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फिल्म रिव्यू- सितारे ज़मीन पर

आमिर खान की कमबैक फिल्म 'सितारे ज़मीन पर' कैसी है, जानिए ये रिव्यू पढ़कर.

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'सितारे ज़मीन पर' को 'शुभ मंगल सावधान' फेम आर. एस. प्रसन्ना ने डायरेक्ट किया है.
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20 जून 2025 (Published: 02:55 PM IST) कॉमेंट्स
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फिल्म- सितारे ज़मीन पर
डायरेक्टर- आर. एस. प्रसन्ना
राइटर- दिव्य निधि शर्मा 
एक्टर्स- आमिर खान, जेनिलिया डिसूज़ा, डॉली अहलूवालिया, बृजेंद्र काला
रेटिंग- 3 स्टार

*** 

आमिर खान ने 2007 में एक फिल्म बनाई थी 'तारे ज़मीन पर'. 2025 में उनकी एक फिल्म आई है, जिसका नाम है 'सितारे ज़मीन पर'. इन दोनों फिल्मों की कहानी एक दूसरे से बिल्कुल अलग है. मगर वो एक जैसे कॉन्सेप्ट पर बनी हैं, इसे स्पिरिचुअल सीक्वल कहा जाता है. 'तारे ज़मीन पर' ओरिजिनल फिल्म थी. वहीं, 'सितारे ज़मीन पर' 2018 में आई स्पैनिश फिल्म 'कैंपियोनेस' की रीमेक है. जिसे हॉलीवुड में 'चैंपियंस' नाम से बनाया जा चुका है. रीमेक को आज के समय में अभिशाप की तरह देखा जाता है. जिस भी फिल्म के साथ ये टर्म जुड़ता है, उसे लोग हेय दृष्टि से देखने लगते हैं. मसलन, पिछले दिनों आई आमिर खान की ही 'लाल सिंह चड्ढा' को ले लीजिए. उस फिल्म के इर्द-गिर्द एक किस्म की नकारात्मकता बिल्ड कर दी गई थी. जिसके पीछे उसका रीमेक होना एक बड़ा कारण था. 'सितारे ज़मीन पर' के साथ भी ये टैग चस्पा है. मगर नकल के लिए भी अक्ल चाहिए. जो आमिर इस फिल्म से साबित करने की कोशिश करते हैं.

एक बेहद बद्तमीज़ और अक्खड़ किस्म का आदमी है. जो दुनियाभर को ठेंगा दिखाता फिरता है. मगर उसकी ओर जब कोई उंगली भी उठाता है, तो आगबबूला हो जाता है. इस आदमी का नाम है गुलशन अरोड़ा. दिल्ली के लाजपत नगर में रहता है. बास्केटबॉल प्लेयर बनना चाहता था. मगर कद इतना छोटा कि उछलकर बास्केट भी न छू पाए. उसे लगता है कि वो कुछ है. मगर ये बात दुनिया को साबित करनी बाकी है. ख़ैर, दिल्ली बास्केटबॉल टीम का जूनियर कोच है. एक दिन सीनियर कोच उसकी हाइट का मज़ाक उड़ा देता है, तो उसे झापड़ मार देता है. शराब के नशे में पुलिस की ही गाड़ी ठोक देता है. मामला पहुंचता है कोर्ट. सज़ा मिलती है कि तीन महीने तक डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे बच्चों को बास्केटबॉल की कोचिंग देनी है. यहां से गुलशन उन बच्चों के साथ एक नई यात्रा पर निकलता है.    

कोई एक्टर कौन सी फिल्म चुन रहा है, वो उसके क्राफ्ट और सोच दोनों के बारे में काफी कुछ बताती है. 'सितारे ज़मीन पर' रीमेक होने के बावजूद एक बेहतर फिल्म बनकर निकलती है. क्यों? क्योंकि उसे साफ नीयत से बनाया गया है. ये कैसे मालूम चलता है? वो इससे पता चलता है कि फिल्म क्या और कैसे कहना चाहती है. सिनेमा बनाना ज़ाहिर तौर पर एक बिज़नेस है. मगर आप क्विक प्रॉफिट बनाना चाहते हैं या लेगेसी, ये उस नीयत से तय होती है. 'सितारे ज़मीन पर' लेगेसी वाली कैटेगरी में आती है. क्योंकि ये फिल्म एक ऐसी बात कहने की कोशिश करती है, जो बहुत कम लोग बोल या समझ पाते हैं. इसलिए हमें लगता है कि कोई बहुत नई बात हो रही है. जब देशभर के एक्टर्स और फिल्ममेकर्स ये मानकर बैठे हैं कि जनता सिर्फ एक्शन फिल्में ही देखना चाहती है, तब एक प्यारी, कोमल सी फिल्म आती है, जिसमें एक्शन के नाम पर सिर्फ एक झापड़ है. ये चीज़ 'सितारे ज़मीन पर' को खास बनाती है. इस बात की मुनादी करती है कि हमें दुनिया को देखने का अपना नज़रिया बदलना चाहिए. सीखना चाहिए. एक फीलगुड, फनी और साफ-सुथरी कॉमेडी, जो इमोशन के भार तले दबती नहीं है.
  
जिन 10 बच्चों पर ये फिल्म आधारित है, उनकी सबसे खास बात ये है कि वो एक्टर्स नहीं हैं. उन्हें असल जीवन में भी डाउन सिंड्रोम है. उन्हें एक्टिंग सिखाना या उसके लिए राज़ी करना कमोबेश उतना ही मुश्किल रहा होगा, जितना फिल्म में उन्हें बास्केटबॉल खेलना सिखाना. उनकी परफॉरमेंस फिल्म को ऑर्गैनिक बनाकर रखती है. जिन भी सीन्स में वो बच्चे हैं, वो सीन्स कभी बनावटी नहीं लगते. आमिर खान ने उनके कोच गुलशन का रोल किया है. कहने को तो गुलशन उन्हें बास्केटबॉल सिखाने आया है. मगर गुलशन एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे खुद बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. वो अपनी पत्नी से अलग रहता है. उसे लगता है कि मांओं की अपनी कोई ज़िंदगी नहीं हो सकती है. शुरुआत में गुलशन भी बाकी दुनिया की तरह इन बच्चों को 'गुड फॉर नथिंग' मानता है. क्योंकि वो 'नॉर्मल' नहीं हैं. बड़े बेमन से वो उन्हें कोचिंग देना शुरू करता है. मगर उनके साथ समय गुज़ारने पर गुलशन को मालूम पड़ता है कि 'नॉर्मल' जैसा कुछ होता ही नहीं है. सब लोग अपने-अपने तरीके के होते हैं. और सबका अपना-अपना 'नॉर्मल' होता है.

हालांकि ऐसा नहीं है कि ये खामीप्रूफ फिल्म है. फिल्म का पेस हिला हुआ है. कई मौकों पर फिल्म धीमी पड़ जाती है. खुद को समेटकर दोबारा उठती है. कई सीन्स बहुत प्रीची लगते हैं. जेनिलिया ने आमिर की पत्नी सुनीता का रोल किया है. वैसे तो उनका किरदार दिल्ली का रहने वाला है. मगर उन्हें हिंदी बोलने में भी कठिनाई होती है. डॉली अहलूवालिया फिल्मी पंजाबी मां वाले जोन से बाहर ही नहीं निकल पा रहीं. मगर ये इतनी बड़ी दिक्कतें नहीं हैं, जो ओवरऑल फिल्म पर भारी पड़ जाएं.

'सितारे ज़मीन पर', बिल्कुल 'तारे ज़मीन पर' वाले टेंप्लेट पर ही बनी है. इस फिल्म में ट्रीटमेंट के लेवल पर कुछ भी नया नहीं है. ऐसे लोगों की कहानी, जिन्हें दुनिया स्वीकार नहीं कर पा रही है. क्योंकि वो उन्हें खुद से अलग मानती है. फिर एक आदमी आता है, जो उनकी स्वीकार्यता की इस लड़ाई में उनके साथ खड़ा होता है. मगर दो मामलों में ये फिल्म 'तारे ज़मीन पर' से अलग है. अव्वल, तो मेकर्स ने फिल्म में किसी एक्टर को कास्ट करके उससे डाउन सिंड्रोम की एक्टिंग नहीं करवाई. और दूसरी ये कि ज़रूरी नहीं है कि हर लड़ाई आप जीते हीं. क्योंकि वो फिल्म आपके बारे में है.

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