मूवी रिव्यू RK/RKAY: शेक करता हुआ कैमरा, अनोखे आइडिया पर अनोखा प्रयोग
RK/RKAY में मानव मन के अंदर एक और मन है. जो असलियत को पहचानना चाहता है. नकलीपन को मारना चाहता है. पूरी फ़िल्म इसी नकली और असली के बीच फ़र्क समझने और समझाने की कोशिश करती है.

'भीड़ का ऐसा मंज़र शहर में बेचैनी, बेकरारी, बदहवासी' ये किस फ़िल्म में आ गए हैं हम. ऐसे क्यों देख रहे हैं आप लोग मुझे.
आप लोग सोच रहे होंगे. ये स्क्रीन के उस पार मौज़ूद शख़्स क्या पहेलियां बूझ रहा है. आज हम जिस पिक्चर की बात करने जा रहे हैं, वो भी एक पहेली है. सिनेमाई पहेली. जिसे रचा है सरल, पर जटिल पहेलियां रचने वाले फ़िल्मकार रजत कपूर ने.
आज से सालों बाद 21वीं सदी के दूसरे दशक का सिनेमाई इतिहास जब लिखा जाएगा तो रजत कपूर की मूवी 'आंखों देखी' को क्रिएटिव ब्रिलिएंस में गिना जाएगा. उन्हीं रजत कपूर की एक और फ़िल्म आई है, नाम है 'RK/RKAY'

कहानी में फ़िल्म के अंदर एक निर्देशक फ़िल्म बना रहा है. और वो निर्देशक ही इस फ़िल्म का हीरो है. फ़िल्म शूट होकर एडिट टेबल पर पहुंचती है. एडिट होना शुरू होती है और फ़िल्म से निकलकर उसका हीरो भाग जाता है. यानी मूवी का एक किरदार नौ दो ग्यारह हो जाता है. ये बिल्कुल वैसा है, जैसे किसी फ़ोटो में से निकलकर आदमी ग़ायब हो जाए. ख़ैर, ये सिनेमा का संसार है. यहां कुछ भी हो सकता है. प्रोड्यूसर साहब ने महबूब के फ़िल्म से निकलकर भागने की पुलिस कम्प्लेन भी कर दी है. पुलिस कम्प्लेन वाला सीन कमाल है. उसकी चुटिलता एक नम्बर है. ख़ैर, महबूब की खोज जारी है. उसे ढूंढ़कर पिक्चर के अंदर भेजना है. इससे ज़्यादा बताएंगे तो स्पॉइलर की झड़ी लग जाएगी. और आपलोग कमेंट में शिकायतों की झड़ी लगा देंगे.
यहां संवाद भी किरदार हैंफ़िल्म कैसी होगी. इसका पचास प्रतिशत हिस्सा उसके स्क्रीनप्ले पर डिपेंड करता है. RK/RKAY स्क्रीनप्ले के लिहाज़ से बहुत मज़बूत है. रजत कपूर ने स्क्रिप्टिंग तकनीक के हर कॉलम को बराबर टिक किया है. इसके डायलॉग बहुत सावधानी और सुंदरता से लिखे गए हैं. एक जगह आज के दौर की भाषा में और उसी के पैरलल ख़ालिस उर्दू में लिखे गए डायलॉग. इनमें दर्शन है. इनमें लेयर्स हैं. 'जब कुछ नहीं रहता तो प्यार ही रहता है. मैं हूँ क्योंकि मैं इश्क़ कर सकता हूँ' फ़िल्म में बार-बार RK महबूब से कहता रहता है कि तुम असल नहीं हो. तुम्हें मैंने लिखा है. तब महबूब कहता है: 'आप कैसे कह सकते हैं कि आप हैं. हो सकता है आपको भी किसी ने लिखा हो'. डायलॉग्स के ज़रिए कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाता है. रजत कपूर उसकी मास्टरक्लास लगाते हैं. कैसे डायलॉग किसी फ़िल्म का अहम हिस्सा हो सकते हैं. माने यहां संवाद भी एक किरदार हैं.

फ़िल्म में रजत कपूर ने डबल रोल किया है. एक महबूब का और दूसरा RK का यानी एक RK का और एक RKAY का. हमेशा की तरह उन्होंने बेहतर काम किया है. ख़ुद से ख़ुद को निर्देशित कर पाना बेहद मुश्किल काम है और रजत कपूर ने उस काम को बखूबी किया है. मनु ऋषि की एफर्टलेस कॉमिक टाइमिंग देखते बनती है. वो आपको हंसाने की कोशिश नहीं करते, आप ख़ुद हंसते हैं. गुलाबो के रोल में मल्लिका शेरावत ने ठीक ठाक काम किया है. उनकी कोशिश को पूरे नम्बर मिलने चाहिए. रणबीर शौरी ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है. रजत की पत्नी के रोल में कुबरा सैत ने सधा हुआ अभिनय किया है. जिसने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया है, वो हैं चंद्रचूड़ राय. उन्होंने नमित के किरदार को बहुत सटीक तरीके से निभाया है. वो कुछ कहते हुए डरता है, पर वो कहता भी है. उसकी मासूमियत और भोलापन चंद्रचूड़ के चेहरे पर अलग से उभरकर आता है.
रजत कपूर: द डायरेक्टरनिर्देशक के तौर पर रजत कपूर कभी निराश नहीं करते. वो कमर्शियल दौर में आर्ट फ़िल्मों की जलती मशाल हैं. ये मशाल उन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिए जलाए रखने की सफल कोशिश की है. हालिया दौर में आई भारतीय फ़िल्मों में नॉन लीनियर नरेटिव का इतना अच्छा प्रयोग कम से कम मैंने तो नहीं देखा. रजत प्रयोगधर्मी फिल्मकार हैं. हर फ़िल्म में कुछ नया करते हैं. यहां भी बहुत कुछ नया देखने को मिलता है. मिसाल के तौर पर पूरी मूवी के दौरान महबूब के ऊपर मौज़ूद एक्स्ट्रा लाइट. अद्भुत प्रयोग है. चूंकि वो पिक्चर से निकलकर आया किरदार है, इसलिए उस पर स्पॉटलाइट रखी गई है. इसके लिए सिनेमैटोग्राफर राफे महमूद की भी तारीफ़ बनती है. उन्होंने बहुत क्लीन और सुंदर शॉट फिल्माए हैं. रंगों का बहुत सुंदर प्रयोग किया है. फ़िल्म के अंदर के और फ़िल्म के बाहर के रंगों में स्पष्ट अंतर पता किया जा सकता है. ऐसे ही फ़िल्म के अंदर और बाहर की लाइटिंग को भी आसानी से डिफरेंशिएट किया जा सकता है. फ़िल्म को इसकी लाइटिंग के लिए के एक एक्स्ट्रा नम्बर देना पड़ेगा. इसके लिए राफे महमूद को एक्स्ट्रा बधाई.

फ़िल्म के अंदर की दुनिया में स्थिरता है और बाहर की दुनिया में कैमरा शेक कर रहा है. ये भी एक बहुत सोचा समझा प्रयोग है. क्योंकि ये बाहरी दुनिया है जो झूठी है. अनस्टेबल है. यहां के किरदारों में नर्वसनेस है. RK जो फ़िल्म बना रहा है उस दुनिया में शांति है और उसके बाहर असल जिंदगी में 'भीड़ का ऐसा मंज़र शहर में बेचैनी, बेकरारी, बदहवासी' स्क्रीन के पार वाली दुनिया में सब है, पर असल में नहीं है. इस पार सब असल में है, पर सब नकली है.
RK/RKAY में मानव मन के अंदर एक और मन है. जो असलियत को पहचानना चाहता है. नकलीपन को मारना चाहता है. पूरी फ़िल्म इसी नकली और असली के बीच फ़र्क समझने और समझाने की कोशिश करती है. बेसिकली मूवी जीवन के अलग-अलग आस्पेक्ट्स की दार्शनिक पड़ताल है.
ये वैसी फ़िल्म है, जिसके लिए एक्सप्लेनर वीडियोज़ बनाए जाएंगे. एंडिंग एक्सप्लेन की जाएगी. फ़िल्म के नैरेटिव को समझाया जाएगा. ऐसी फ़िल्में और बननी चाहिए. सबसे ज़रूरी ऐसी फिल्मों को दर्शक मिलने चाहिए. जाइए, देखकर आइए. अच्छा सिनेमा आपका इंतज़ार कर रहा है.