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Kanguva - मूवी रिव्यू

कैसी है Suriya, Bobby Deol और Disha Patani की फिल्म Kanguva?

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शिवा ने अपनी फिल्म को बहुत लाउड बना दिया.
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यमन
14 नवंबर 2024 (Updated: 15 नवंबर 2024, 12:46 IST)
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साल 2024 चल रहा है मगर दुख की बात है कि हम अभी तक साउथ इंडियन फिल्मों की अच्छी डबिंग नहीं कर पा रहे हैं. मगर दुख, साल 2024 और साउथ इंडियन फिल्मों की खराब डबिंग से याद आती है ‘कंगुवा’. इस फिल्म को शिवा ने डायरेक्ट किया है. Suriya, Bobby Deol, Disha Patani और Yogi Babu लीड रोल्स में हैं. फिल्म साल 2024 से शुरू होती है. सूर्या ने फ्रांसिस नाम के आदमी का रोल किया है. ये एक बाउंटी हंटर है जो पुलिस के लिए काम करता है. यानी पुलिस के कहने पर लोगों को पकड़ता है. 

खैर एक मिशन के दौरान फ्रांसिस को एक बच्चा मिलता है. उसे तुरंत कोई कनेक्शन महसूस होता है. फिर कहानी पहुंचती है करीब 900 साल पहले. साल है 1070. हमें पांच टापू और वहां रहने वाले समुदायों के बारे में बताया जाता है. उनमें से एक है पेरुमाची. सूर्या का किरदार कंगुवा वहां के मुखिया का बेटा है. उनकी दुश्मनी है उदीरण के समुदाय से. बताया जाता है कि उदीरण बहुत क्रूर किस्म का आदमी है. उसका रोल बॉबी देओल ने किया है. कंगुवा के भूत में ऐसा क्या होता है जिसे उसे अपने वर्तमान में पूरा करना है, पूरी फिल्म इसी एक धागे से बांधने की कोशिश की गई है. 

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फिल्म के विज़ुअल्स को बड़े स्केल पर माउंट किया गया है. 

फिल्म में दो दुनिया हैं. शिवा ने जिस स्केल पर पुराने काल को माउंट किया है, वो तारीफ के काबिल है. फिर चाहे वो किरदारों की पोशाक हो या फिर उनके प्रॉप्स. देखकर लगता है कि उस मामले में बहुत इंवेस्टमेंट हुई है. बस यही बात कहानी के कॉन्टेक्स्ट में नहीं कही जा सकती. फिल्म जब आज के समय में घटती है, वहीं से कॉमेडी निकालने की बड़ी नाकाम कोशिश हुई है. सिली कॉमेडी के नाम पर कुछ भी चलता है और वो लैंड नहीं करता. नई ऑडियंस से रिएक्शन पाने के लिए ‘मोये मोये’ जैसे रेफ्रेंस डाले लेकिन सभी बेदम साबित होते हैं. इस समय को फिल्माने के लिए जो कैमरा की क्रिएटिव चॉइस ली गई, वो भी साफ नहीं होती. जैसे चार लोग बात कर रहे हैं और कैमरा हर तरफ से घूमघाम कर उन पर फोकस कर रहा है. आमतौर पर जब आप किसी भी फ्रेम को बनाते हैं, तो उसके पीछे एक वजह होती है. यहां ऐसा क्यों हुआ, ये समझ नहीं आता. मुमकिन है कि नए समय की वाइब को कैप्चर करने के लिए ऐसा ढंग अपनाया गया हो मगर वो फिल्म के हक में काम नहीं करता. 

फिर कहानी पहुंचती है पुराने समय में. उसका जो मांस है वो लाल है, गर्म है. लेकिन असली समस्या ढांचे यानी राइटिंग में है. दस हज़ार बार इस्तेमाल हो चुके ट्रोप्स को ठीक उसी तरह घिसा गया है. कहीं भी नयापन महसूस नहीं होता. कुछ महीनों पहले इंस्टाग्राम पर कुछ रील्स वायरल हुई थी. उनका टाइटल था कि साउथ की फिल्मों में हीरो की एंट्री कैसे होती है. रील वाला क्रिएटर कहता है कि वो धधकता जलजला है, आग है और तब हीरो की एंट्री होती है. ये फनी रील्स थीं. ‘कंगुवा’ के साथ दिक्कत ये है कि यहां ये सब सीरियसली हो रहा है. 

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सूर्या ने पूरी तरह से खुद को शिवा के विज़न के लिए कमिट किया है. 

बीते कुछ समय से मासी फिल्मों का पर्यायवाची लाउड होना बन चुका है. सब उसी फॉर्मूले पर अपनी गाड़ी दौड़ाना चाहते हैं. ‘कंगुवा’ भी यही करती है. ये फिल्म इतनी लाउड है कि आपका ठीक से ध्यान लगा पाना मुश्किल हो जाता है. फिल्म का आर्ट डायरेक्शन, म्यूज़िक की बदौलत आप उन पांच टापुओं की दुनिया में उतरना चाहते हैं. मगर कमज़ोर राइटिंग आपको इस सुख से वंचित रखना चाहती है. फिल्म की राइटिंग ने सबसे ज़्यादा नाइंसाफ़ी सूर्या के साथ की है. चाहे फ्रांसिस का रोल हो या कंगुवा का, उन्होंने हर तरह से खुद को शिवा के विज़न के सुपुर्द कर दिया. लेकिन फिल्म देखकर लगता है कि शिवा ने अपनी दुनिया को इतना बड़ा बनाया कि उसी में फंस गए.

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बॉबी के किरदार उदीरण को एक बॉक्स में सीमित कर के रख दिया गया. 

उदीरण बने बॉबी देओल को देखकर लगता है कि उन्हें सिर्फ एक ही ब्रीफ मिली थी, कि आपको भयावह दिखना है. वो काम उन्होंने पूरी ईमानदारी से किया है. कुछ शॉट्स में वो वाकई किसी लार्जर दैन लाइफ मॉन्स्टर जैसे प्रतीत होते हैं. पर उनका किरदार सिर्फ इतने में ही सिमट कर रह जाता है. बाकी दिशा पाटनी को मेकर्स ने सिर्फ ग्लैमर वाले पक्ष के लिए रखा. उन्हें जिन कॉमेडी सीन्स में रखा गया, उन्हें इतिहास के पन्नों में क्रिंज कहा जाएगा. 

‘कंगुवा’ की दुनिया को बेहतरीन ढंग से पेश करने की कोशिश हुई है. कुछ ऐसे शॉट्स हैं जिन्हें आप पॉज़ कर के देखना चाहेंगे. जैसे एक साथ 100 योद्धाओं के शवों का पहाड़ बना हुआ है. या जब कंगुवा चट्टान पर खड़ा होकर आग के गोले दागता है. लेकिन ये सिर्फ चुनिंदा पल हैं. हर फिल्म को आप इस बात से याद रखते हैं कि उसने आपको क्या महसूस करवाया. अंत में सही-गलत के पार सिर्फ इमोशन रह जाता है, और ‘कंगुवा’ कुछ भी महसूस नहीं करवा पाती.     
 

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