जाबड़ फिल्म 'संघर्ष' के किस्से, जिसके विलेन 'लज्जा शंकर पांडे' ने आशुतोष राणा को अमर कर दिया
मुंह में उंगली डालकर कर्कश, डरावनी आवाज़ निकालने का आइडिया आशुतोष राणा को कहां से आया था?

1999 में संजय दत्त का बॉलीवुड में पुनर्जन्म हुआ. इसी साल 'वास्तव' ने उन्हें एक अभिनेता के तौर पर दोबारा मौक़ा दिलवाया. 13 फ्लॉप फिल्मों के बाद एक बड़ी हिट फ़िल्म तो मिली ही, साथ ही फ़िल्म फेयर अवॉर्ड से भी नवाज़े गए. इसी साल एक और ऐक्टर ने अपना करियर बचाया. वो ऐक्टर थे, खिलाड़ी अक्षय कुमार. 'जानवर' ने उनके करियर को नई दिशा दी. पर ‘जानवर’ दिसंबर में रिलीज हुई. इसके तीन महीने पहले भी एक फ़िल्म आई, जिसने उनके करियर को एक जेन्टल पुश दिया. उस फ़िल्म का नाम है 'संघर्ष'. इसमें अक्षय के रोल के लिए आशुतोष ने कहा था: “मुझे लगता है, इस फ़िल्म के बाद अक्षय अभिनेता के तौर पर दो क़दम आगे खड़े दिखाई देंगे”. उनका तो नहीं पता पर आशुतोष ने 'संघर्ष' में लज्जा शंकर पांडे को जैसे जिया, वो ज़रूर दो क़दम आगे निकल गए. आज हम इसी फ़िल्म के बनने, गुनने के कुछ चुनिंदा किस्से आपके सामने पेश करेंगे.
‘साइलेंस ऑफ द लैम्ब्स’ की कॉपी!
'मुझे रात दिन बस मुझे चाहती हो, कहो ना कहो मुझको सब कुछ पता है' ये 'संघर्ष' मूवी का ही गाना है. जो फिट बैठता है, महेश भट्ट और मुकेश भट्ट के बैनर विशेष फ़िल्म्स के लिए. इस बैनर को अंग्रेजी और फ़ॉरेन फिल्मों से इतना प्यार था कि हर दूसरी प्रोडक्शन किसी न किसी फ़िल्म का अनऑफिशियल रीमेक या अडैप्टेशन हुआ करता था. ऐसा सिर्फ़ इस बैनर के साथ ही नहीं था, बल्कि लगभग सभी प्रोडक्शन हाउस यही पैंतरा अपना रहे थे. अनुराग बासु, जिन्होंने विशेष फ़िल्म्स के लिए कई फिल्में डायरेक्ट की, कहते हैं, “उस दौर में ये नहीं था कि आप कौन-सी फ़िल्म बना रहे हो, बल्कि ये था कि कौन-सी अंग्रेज़ी फ़िल्म बना रहे हो.” खैर, इस पर किसी रोज़ विस्तार से हम एक स्टोरी करेंगे. फ़िलहाल 'संघर्ष' पर लौटते हैं. इस फ़िल्म का प्लॉट 1991 में आई अमेरिकन फ़िल्म 'साइलेंस ऑफ द लैम्ब्स' पर बेस्ड माना जाता है. इस बात को कई जगह फ़िल्म के राइटर यानी खुद महेश भट्ट स्वीकार करते हैं. पर इस फ़िल्म की डायरेक्टर तनुजा चंद्रा इसके कहीं से इंस्पायर होने से इनकार करती हैं. उनका मानना है कि ये फ़िल्म भारत के ही एक पुलिस केस पर आधारित है. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था:
बस 'संघर्ष' की 'साइलेंस ऑफ द लैम्ब्स' से एक लाइन की समानता है और वो है प्लॉट. जिसमें लड़की एक क्रिमिनल को पकड़ने के लिए दूसरे क्रिमिनल का सहारा लेती है. बस इसी जगह से हमने इसकी स्टोरी बिल्कुल अलग रखी है. ये पूरी तरह से एक भारतीय फ़िल्म है.
हालांकि ये बात अलग है कि फ़िल्म एक्सपर्ट्स इसे 'साइलेंस ऑफ द लैम्ब्स' की फ्रेम बाइ फ्रेम कॉपी मानते हैं. जैसे फ़िल्म में एक सीन है, जहां ऑफिसर रीत क्रिमिनल से मिलने आती है, ये पूरी तरह से अमेरिकी फ़िल्म की कॉपी है. तनुजा चंद्रा पर इससे पहले 'दुश्मन' को 'आई फॉर ऐन आई' से फ्रेम बाइ फ्रेम कॉपी करने के आरोप भी लगे. यहां तक कि ये भी कहा गया कि उनके कुछ शुरुआती फिल्मों में महेश भट्ट ने घोस्ट डायरेक्शन किया. 'दुश्मन' और 'संघर्ष' उन्हीं में शामिल हैं.

पहले इस फ़िल्म का नाम महेश भट्ट 'अंधेरा' रखना चाहते थे. पर बाद में 'संघर्ष' रखा. दरअसल ऐसा कहा जाता है कि इससे पहले 1998 में महेश अपनी फ़िल्म 'ज़ख्म' का नाम ही संघर्ष रखना चाहते थे. पर बाद में आइडिया ड्रॉप कर दिया. 'ज़ख्म' का स्क्रीनप्ले तनुजा चंद्रा और महेश भट्ट ने मिलकर लिखा था. कमाल ये है कि महेश भट्ट के डायरेक्शन में बनी इस फ़िल्म के बारे में कहा जाता है कि इसमें तनुजा चंद्रा ने घोस्ट डायरेक्शन किया था. 1990 में आई अनिल कपूर की फ़िल्म 'जीवन एक संघर्ष' का नाम भी पहले संघर्ष ही रखा जाना था. बाद में कुछ लीगल पचड़ों के कारण फ़िल्म का नाम बदला गया. कहते हैं 'जीवन एक संघर्ष' के डायरेक्टर राहुल रवैल (Rahul Rawail) इसका टाइटल अपने पिता की दिलीप कुमार स्टारर फ़िल्म 'संघर्ष' (1968) के नाम पर रखना चाहते थे. पर उस वक़्त 'सघर्ष' के प्रोड्यूसर को इससे आपत्ति हुई. इसके चलते राहुल को आखिरी समय पर नाम बदलना पड़ा. पर सवाल उठता है महेश भट्ट ने इसके 10 साल बाद 'संघर्ष' नाम से फ़िल्म कैसे बनाई? कहते हैं विशेष फ़िल्म्स ने 'संघर्ष' और 'ज़ख्म' सरीखे नाम ट्रेडमार्क ऐक्ट के तहत ऑफिशियली रजिस्टर करवा लिए थे. हालांकि इस बात की पुष्टि नहीं की जा सकती है.

पहले 'संघर्ष' शाहरुख खान को ऑफर हुई थी. पर इससे पहले विशेष फ़िल्म्स के साथ की गई उनकी दो फ़िल्में 'चाहत' और 'डुप्लीकेट' फ्लॉप हो गई थीं. जिस कारण से शाहरुख खान ने फ़िल्म के लिए मना कर दिया था. फिर फ़िल्म अजय देवगन के पास पहुंची. उन्होंने भी डेट्स का बहाना देकर फ़िल्म करने से इनकार कर दिया. ऐसा भी कहा जाता है कि 'संघर्ष' में फ़ीमेल किरदार ऑफिसर रीत का रोल मेल कैरेक्टर से ज़्यादा था, जिस कारण उस समय का कोई बड़ा स्टार फ़िल्म करने के लिए राज़ी नहीं हो रहा था. बाद में अक्षय ने फ़िल्म के लिए हां कही. वो भी इसलिए क्योंकि उनका करियर कुछ खास नहीं चल रहा था. दर्जन पर फिल्में लगातार फ्लॉप चुकी थीं. इसलिए उनके पास इस रोल को एक्सेप्ट करने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. वो इसके बारे में कहते हैं:
मुझे लगता है, 'संघर्ष' ने एक अभिनेता के तौर पर मेरा नज़रिया बदला. उसी के बाद मैंने अपने काम से प्यार करना शुरू किया और मैं अब एक जुनूनी ऐक्टर हूं.
तनुजा ने इस रोल को लेकर अक्षय के बारे में कहा था:
मुझे पता है इस समय अक्षय की कोई मार्केट वैल्यू नहीं है. जनता अक्षय की जगह पर शाहरुख को देखना ज़्यादा पसंद करेगी. पर अक्षय ने इस रोल के लिए काफ़ी मेहनत करके इस बात की भरपाई कर दी है.
ऑफिसर रीत का किरदार पहले करिश्मा को ऑफर हुआ था. उनके मना करने पर प्रीति ज़िंटा को मिला. उन्होंने इस मौके को भुनाया भी. फ़िल्म में उनकी ऐक्टिंग को उस वक़्त खूब पसंद किया गया था.
आलिया भट्ट का डेब्यू 2012 में आई फ़िल्म 'स्टूडेंट ऑफ द इयर' को माना जाता है. पर ऐसा नहीं हैं. वो इससे क़रीब 13 साल पहले ही फ़िल्म इंडस्ट्री में क़दम रख चुकी थीं. उन्होंने 'संघर्ष' में प्रीति ज़िंटा के बचपन का रोल अदा किया था. वो उस वक़्त महज़ 5 साल की थीं. 'संघर्ष' बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट उनकी पहली फ़िल्म थी.
मैं तो बरगद हूं, आप मुझे पत्थर पर फेकेंगे, तो मैं पत्थर पर जड़े जमा लूंगा. कीचड़ में फेकेंगे तो कीचड़ में जड़े जमा लूंगा. रेत में फेकेंगे तो वहां जड़े जमा लूंगा.
ये शब्द हैं आशुतोष राणा के, जो उन्होंने किसी किरदार को खुद में आत्मसात करने को लेकर कहे. उन्होंने 'संघर्ष' में कुछ ऐसा ही किया. 'लज्जा शंकर पांडे' को ऐसा जिया कि वो किरदार मूवी में भले न अमर हुआ हो, पर हमारे मन में अमर हो गया. आशुतोष भी बतौर कलाकार अमर हो गए. उन्हें 'दुश्मन' के बाद अपना दूसरा फ़िल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला. पर उन्हें ये अमरता मिली कैसे? वो अक्षय कुमार की फ़िल्म 'जानवर' की हैदराबाद में शूटिंग कर रहे थे. उन्हें महेश भट्ट का फोन आया. आशुतोष उनके साथ 'दुश्मन' में काम कर चुके थे. महेश ने कहा कि वो एक फ़िल्म बना रहे हैं, 'संघर्ष'. उसमें एक किरदार है. उससे बड़ा विलेन आज तक नहीं आया है. लेकिन वो ये रोल आशुतोष को नहीं देकर किसी और ऐक्टर को देंगे. आशुतोष बेचैन हो गए. दूसरे दिन शूटिंग की छुट्टी थी. उन्होंने फ्लाइट पकड़ी और महेश भट्ट के पास मुंबई पहुंच गए. वो उस समय ट्रॉम्बे क्लब में शूट कर रहे थे. राणा ने उनसे कहा,
या तो आप कहिए मैं बुरा ऐक्टर हूं या फिर ये रोल दीजिए. नहीं तो एक काम करिए, आपने जिस ऐक्टर को इस रोल में लिया है, उसका और मेरा ऑडीशन लीजिए. तब जाकर मुझे खारिज कीजिए कि तुम इस रोल में फिट नहीं हो.
महेश भट्ट जोर से हंसे और बोले, मैं तो बस तुमसे मिलना चाहता था. तुम्हें बहुत दिनों से देखा नहीं था. चाहता था तुम आओ. आप समझ ही गए होंगे रोल तो पहले से ही आशुतोष राणा को मिलने ही वाला था.

खैर, जब राणा को लज्जा शंकर पांडे का रोल मिल गया. उन्होंने तैयारी की, शूट शुरू हुआ. फ़िल्म चांदीवली स्टूडियो में शूट हो रही थी. महेश भट्ट आशुतोष के पास पहुंचे. बोले, बेटा तुम्हारे किरदार पर मुझे एक सिग्नेचर चाहिए. आशुतोष समझे नहीं कि महेश कैसे सिग्नेचर की बात कर रहे हैं. दरअसल भट्ट साहब को कुछ ऐसा चाहिए था, जो अलग हो, हॉन्टिंग हो, फ़िल्म में बार-बार रिपीट हो. ताकि लोगों के ज़ेहन में बस जाए. आशुतोष ने बहुत सोचा. फिर उन्हें नॉर्थ-ईस्ट के मंदिरों में उंगली और मुंह के सहारे निकाली जाने वाली आवाज़ याद आई. ये आवाज़ बुरी आत्माओं को भगाने के लिए निकाली जाती है. फ़िल्म में लज्जा शंकर पांडे के लिए सब बुरी आत्माएँ हैं, जो उसकी अमरता में बाधा डालते हैं. इसलिए राणा ने इस किरदार से यही आवाज़ निकलवाने की ठानी. भट्ट साहब को भी इसके बारे में नहीं पता था. जब कैमरे सामने टेक हुआ तो इतनी ऊर्जा के साथ आशुतोष ने वो आवाज़ निकाली कि भट्ट साहब और तनुजा चंद्रा दोनों चकित रह गए. एक टेक में शॉट फाइनल हो गया. आगे यही पूरी फ़िल्म में इस्तेमाल हुआ.
तो ये थी कहानी अभिनेता के रूप में अक्षय के पुनर्जन्म की और आशुतोष राणा के अमरत्व की.
……
चमत्कार में शाहरुख खान की कास्टिंग को लेकर सवाल क्यों उठे थे?