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ज्वालामुखी फटा और राख ने दिल्ली को घेर लिया… उड़ानें ठप, एयरलाइंस क्यों डर गईं?

Ethiopia में हैली गुब्बी ज्वालामुखी 23 नवंबर को फट गया, जिससे राख का एक बड़ा गुबार लगभग 15 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंच गई. यह राख का गुबार लाल सागर से पूरब की ओर बढ़ते हुए Arab Peninsula और Indian Sub Continent की तरफ फैल गया.

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Hayli Gubbi volcano eruption Ethiopia air india
इथियोपिया में ज्वालामुखी फटने के चलते कई देशों में विमान सेवा बाधित हो गई. (AP)
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आनंद कुमार
25 नवंबर 2025 (Updated: 25 नवंबर 2025, 04:07 PM IST)
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इथियोपिया (Ethiopia) में 23 नवंबर को अचानक धरती के भीतर बहुत जबरदस्त विस्फोट हुआ. लगभग 12 हजार साल से सोया ‘हैली गुब्बी’ ज्वालामुखी (Hayli Gubbi) अचानक फट पड़ा. इस विस्फोट से निकलने वाली ‘राख’ और ‘सल्फर डाइऑक्साइड’ करीब 15 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंच गई. और आसमानी यात्रा करते हुए लाल सागर पार कर यमन और ओमान तक फैल गई.

इनका सफर यहीं नहीं रुका. 24 नवंबर की रात करीब 11 बजे यह राख इथियोपिया से 4300 किलोमीटर दूर दिल्ली के आसमान पर भी छा गई. इथियोपिया से आई इस आसमानी आफत के चलते विमान सेवाएं प्रभावित रहीं. एयर इंडिया ने 24 नवंबर को सात अतंरराष्ट्रीय उड़ान और 25 नवंबर को चार घरेलू उड़ानों को रद्द कर दिया.

अब सवाल उठता है कि आखिर एयर इंडिया ने उड़ानों को रद्द क्यों किया? क्या ज्वालामुखी फटने पर विमान सेवाएं उड़ान भरने के लिए सुरक्षित नहीं है? और ज्वालामुखी की राख विमानों के लिए इतनी खतरनाक क्यों होती है?

ज्वालामुखी की राख से विमान को क्या खतरा है?

ज्वालामुखी से निकले राख के कण बेहद खुरदरे होते हैं. ये विमान के विंडस्क्रीन को डैमेज कर सकते हैं. और यहां तक कि उनको धुंधला बना सकते हैं मानो किसी ने उन पर सैंडपेपर रगड़ दिया हो. इसको इस तरह से समझिए कि आपके पास चश्मा है और आप उसे सैंडपेपर से बार बार खुरच रहे हों. कॉकपिट में बैठे पायलट को विंडस्क्रीन पर यही होते दिखाई देता है.

ज्वालामुखी की राख बाहरी सेंसरों को भी डैमेज कर सकती है, जिससे गलत रीडिंग हो सकती है. और राख विमान के वेंटिलेशन सिस्टम में भी घुसपैठ कर सकती है. जिससे केबिन की एयर क्वालिटी खराब हो सकती है. और इससे पायलट और यात्रियों को सांस लेने में परेशानी आ सकती है. 

ज्वालामुखी की राखों का असर विमान के इंजन पर भी होता है. एक जेट विमान का इंजन हवा को अंदर खींचकर फ्यूल के साथ मिक्स करके उसको जलाता है. इससे हाई प्रेशर वाली गैस बनती है जोकि विमान के एग्जिट पाइप से बाहर निकलती हैं और विमान को आगे की ओर धकेलती हैं.

फ्यूल और एयरफ्लो का संतुलन होना बेहद जरूरी होता है. जब एयरफ्लो में बाधा आएगा तो इंजन ठप्प हो सकता है. ज्वालामुखी से निकले राख के कण इंजन के अंदर प्रवेश कर जाते हैं. और वहां पिघलकर जमा हो जाते हैं. जिससे एयरफ्लो बाधित होता है. इसके चलते इंजन में आग लग सकती है या इंजन ठप्प हो सकता है.

ज्वालामुखी की राख में सिलिका की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. इसलिए जब वह पिघलती है तो कांच जैसी किसी चीज में बदल जाती है. बहुत ज्यादा तापमान के संपर्क में आने पर ये पिघलने लगती है. और जेट इंजन के भीतर का तापमान बहुत ज्यादा होता है.

साल 1982 में ऐसी एक घटना हुई थी. ब्रिटिश एयरवेज का बोइंग 747 विमान इंडोनेशिया के आसपास उड़ रहा था और जावा के माउंट गैलुंगगंग से निकल रही ज्वालामुखी की राख से टकराने के बाद उसके चारों इंजन ठप्प हो गए थे. हालांकि विमान के पायलटों ने अपनी सूझबूझ से इंजन को दोबारा चालू करके सुरक्षित लैंडिंग करवा दिया. लेकिन पायलट इस दौरान सामने की विंडस्क्रीन से कुछ भी नहीं देख पा रहे थे.

इस घटना के बाद से दुनिया भर की एविएशन कंपनियां और अथॉरिटीज ज्वालामुखी से निकले राख के खतरे को लेकर ज्यादा सतर्क हो गईं. और फिर इनसे बचने के लिए कई तरह के नियम कायदे सामने आए. 

विमान कंपनियां कैसे तय करती हैं उड़ान भरना सुरक्षित नहीं है?

हर एयरलाइंस के पास एक टीम होती है. ऑपरेशन स्टाफ का. विमान के लैंड कराने से उड़ाने का फैसला इनके जिम्मे होता है. अगर कहीं ज्वालामुखी फटता है तो ये उस पूरी घटना पर पैनी नजर बनाए रखते हैं. और विमान की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उड़ान की टाइमिंग में बदलाव करने या फिर उनको रद्द करने का फैसला लेते हैं. सभी देशों के पास एक नागरिक उड्डयन सुरक्षा प्राधिकरण (सिविल एविएशन अथॉरिटी) होता है. इसकी भूमिका गार्जियन की होती है. यानी सभी एयरलाइंस को रिस्क मैनेजमेंट के लिए कुछ जरूरी प्रोसेस फॉलो कराने की भूमिका. 

यू तो सभी एयरलाइंस कंपनियों का एक रिस्क मैनेजमेंट के लिए एक अलग स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) होता है. यानी सभी एयरलाइंस अपनी उड़ाने रद्द करने या जारी रखने का फैसला खुद कर सकते हैं. लेकिन आम तौर पर ये ऐसा नहीं करते. बड़ी एयरलाइंस कंपनियां एक दूसरे के साथ कम्यूनिकेट कर रही होती हैं. और सभी मिलकर ये तय करती हैं कि उड़ान रद्द करना है या नहीं. 

आमतौर पर एयरलाइंस कंपनियां राख के गुबार के फैलाव के आधार पर निर्णय लेते हैं. राख का गुबार कितना बड़ा है और वह कहां तक जा सकता है. साथ ही ये भी ध्यान में रखना होता है कि हवा की गति ऊंचाई (Altitude) के साथ बदलती रहती है. जैसे-जैसे ऊंचाई के साथ हवाएं तेज होती जाती हैं, राख अपने स्रोत(जहां ज्वालामुखी फटा) से काफी दूर तक बह कर जा सकती है.

अब एक संयुक्त राष्टर संघ की एक एजेंसी भी है. नाम है अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन (International Civil Aviation Organization). इसका काम ज्वालामुखी से निकले राख के खतरों से बचने के लिए गाइडलाइन जारी करना है.  इसके अलावा दुनियाभर में मौसम का हाल बताने वाली एजेंसियां भी इस मामले में एक दूसरे का सहयोग करती हैं. और कहीं भी ज्वालामुखी विस्फोट होने पर एयरलाइंस अधिकारियों को अलर्ट करती हैं. 

एयरलाइंस की उड़ाने दोबारा तभी शुरू होंगी जब उनके रूट से ज्वालामुखी का राख साफ हो जाए. और आगे किसी विस्फोट की संभावना न हो. विमानों के रद्द करने के पीछे का सबसे बड़ा कारण यात्री की सुरक्षा होती है. अगर इंजन बंद हो जाए या फिर पायलट खिड़की से बाहर न देख पाएं तो यात्रियों की सुरक्षा पर खतरा होना स्वाभाविक है. 

साल 2010 में वर्ल्ड वॉर के बाद का सबसे बड़ा हवाई संकट 

साल 2010 में आइसलैंड के दक्षिणी हिस्से में बर्फीले ज्वालामुखी 'एयाजाफ्जालाजोकुल'(Eyjafjallajökull) में 14 अप्रैल 2010 को एक जोरदार विस्फोट हुआ. यह विस्फोट इतना तेज था कि ज्वालामुखी से निकला राख हवा में 9 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैल गया. इस विस्फोट से निकला राख पूरे यूरोप के एयर स्पेस में हफ्तों तक छाया रहा. इससे पूरी दुनिया में हवाई यात्रा ठप्प हो गया. 15 अप्रैल से 23 अप्रैल 2010 तक यूरोप के 20 से ज्यादा देशों में 300 से ज्यादा हवाई अड्डे बंद कर दिए गए. इसके चलते करीब 1 लाख उड़ाने रद्द करनी पड़ीं. इससे 1 करोड़ से भी ज्यादा यात्री फंस गए. ये सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद का सबसे बड़ा हवाई संकट था.

वीडियो: इथियोपिया में ज्वालामुखी फटा, राख का बादल दिल्ली तक पहुंचा, AQI 400 के पार

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