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  • Review of Marathi Movie Ranga Patanga directed by Prasad Namjoshi starring Makarand Anaspure, Nandita Dhuri, Sandip Pathak, Abhay Mahajan, Suhas Palshikar

क्या हुआ जब एक किसान के दो बैल खो गए!

और मामले पर मीडिया की नज़र पड़ गई.

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दो बैलों का खो जाना एक किसान परिवार की तबाही ज़रिया बन सकता है.
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मुबारक
3 अक्तूबर 2018 (Updated: 3 अक्तूबर 2018, 12:50 PM IST)
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मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.
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आज की फिल्म है 'रंगा-पतंगा'.

कहानी का किस्सा

एक किसान है. महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत में रहता है. वैसा ही किसान है जैसा एक सूखाग्रस्त प्रदेश में अमूमन हुआ करता है. फटेहाल, बेबस और अभावों से घिरा हुआ. उसके दोनों बैल खो गए हैं. किसी हाल में नहीं मिल रहे. नाम है रंगा-पतंगा. घर में बीवी जान देने को तैयार है. बैलों को अपनी औलादों की तरह प्यार करते थे दोनों. बेशुमार भटकन के बाद भी बैल नहीं मिलते. पुलिस भी कुछ नहीं कर रही. विदर्भ के किसी दूरदराज़ गांव के एक मामूली किसान और उसके बैलों की किसे पड़ी है!
लेकिन फिर एक दिन... फिर एक दिन मीडिया के गिद्धों की नज़र मामले पर पड़ती है और किसान के खोए बैल रातोंरात ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाते हैं. टीवी चैनलों की स्क्रीन पर नेताओं और जुम्मन के बैलों को एक समान कवरेज मिलने लगती है. मामला एक सूखाग्रस्त गांव से निकलकर प्रदेश की राजधानी तक पहुंच जाता है. जिस गांव में कोई पांव धरके राज़ी नहीं था वहां चैनलों की ओबी वैन्स, पत्रकारों के जत्थे और नेताओं के तमाम अमले की भीड़ ही भीड़ नज़र आने लगती है. क्या ये सब मिलकर जुम्मन के बैल खोज पाते हैं? या इस तमाम सनसनी में मेन मुद्दा ही हवा हो जाता है? ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.
रंगा-पतंगा ने बहुत तारीफें बटोरीं.
रंगा-पतंगा ने बहुत तारीफें बटोरीं.

रंगा-पतंगा महज़ एक किसान की व्यथाओं का चित्रण नहीं है. ये और भी कई चीज़ों को छूती हुई चलती है. जैसे गांव के नेताओं का कमीनापन, ज्योतिषियों की मतलबपरस्ती, सूखे की भयानक दाहकता, किसान की बदहाली, पत्रकारों के साथ एडिटरों का मज़दूरों जैसा बर्ताव और लोगों के अंदर तक घुसकर बैठी हुई साम्प्रदायिकता.

मुसलमान होने की कीमत 

एक सीन है. रंगा-पतंगा के खोने की रिपोर्ट दर्ज कराने जुम्मन थाने पहुंचा है. उसके मुसलमान होने से पुलिसवाला पूर्वाग्रह से भरा हुआ है. उसके सवालों से विद्वेष टपक रहा है. बीवी का ज़िक्र आने पर वो पूछता है पहली बीवी या दूसरी? यानी ये तो मान ही लिया गया है कि मुसलमान है तो दूसरी बीवी तो होगी ही. साथ ही इस बात का ताना मारने से भी नहीं चूकता कि मुसलमान है तो बच्चे भी ज़्यादा होंगे.
मुस्लिम होने से कुछ एक्स्ट्रा सवालों से जूझता जुम्मन.
मुस्लिम होने से कुछ एक्स्ट्रा सवालों से जूझता जुम्मन.

कई लोग जुम्मन पर ये शक भी करते हैं कि उसने खुद ही बैल काट दिए होंगे. किसी मुस्लिम का गाय-बैलों से लगाव हो भी कैसे सकता है?

कठिन हालात में भी जो ज़िंदा रहे, वो प्रेम

जुम्मन और उसकी पत्नी नूर का दुख और संघर्ष साझा है. दोनों में परिस्थितियों से जूझने का हौसला भी है और तमाम अभावों के बीच मुस्कुराने के मौके ढूंढने का हुनर भी. एक सीन मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत पसंद है. बैलों की तलाश में दर-दर भटकता जुम्मन घर लौटा है. नूर के लिए गजरा लाया है. उन फूलों को नूर हथेली में भर लेती है और उसके चेहरे पर एक तिलिस्मी मुस्कराहट फ़ैल जाती है. उस एक फ्रेम में प्रेम की ताकत का आण्विक भंडार है. एक दर्शक के तौर पर आपको विश्वास हो जाता है कि गुरबत के भयावह साए में भी प्रेम ज़िंदा रह सकता है, रहता है.
प्रेम ही इकलौती चीज़ है जो कहीं भी पनप सकती है.
प्रेम ही इकलौती चीज़ है जो कहीं भी पनप सकती है.

कैमरा भी शायद किसी किसान के पास ही था

कई बार जो चीज़ लंबे-लंबे संवादों से नहीं अमझ आती वो किसी एक दृश्य भर से दिमाग में रजिस्टर हो जाती है. ऐसे कई सीन हैं फिल्म में जो डायरेक्टर की पारखी नज़र और कैमरामैन की कार्यकुशलता का प्रमाण हैं. जैसे रंगा-पतंगा की तलाश में भटक रहे जुम्मन को किसी और बैल की हड्डियां दिखना. या फिर सूखी हुई नदी पर बना लंबा-चौड़ा पुल. इस सुंदर डिटेलिंग के लिए डायरेक्टर प्रसाद नामजोशी और सिनेमैटोग्राफर अमोल गोळे को पूरे नंबर देने पड़ेंगे.
कैमरा वर्क अच्छा हो तो फिल्म देखने का मज़ा दोगुना हो जाता है.
कैमरा वर्क अच्छा हो तो फिल्म देखने का मज़ा दोगुना हो जाता है.

हालांकि इंटरवल के बाद कहानी पर थोड़ा सा मेलोड्रामा हावी हो जाता है. चैनलों की चीख-पुकार असहनीय लगती है. ऐन वैसे ही जैसे 'पीपली लाइव' में लगी थी. मुद्दे की संवेदनशीलता से टीवी एंकर और पैनलिस्ट्स को कोई लेना-देना नहीं है. उनके लिए ये किसी की निजी व्यथा नहीं बल्कि एक और प्राइम टाइम स्टोरी है महज़. जैसे 'पीपली लाइव' में टीवी वालों को नत्था के मरने की कोई चिंता नहीं होती वैसे ही यहां भी किसी को बैलों की तलाश नहीं है. हां बैलों पर तीखी बहस में सबको मज़ा आ रहा है. फिल्म का ये हिस्सा थोड़ा सा लाउड है जिसकी वजह से फिल्म पटरी से उतरती नज़र आती है. लेकिन मकरंद अनासपुरे एक बार फिर स्टीयरिंग थाम लेते हैं.

एक्टरों का जलवा

मकरंद अनासपुरे मराठी सिनेमा में एक हास्य-अभिनेता के तौर पर स्थापित हैं. या यूं कह लीजिए कि वो टाइपकास्ट हैं. जुम्मन की भूमिका उनके लिए वरदान सी है. इस फिल्म में उनकी अभिनय क्षमता का एक और पहलू दिखता है और क्या खूब दिखता है. बैलों की तलाश में भटकते फिर रहे किसान की तकलीफ को वो सटीक ढंग से परदे पर दिखा पाए हैं. महाराष्ट्र के मुस्लिम परिवारों में बोली जानेवाली हिंदी-मिश्रित मराठी को उन्होंने बेहतरीन ढंग से बोला है. उनकी कॉमेडी एक्टर वाली छवि के विपरीत वो इस फिल्म में गंभीरता से भरे लगे हैं और ये देखना सुखद आश्चर्य जैसा लगता है.
कॉमेडी एक्टर की अपनी छवि से निकलते मकरंद अनासपुरे.
कॉमेडी एक्टर की अपनी छवि से निकलते मकरंद अनासपुरे.

नूर के रोल में नंदिता धुरी बहुत प्रभावित करती हैं. बेऔलाद नूर के लिए रंगा-पतंगा ही औलादें थीं. उनसे बिछड़ने की तकलीफ को दबाकर उसे जुम्मन का मनोबल भी बनाए रखना है. नंदिता इन भावों को व्यक्त करने में पूरी तरह कामयाब रही हैं. जुम्मन के दोस्त के रोल में संदीप पाठक चौंका देते हैं. अपने दोस्त की परेशानी में हर कदम साथ रहने वाला पोपट उन्होंने बढ़िया निभाया है. उनके हिस्से फिल्म की सीरियसनेस को कम करने का काम है जो वो अपने चुटीले वन लाइनर्स से बाखूबी करते हैं. टीवी रिपोर्टर के रोल में अभय महाजन अपने काम न्याय करते हैं. वो इकलौते हैं, जो बिना चीखे रिपोर्टिंग करते नज़र आते हैं.
ये फिल्म सरकारों की नाकामी और मीडिया की असंवेदनशीलता पर तगड़ा व्यंग्य है. ऐसे समय में जब किसान गली से ले के दिल्ली तक पिट रहा है, इस फिल्म को देखना तो बनता है.


वीडियो:

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