणविदों को टेंशन हो गई है.

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Aravali hills range
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियां अरावली नहीं कही जाएंगी (india today)
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राघवेंद्र शुक्ला
21 दिसंबर 2025 (Published: 11:09 PM IST)
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अरावली की पहाड़ियों के बारे में एक बात हमेशा से सुनते आए थे कि वो है तो उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा रेगिस्तान बनने से बचा हुआ है. वह थार के रेगिस्तानी अतिक्रमण से गंगा-यमुना के उपजाऊ मैदान का रखवाला है. अरावली की बात आती है तो महाराणा प्रताप भी याद आते हैं. अपने मुक्ति संग्राम में अरावली के जंगलों में ही वह परिवार के साथ रहे थे. इन्हीं जंगलों की घास की रोटियां खाने के भी उनके किस्से हमारे जेहन में जीवित हैं. यही आरावली सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद से चर्चा में है. लोग आशंका जता रहे हैं कि कोर्ट का ये फैसला अरावली की ‘मौत का वारंट’ हो सकता है.

‘मौत का वारंट’ जैसे गंभीर शब्द के प्रयोग की वजह भी है. गुजरात से दिल्ली तक देश की तकरीबन 650 किलोमीटर देह पर अरावली फैली हुई है. आज से नहीं, 2 अरब साल से वह थार के रेगिस्तान और गंगा के ऊपजाऊ मैदान के बीच दीवार बनकर खड़ी है. चंबल, साबरमती और लूणी जैसी अहम नदियां जिसके संरक्षण में बह रही हैं. आकार के पैमाने पर जो कहीं पहाड़ लगता है, कहीं पहाड़ी और कहीं सिर्फ टीला. ऐसी अरावली का 90 फीसदी हिस्सा सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश की नई परिभाषा के हिसाब से अरावली होने की मान्यता से बाहर हो गया. कोर्ट ने कहा है कि 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को अब अरावली श्रृंखला का नहीं माना जाएगा. 

कोर्ट के इस फैसले ने पर्यावरण की चिंता करने वाले लोगों में हलचल मचा दी है. उनका कहना है कि इस परिभाषा से तो 90 फीसदी हिस्सा अरावली की मान्यता खो देगा. इससे इस प्राचीन पर्वतमाला के संरक्षण का शिकंजा ढीला पड़ जाएगा. खनन और अवैध कब्जे की ऐसी लहर उठेगी कि इलाके की पूरी पारिस्थितिकी (Ecosystem) तबाह कर देगी. मरुस्थलीकरण बढ़ेगा. पानी की किल्लत बढ़ेगी. प्रदूषण बढ़ेगा और जैव-विविधता की ‘वाट लग जाएगी’.     

ये डर क्यों है?

ये डर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद से पैदा हुआ है. शनिवार, 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस विवादास्पद फैसले में केंद्र सरकार की एक विशेषज्ञ समिति की बनाई अरावली की उस परिभाषा को स्वीकार कर लिया, जिसमें कहा गया है कि स्थानीय भूभाग से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली भू-आकृतियों को ही ‘अरावली’ के रूप में माना जाएगा. यानी अब सिर्फ वही पहाड़ या जमीन के ऊंचे हिस्से ‘अरावली पहाड़ियां’ माने जाएंगे, जो अपने आसपास की जमीन से कम-से-कम 100 मीटर ऊंचे हों. इसके अलावा, दो या उससे ज्यादा पहाड़ियों को तभी ‘अरावली पर्वत श्रृंखला’ का हिस्सा माना जाएगा, जब वे आपस में 500 मीटर के दायरे में हों.

पर्यावरणविद और अरावली से लगाव रखने वाले लोग कोर्ट के इस फैसले से टेंशन में हैं. उन्हें लगता है कि ये परिभाषा अरावली का पूरा सिस्टम तबाह कर देगा. उन्होंने चेतावनी दी है कि इस फैसले के चलते अरावली क्षेत्र के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से से संरक्षण हट सकता है. इसका सीधा असर ये होगा कि यहां खनन गतिविधियां बढ़ेंगी. अचल संपत्तियों पर अवैध कब्जे को बढ़ावा मिलेगा और इससे ऐसे पारिस्थितिकीय नुकसान का खतरा पैदा होगा कि संभालना मुश्किल हो जाएगा. 

एक्सपर्ट क्या कह रहे हैं?

अरावली को उत्तर भारत में ‘हरे फेफड़े’ जैसा माना जाता है. ‘सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन’ के संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह TOI से बातचीत में कहते हैं कि सिर्फ 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही ‘अरावली’ मानना उस पूरे लैंडस्केप को ही मिटा देने जैसा है, जो उत्तरी भारत को सांस लेने लायक बनाता है और कुओं में पानी भरता है. उन्होंने 

कागजों पर यह ‘सस्टेनेबल माइनिंग (सतत खनन)’ और ‘डिवेलपमेंट’ लगता है लेकिन ग्राउंड लेवल पर इसका मतलब है धमाके, सड़कें और गड्ढे. जो तेंदुआ कॉरिडोर, गांवों की साझा जमीनों और दिल्ली-एनसीआर की आखिरी हरित ढाल को काटते चले जाते हैं.

जलपुरुष के नाम से मशहूर रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अगर यह फैसला लागू हो गया तो अरावली का सिर्फ 7–8 प्रतिशत हिस्सा ही बच पाएगा. 

एनडीटीवी के मुताबिक, भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) के एक आंतरिक आकलन से पता चलता है कि अकेले राजस्थान में 12 हजार 81 पहाड़ियों में से केवल 1 हजार 48 यानी 8.7 प्रतिशत ही अरावली की नई परिभाषा के अनुसार निर्धारित सीमा को पूरा करती हैं.

पर्यावरण कार्यकर्ता जयेश जोशी ने कहा कि इस फैसले से सबसे पहली चिंता उन आदिवासियों की होनी चाहिए, जो हजारों सालों से अरावली के इकोसिस्टम पर जी रहे हैं. एक अन्य कार्यकर्ता प्रदीप पूनिया ने आगाह किया कि अगर अरावली में खनन का दायरा बढ़ा तो सिर्फ पहाड़ियां ही नहीं बल्कि खेती, जंगली जानवर और अभयारण्य भी पूरी तरह नष्ट हो जाएंगे.

एक्सपर्ट्स का मानना हैं कि अरावली पर खतरा होगा तो मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज होने की आशंका है. इससे भूमिगत जल के रिचार्ज होने का काम भी प्रभावित होगा. अरावली के इलाके पहले ही वायु प्रदूषण और पानी के संकट से जूझ रहे हैं. इस नए खतरे से उनका संकट कई गुना बढ़ जाएगा.

अरावली अहम क्यों है?

द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, अरावली पर्वत श्रृंखला का सबसे बड़ा महत्व ये है कि यह गंगा के मैदानों को रेगिस्तान बनने से बचाने वाली एक प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है. अरावली थार रेगिस्तान को हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ओर फैलने से रोकती है. यह जलवायु को संतुलित रखने और भूजल (Ground Water) को रिचार्ज करने में भी अहम भूमिका निभाती है. इसके अलावा अरावली क्षेत्र में सैंडस्टोन, चूना पत्थर, संगमरमर, ग्रेनाइट, सीसा, जस्ता, तांबा, सोना और टंग्स्टन जैसे खनिज भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. 

पुराने समय से यहां खनन होता रहा है, लेकिन पिछले 40 सालों में जरूरत से ज्यादा पत्थर और रेत की खुदाई हुई है. इससे हवा की गुणवत्ता तो खराब हुई ही, भूजल तेजी से नीचे चला गया. 

नई परिभाषा की जरूरत क्यों थी?

दरअसल, अरावली की पहचान के लिए अभी तक अलग-अलग राज्य अलग-अलग मानक इस्तेमाल कर रहे थे. इससे भ्रम की स्थिति बनी रहती थी. इस भ्रम को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष समिति बनाई, जिसमें पर्यावरण मंत्रालय, FSI, राज्य वन विभाग, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और CEC के प्रतिनिधि शामिल थे. इस समिति को पूरे देश के लिए वैज्ञानिक आधार पर एक साफ-सुथरी परिभाषा तय करने को कहा गया. समिति ने अक्टूबर 2025 में अपनी रिपोर्ट दी. रिपोर्ट में समिति ने कहा था कि सिर्फ वही पहाड़ियां अरावली मानी जाएंगी जो 100 मीटर से ऊंची हों. सुप्रीम कोर्ट ने इसी सिफारिश को मान लिया है. 

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