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फिल्म रिव्यू- थामा

कैसी है मैडॉक हॉरर-कॉमेडी यूनिवर्स की अगली किश्त 'थामा', जानिए ये रिव्यू पढ़कर.

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'थामा' को 'मुंज्या' फेम आदित्य सरपोतदार ने डायरेक्ट किया है.
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21 अक्तूबर 2025 (Updated: 21 अक्तूबर 2025, 07:34 PM IST)
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फिल्म- थामा 
डायरेक्टर- आदित्य सरपोतदार 
एक्टर्स- आयुष्मान खुराना, रश्मिका मंदन्ना, परेश रावल 
रेटिंग- 2.5 स्टार
***   

मैडॉक हॉरर कॉमेडी यूनिवर्स की नई फिल्म 'थामा' थिएटर्स में लग चुकी है. ये इस यूनिवर्स की सबसे महंगी फिल्म है. और सबसे कमज़ोर भी. अब तक इस फ्रैंचाइज में जो भी फिल्में बन रही थीं, उनके पास कुछ कहने को था. मसलन, 'स्त्री' पेट्रियार्की के बारे में बात करती है. 'भेड़िया' में पर्यावरण की सुरक्षा का मसला उठा. 'मुंज्या' कंसेंट जैसे ज़रूरी विषय पर बात करती है. 'थामा' इसलिए बनी है, ताकि इस फ्रैंचाइज़ में आगे बनने वाली फिल्मों की नींव पड़ सके. क्योंकि न इस फिल्म में कॉमेडी है, न हॉरर है, न लव स्टोरी है. तो है क्या? फ्रैंचाइज़ की अगली फिल्म की अनाउंसमेंट. यूनिवर्स के नए-पुराने किरदारों के कैमियो. मेटा जोक्स. पिछली फिल्मों के रेफरेंस. इंस्टाग्राम के पुराने, घिसे हुए मीम्स. और दो-तीन भौंडे डांस नंबर्स.

'थामा' का जो बुनियादी आइडिया है, वो बड़ा दिलचस्प है. एक आदमी है, जो एक ऐसे इलाकों में घुस जाता है, जो बेतालों से भरा हुआ है. वहां इंसानों का प्रवेश वर्जित है. कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं, जिससे आलोक भी उन्हीं बेतालों की तरह बन जाता है. क्या होता है, जब एक दिल्ली का नॉर्मल लड़का बेताल बन जाता है?

कॉन्टेक्स्ट के लिए बता दें कि फिल्म के मुताबिक बेताल एक ऐसी प्रजाति है, जो ज़िंदा रहने के लिए इंसानों का खून पीती है. अगर बेताल किसी का खून पी जाता है, तो वो व्यक्ति भी बेताल बन जाता है. उनके पास उड़ने, अमर रहने समेत कई मायावी शक्तियां हैं. हालांकि उन बेतालों ने आपसी सहमति से तय किया है कि वो इंसानों का खून नहीं पीएंगे. क्योंकि उन्हें लफड़ा नहीं चाहिए.  

बढ़िया स्टोरीलाइन है. सुनकर मज़ा आया! लेकिन देखकर नहीं. क्योंकि ये डिट्टो चीज़ हम 'भेड़िया' में देख चुके हैं. अगर इसे दूसरे तरीके से समझना चाहें, तो इस कहानी की तुलना जेम्स कैमरन की 'अवतार' से की जा सकती है.

'थामा' शायद को-एग्जिस्टेंस के बारे में बात करती है. वो बेतालों और इंसानों के बर्ताव को एक-दूसरे के साथ एक्सचेंज कर देती है. फिल्म में एक डायलॉग है, जब एक बेताल कहता है कि इंसानों को अपने एरिया में नहीं आने देना है. क्योंकि इंसानों का खून जहरीला होता है.

फिल्म जो कुछ भी कहना चाह रही थी, वो बात दर्शकों तक पहुंच नहीं पाती. तमाम चीज़ें के बीच कहीं दबकर रह जाती है. या लाउड बैकग्राउंड स्कोर के शोर में सुनाई नहीं आती. यहीं फिल्म की राइटिंग कलई खुल जाती है. आपने सारी बात कर ली, सिवाय उसके जो आपको असल में करनी थी. फिल्म की लिखाई में विसंगति है. वो आपको पूरी फिल्म में नज़र आती है. कहानी में नए किरदार जुड़ते जा रहे हैं. मगर आप उनसे कनेक्ट नहीं कर पा रहे. क्योंकि आपको पता ही नहीं है कि वो कहां से आ रहे हैं और क्यों. इसलिए सबकुछ बहुत खोखला लगता है.

ये हॉरर-कॉमेडी यूनिवर्स की फिल्म है. इसलिए फिल्म के फनी या कम से कम डरावने होने की उम्मीद तो की ही जा सकती है. मगर ये फिल्म दोनों ही मामलों में फुस्स साबित होती है. वही इंस्टाग्राम के सालों पुराने घिसे हुए जोक्स 'क्या है आलोक में, झिंगूर सा, लप्पू सा है आलोक'. 'वेलकम' से अक्षय कुमार का 'मिरेकल मिरेकल', 'हेरा फेरी' से 'क्या गुंडा बनेगा रे तू', 'दबंग' से 'स्वागत नहीं करोगे हमारा' टाइप के डायलॉग्स हैं. जो फिल्म में ढंग से फिट नहीं होते. जो जोक्स लिखे गए हैं, वो लैंड नहीं हो रहे. इस फिल्म का स्क्रीनप्ले वो इकलौती चीज़ है, जिससे आपको डर लगता है.

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने फिल्म के विलन यक्षासन का रोल किया है. जिसे इंसानों का खून पीने के जुर्म में 100 साल से कैद करके रखा गया है. वो पूरी फिल्म में एक गुफा में कैद रहता है. आखिर में निकलता है. मार खाकर वापस कैद में चला जाता है. नवाज़ अपनी ओर से पूरी कोशिश करते हैं कि उस किरदार में जान फूंकी जाए. थोड़े सरप्राइज़ एलीमेंट डाले जाएं. मगर फिल्म उन्हें ऐसा करने का मौका ही नहीं देती है. ऐसे में वो कैरिकेचरिश विलन बनकर रह जाता है. अगर उन्हें थोड़ा स्क्रीनटाइम और दिया जाता, तो शायद फिल्म और एंटरटेनिंग हो सकती थी. मगर जिस तरह से उनका कैरेक्टर पैन-आउट होता है, उससे ये अंदाज़ा लगता है कि यूनिवर्स की आगे की फिल्मों में उनका रोल बड़ा होगा.

ये इस फिल्म की एक और बड़ी समस्या है. हर चीज़ इसलिए हो रही है, ताकि आगे की फिल्मों में उसका इस्तेमाल किया जा सके. इस फिल्म के बारे में कोई सोच ही नहीं रहा है. अगर ये फिल्म पब्लिक को पसंद ही नहीं आएगी, तो लोगों में इस फ्रैंचाइज़ को लेकर जो गुडविल है वो खत्म हो जाएगी. ऐसे में उन्हें आगे आने वाली फिल्मों के लिए आकर्षित कर पाना मेकर्स के लिए मुश्किल हो जाएगा.  

आयुष्मान ने फिल्म में आलोक नाम के लोकल रिपोर्टर का रोल किया है. जिसे ताड़का नाम की बेताल से प्यार हो जाता है. ताड़का का रोल रश्मिका ने किया है. आयुष्मान के लिए इस तरह के रोल्स करना मुश्किल नहीं है. क्योंकि उन्होंने अपने पूरे करियर में ऐसे ही लड़के का रोल किया है, जो अपने साथ हो रही चीज़ों को लेकर असहज है. बावजूद इसके वो इस फिल्म को लेकर पूरी तरह कमिटेड नहीं लगते. शायद थोड़े कंफ्यूज़ भी. रश्मिका ने अपने कैरेक्टर को गंभीरता से निभाने की कोशिश की है. मगर वो जब-जब बात करती हैं, तो उनका एक्सेंट अखरने लगता है. क्योंकि वो साफ हिंदी नहीं बोल पातीं. परेश रावल फिल्म के सेविंग ग्रेस हैं. वो इकलौते एक्टर हैं, जो अपने किरदार के कॉमिक एलीमेंट और इमोशनल डेप्थ दोनों को मैच कर पाते हैं. फिल्म में दो-तीन कैमियोज़ हैं. मगर उनका इस कहानी से कोई कनेक्शन नहीं है. वो बहुत ही फोर्स्ड तरीके से फिल्म में जोड़े गए लगते हैं.

'थामा' बेहद कन्विनिएंट फिल्म है. जब मन किया किसी को मार दिया. जब मन हुआ ज़िंदा कर दिया. आलोक न हुआ, जॉन स्नो हो गया. फिल्म में एक डायलॉग या पंच ऐसा नहीं है, जिस पर हंस सकें. ऐसा कोई हॉरर वाला सिचुएशन नहीं है, जो आपको डरा सके. फिल्म देखने के बाद तो ऐसा लगता है कि 'थामा' फिल्म का टाइटल नहीं, संदेश है.  

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