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किस्से 'जय संतोषी मां' फिल्म के: वो फिल्म जिसने करोड़ों छापे, लेकिन बनाने वालों का दिवाला निकल गया

'जय संतोषी मां' पर काम करने वाले लोगों के साथ आगे चलकर कुछ-न-कुछ ट्रैजेडी घटती चली गई. लोगों का मानना था कि फिल्म से देवी नाराज़ हो गईं.

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हिंदी सिनेमा की बात 'जय संतोषी मां' के बिना पूरी नहीं हो सकती.
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यमन
6 जून 2023 (Updated: 6 जून 2023, 12:30 PM IST)
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तारीख 30 मई, 1975. भारतीय लोकतंत्र पर लगने वाले कलंक को अभी कुछ समय था. इंदिरा गांधी 25 जून को इमरजेंसी लागू करने वाली थीं. तब तक सिनेमा जैसे अभिव्यक्ति के माध्यमों पर कोई सरकारी रोक नहीं थी. खैर, उस दिन मुंबई और आसपास के इलाकों में एक फिल्म रिलीज़ हुई. कोई बड़ा स्टार नहीं जुड़ा. बनाने वालों के नाम भी ज़्यादा लोगों ने नहीं सुने थे. हां, कवि प्रदीप ने फिल्म के लिए गीत ज़रूर लिखे थे. वही कवि प्रदीप, जिन्होंने सिगरेट के डिब्बे से कागज़ फाड़कर उस पर ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ की पहली पंक्तियां लिखी थीं.  

उस साल की सबसे बड़ी फिल्में थी ‘शोले’ और ‘दीवार’. अमिताभ बच्चन और सलीम-जावेद की छाप छोड़ने वाली फिल्में. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 30 मई को आई ये छोटी-सी फिल्म इन दिग्गजों को टक्कर देने वाली है. फिल्म के शुरुआती रुझानों को देखकर ऐसा कहना भी मुमकिन नहीं था. कहा जाता है कि मुंबई के एक सिनेमाहॉल में पहले शो से फिल्म ने सिर्फ 56 रुपए कमाए. दूसरे शो से 64 और तीसरे से 100 रुपए. ट्रेड एक्सपर्ट्स ‘जय संतोषी मां’ नाम की इस फिल्म को बंडल बोल चुके थे. आई और गई मान चुके थे. 

sholay 1975 movie
साल 1975 की सबसे बड़ी फिल्म ‘शोले’. 

उनके हिसाब से मायथोलॉजी फिल्मों का ट्रेंड एक दशक पहले ही खत्म हो चुका था. ऐसे में कौन उस देवी पर बनी फिल्म देखने आएगा, जिसके बारे में ज़्यादातर लोगों ने सुना तक नहीं था. फिल्म जिन चुनिंदा सिनेमाघरों में लगी थी, वहां लड़खड़ा ही रही थी. दस दिन बीते. अचानक ही दिशा बदल गई. ऐसा कैसे मुमकिन हुआ इसका जवाब किसी भी सिनेमा के जानकार के पास नहीं था. लोगों ने इसे दैवीय इच्छा का नाम दिया. ‘जय संतोषी मां’ के शोज़ में जनता बड़ी संख्या में पहुंचने लगी. थिएटर वालों ने फिल्म के शोज़ बढ़ा दिए. ये भी पढ़ने को मिलता है कि गांव-देहात से लोग अपने परिवारों के साथ सिर्फ ये फिल्म देखने के लिए शहर आते. फिल्म में संतोषी माता का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा ने एक इंटरव्यू में इससे जुड़ा अनुभव साझा किया था. उनके मुताबिक मुंबई के बांद्रा में मायथोलॉजी फिल्मों का मार्केट नहीं था. वहां ये फिल्में नहीं चलती थीं. लेकिन ‘जय संतोषी मां’ उसी इलाके के सिनेमाघर में 50 हफ्तों तक चली.  

देशभर में ‘जय संतोषी मां’ के शोज़ से सिनेमाघर रोशन थे. ये माना जाता है कि इस फिल्म को सुपरहिट करवाने में महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ था. फिल्म की प्रमुख ऑडियंस में औरतें ही थीं. इसलिए उनके लिए कई सिनेमाघरों ने युक्ति निकाली. ‘जनाना शोज़’ रखे गए. ये शोज़ शनिवार को होते. क्योंकि उस दिन बच्चों का स्कूल सिर्फ आधे दिन का होता था. तो बच्चों के स्कूल से आने के बाद घर की औरतें फिल्म देखने आ जातीं. ‘जनाना शोज़’ सिर्फ औरतों और बच्चों के लिए ही होते थे. जैसे ही सिनेमाघर के किवाड़ बंद होते वो किसी मंदिर में तब्दील हो जाता. 

anita guha
‘जय संतोषी मां’ से पहले भी अनीता गुहा ने मायथोलॉजी फिल्में की थीं. 

कहा जाता है कि ‘मैं तो आरती उतारूं रे संतोषी माता की’ भजन आने पर औरतें आरती की थाल तैयार रखतीं. उषा मंगेशकर ने इस गाने को गाया था और सी अर्जुन ने संगीत दिया था. आगे चलकर इसी गाने को मंदिरों में संतोषी माता की आरती के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा. परदे की तरफ फूल उछालती. सिक्के फेंकती. गरबा करतीं. लोग सिनेमाघरों के बाहर ही अपने जूते-चप्पल उतारते. फिल्म खत्म होने के बाद जब सफाई कर्मचारी आते, तो देखते कि उनके पांव के नीचे की ज़मीन खन-खन बज रही है. ‘जय संतोषी मां’ की लागत को लेकर अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं. कोई कहता है कि इसका बजट तीन से साढ़े तीन लाख रुपए के बीच था. कोई बताता है कि फिल्म 11 लाख रुपए में बनी तो कोई 15 लाख मानता है. 

फिल्म के बजट को लेकर तय आंकड़ा नहीं मिलता. लेकिन यही बताया जाता है कि इसे कुछ लाख रुपयों के सीमित बजट में ही बनाया गया. हालांकि फिल्म ने पैसों के अंबार लगा दिए. ट्रेड रिपोर्ट्स के मुताबिक ‘जय संतोषी माता’ ने 5 से 10 करोड़ रुपए के बीच की कमाई की थी. ये साल 1975 की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली दूसरी हिंदी फिल्म बनी. इससे ऊपर सिर्फ ‘शोले’ थी. और इससे पीछे थीं ‘दीवार’, ‘संन्यासी’ और ‘प्रतिज्ञा’ जैसी बड़ी फिल्में. ‘जय संतोषी मां’ ने जो कारनामा कर दिखाया, उसके बाद बनाने वालों को उम्मीद थी कि अच्छे दिन आ गए. मगर ऐसा हुआ नहीं. 

फिल्म ने करोड़ों छापे लेकिन प्रोड्यूसर को खुद को दिवालिया घोषित करना पड़ा. वितरक के भी हाथ कुछ नहीं आया. फिल्म में संतोषी मां बनीं एक्ट्रेस को लंबी बीमारी से जूझना पड़ा. बाकी किसी एक्टर का सितारा भी कभी बुलंद नहीं हो सका. ‘जय संतोषी मां’ के बनने के पीछे के ऐसे ही किस्सों के बारे में बताएंगे. 

# फिल्म एक, कहानी अनेक 

जब डायरेक्टर विजय शर्मा ने अनीता गुहा को ‘जय संतोषी मां’ ऑफर की, तब वो असमंजस में थीं. पहली वजह तो ये कि वो पहले ही काफी सारी मायथोलॉजिकल फिल्में कर चुकी थीं. और अब टाइपकास्ट नहीं होना चाहती थीं. दूसरी वजह थी कि वो संतोषी माता के बारे में कुछ नहीं जानती थीं. उन्होंने ऐसी किसी देवी का नाम ही पहली बार सुना था. बता दें कि अनीता ऐसा मानने वाली अकेली शख्स नहीं थीं. 

इस फिल्म के आने से पहले संतोषी माता को क्षेत्रीय देवी की तरह देखा जाता था. Wendy Doniger की किताब The Hindus के मुताबिक 1960 के दशक में उत्तरप्रदेश के कई इलाकों में औरतें संतोषी माता की पूजा करतीं. उनके नाम पर 16 शुक्रवार के व्रत रखे जाते. तो फिर संतोषी माता पर फिल्म बनाने का आइडिया आया कहां से. उसकी जगह ऐसे देवता को चुना जा सकता था जिसके बारे में लोग पहले से ही जानते हो. फिल्म के आइडिया का बीज पड़ने की अलग-अलग कहानियां पढ़ने को मिलती हैं. संतोषी माता के काफी गिने-चुने भक्त थे. उनमें से एक थीं विजय शर्मा की पत्नी. एक जगह लिखा मिलता है कि उनकी पत्नी ने विजय को प्रोत्साहित किया. कि वो संतोषी माता पर फिल्म बनाएं. ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को उनके बारे में पता चले. 

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फिल्म के खिलाफ केस भी हुआ था कि भगवानों को गलत रोशनी में दिखाया है. 

हालांकि फिल्म में बिरजू का किरदार निभाने वाले आशीष कुमार ऐसा नहीं मानते. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें उस फिल्म का आइडिया आया था. उनके मुताबिक उन्हें संतान नहीं हो रही थीं. पत्नी ने 16 शुक्रवार के व्रत रखने शुरू किए. वो बताते हैं कि 11वें शुक्रवार तक उनकी पत्नी प्रेग्नेंट थीं. उन दोनों को एक बेटी पैदा हुई. इंटरव्यू के मुताबिक इसके बाद वो ‘संतोषी मां’ का आइडिया लेकर प्रोड्यूसर सतराम रोहरा के पास गए. सतराम किसी ज़माने में सिंधी फिल्मों के लिए गाते थे. लेकिन उन दिनों वो सिर्फ फिल्में प्रोड्यूस कर रहे थे. आशीष के मुताबिक सतराम को उनका आइडिया पसंद आया और फिल्म के लिए राज़ी हो गए. 

# भगवान को बुरा दिखाया और एक औरत कोर्ट पहुंच गई 

साल 1975 में आई ‘जय संतोषी मां’ को देशभर में देखा जा रहा था. ऊंची मीनारों वाले शहरों से होते हुए फिल्म छोटे शहरों तक पहुंच चुकी थी. लाखों-करोड़ों लोगों की तरह इस फिल्म को गुजरात की रहने वालीं उषाबेन ने भी देखा. जहां उनके आसपास के लोग फिल्म देखकर खुशी मना रहे थे, वो तिलमिला उठीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस फिल्म से किसी को कोई आपत्ति क्यों नहीं. किसी की भावनाओं को ठेस क्यों नहीं पहुंची. 

किसी और का नहीं पता लेकिन उन्हें बहुत बुरा लगा था. इसलिए वो सीधा अपनी शिकायत लेकर कोर्ट पहुंच गई. उन्होंने ये शिकायत की थी भाग्यलक्ष्मी चित्र मंदिर नाम की कंपनी के खिलाफ. इसी प्रोडक्शन कंपनी ने फिल्म बनाई थी. खैर, उषाबेन का कहना था कि फिल्म में भगवानों को गलत तरीके से दिखाया गया है. फिल्म कहानी बताती है सत्यवती नाम की लड़की की. वो संतोषी माता की बड़ी भक्त होती है. उसकी शादी के बाद ससुराल वाले परेशान करने लगते हैं. दिखाया जाता है कि ऐसे में वो संतोषी माता का ही स्मरण करती है. ये देखकर लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती जैसी देवियां बुरा मान जाती हैं. कि सत्यवती उन्हें याद करने की जगह संतोषी माता को क्यों पुकारती है. 

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कहा जाता है कि औरतें फिल्म खत्म होने के बाद अपना व्रत खोलतीं.  

फिल्म में आगे वो तीनों देवियां सत्यवती के लिए मुश्किल खड़ी करना शुरू कर देती हैं. ताकि उसकी आस्था की परीक्षा ले सकें. बस इसी बात पर उषाबेन को आपत्ति थीं. कि फिल्म वाले कुछ भी दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. अपनी फिल्म बेचने के लिए भगवानों को बुरा दिखा रहे हैं. 12 फरवरी, 1976 को गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस ए देसाई की बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की. उनका कहना था कि अगर आपकी भावनाएं आहत हो रही हैं, तो आप फिल्म मत देखिए. उषाबेन का कहना था कि संतोषी माता का पुराणों में ज़िक्र नहीं मिलता. उनके नाम पर रखे जाने वाले व्रत दंत कथाओं से आए हैं. इस पर कोर्ट का रुख साफ था. कि वो फिल्म बनाने वालों की अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं छीन सकते. केस खारिज हो गया. 

# “मेरे मरने से पहले मुंह पर मेकअप कर देना”

1950 के दशक में एक टैलेंट हंट कॉम्पीटिशन जीतने के बाद अनीता गुहा का प्लान था जल्द से जल्द फिल्मों से जुडने का. लेकिन निजी कारणों की वजह से ऐसा नहीं हो सका. बहरहाल, कुछ सालों बाद वो कलकत्ता से बंबई आ ही गईं. लेकिन इस शहर में कोई रास्ता सुझाने वाला नहीं था. फिल्में मिलने लगी थीं. लेकिन कोई ये बताने वाला नहीं था कि ये करो और वो वाली छोड़ दो. ‘यहूदी की बेटी’ से लेकर ‘मुड़ मुड़ के ना देख’ तक वो सब तरह की फिल्में करती चली गईं. इनमें से ज़्यादातर वो थीं, जिन्हें सस्ते बजट से तैयार किया जाता. 

बहुतायत में ऐसी फिल्में करने के बाद उनके करियर में मायथोलॉजी का दौर आया. ‘सम्पूर्ण रामायण’, ‘कण कण में भगवान’, ‘देव कन्या’ और ‘महारानी पद्मिनी’ जैसी फिल्में जुड़ती चली गईं. जब तक उन्हें समझ आता कि ऐसी फिल्मों में वो टाइपकास्ट हो चुकी हैं, तब तक देर हो चुकी थी. उनके हिस्से ‘आराधना’ और ‘अनुराग’ जैसी बड़ी फिल्में आई भीं, तो वहां रोल यादगार नहीं थे. ऐसी फिल्मों से गुज़रती हुईं वो पहुंची ‘जय संतोषी मां’ तक. फिल्म के डायरेक्टर विजय शर्मा ने अनीता को लेकर इससे पहले ‘महापावन तीर्थ यात्रा’ भी बनाई थी. 

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‘मैं तो आरती उतारूं’ भजन ने फिल्म को लोगों तक पहुंचाने का काम किया. 

अनीता ने बताया था कि ‘जय संतोषी मां’ को हर दूसरी फिल्म की तरह ही देख रही थीं. फिल्म में उन्हें ही भगवान वाला रोल करना था. पूरी फिल्म में उनकी ज़रूरत नहीं थी. उनके हिस्से के सीन सिर्फ 10 से 12 दिनों में ही शूट किए जाने थे. वो पहले दिन सेट पर पहुंची. सीमित संसाधनों की वजह से सब कुछ जल्दी शूट कर के निपटाना था. इसी हड़बड़ाहट में अनीता का नाश्ता छूट गया. दोपहर के खाने का वक्त हुआ. तब भी काम ज़्यादा था. उन्होंने खाना नहीं खाया. शाम होते-होते ये बात पता चली विजय शर्मा को. उन्होंने पूरी टीम के लिए शाम को खाने की व्यवस्था करवाई. 

लेकिन अब अनीता ने खुद की मर्ज़ी से नहीं खाया. और ऐसा किसी नाराज़गी में आकर नहीं किया. उन्होंने अपने उस दिन को व्रत की तरह माना. बताते हैं कि अनीता ने जितने दिन ‘जय संतोषी मां’ की शूटिंग की, उस हर दिन व्रत रखा. फिल्म पर उनकी और दूसरों की मेहनत रंग लाई. लोगों ने उनका बाहर निकलना मुश्किल कर दिया. जहां भी वो दिखतीं, लोग उनके पैरों में गिर जाते. उन्हें देखकर संतोषी मां-संतोषी मां कहकर पुकारने लगते. औरतें उनकी गोद में अपने बच्चों को रख देतीं. कि मां इसे आशीर्वाद दो. 

लोगों को इस बात से सरोकार नहीं था कि अनीता गुहा कौन हैं. वो बस संतोषी माता को देखना चाहते थे. अनीता के साथ वो होने वाला था, जो एक दशक बाद रामानंद सागर की ‘रामायण’ के कलाकारों के साथ हुआ. अनीता ने ‘जय संतोषी मां’ के बाद और भी फिल्में की. लेकिन वो बिल्कुल भी नहीं चली. इशारा साफ था. लोग उन्हें सिर्फ संतोषी मां के अवतार में देखकर ही खुश थे. कुछ फिल्में करने के बाद अनीता इंडस्ट्री से दूर हो गईं. उसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि वापसी की हर मुमकिन संभावना खत्म सी हो गई. 

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अनीता ने त्वचा की बीमारी के बाद बाहर आना बंद कर दिया. 

अनीता को Leukoderma हो गया. इस त्वचा रोग में शरीर पर सफेद धब्बे पड़ने लगते हैं. लेट टेलीविजन होस्ट तबस्सुम ने बताया था कि बचपन से ही अनीता को मेकअप का शौक था. स्कूल में डांट खाना मंज़ूर था लेकिन वो मेकअप नहीं छोड़तीं. Leukoderma के बाद उनके लिए मेकअप के मायने बदल चुके थे. वो खुद को अपना नहीं पा रही थीं. उन्होंने बाहरी दुनिया के लिए अपने दरवाज़े बंद कर लिए. कैमरे के सामने आना बंद कर दिया. 20 जून 2007 को मुंबई में कार्डिएक अरेस्ट की वजह से उनकी मौत हो गई. उनके करीबी बताते हैं कि अपनी मौत को लेकर वो कहा करती थीं कि अंतिम संस्कार से पहले मेरे चेहरे पर मेकअप कर देना. 

# फिल्म ने करोड़ों कमाए, बनाने वालों का दिवालिया निकल गया

‘जय संतोषी मां’ के शुरुआत में लिखा आता है, ‘ये फिल्म सिर्फ संतोषी मां के आशीर्वाद से ही बन पाई है’. उस समय फिल्म से जुड़े लोगों का ऐसा ही मानना भी था. लेकिन अब फिल्म पर बात करने वाले ऐसा नहीं मानते. उनका मानना है कि फिल्म ने देवी को नाराज़ कर दिया. तभी इससे जुड़े लोगों का भला नहीं हो पाया. ज़्यादातर लोग गुमनामी में ही रहे. फिल्म ने करोड़ों रुपए छापे. लेकिन बनाने वालों तक वो पैसा कभी पहुंचा ही नहीं. 

बताया जाता है कि ‘जय संतोषी मां’ को कोई वितरक लेने को तैयार नहीं था. करीब 50 वितरकों को ये फिल्म दिखाई गई. सबको लगता था कि ये मामला रिस्की है. अंत में जाकर केदारनाथ अग्रवाल और उनके पार्टनर संदीप सेठी ने फिल्म को डिस्ट्रिब्यूट करने की ज़िम्मेदारी ली. फिल्म बनकर रिलीज़ हुई. ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर बनी. लेकिन बनाने वालों को पैसे की शक्ल देखना नसीब न हुआ. प्रोड्यूसर सतराम रोहरा ने खुद दिवालिया घोषित कर दिया. सामने आया कि केदारनाथ के भाइयों ने उन लोगों के साथ धांधलेबाज़ी की. और बीच में से खुद सारी कमाई लेकर पार हो गए. ये पैसा सतराम या केदारनाथ तक नहीं पहुंचा. इस घटना के कुछ साल बाद केदारनाथ को लकवे का अटैक आ गया था. 

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फिल्म ने देशभर में संतोषी मां को पॉपुलर कर दिया. 

फिल्म के रिलीज़ होने के बाद एक्टर आशीष कुमार ने संदीप सेठी के खिलाफ केस कर दिया था. उनका कहना था कि 15 पर्सेंट मुनाफा देने की बात कही गई थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हालांकि संदीप का कहना था कि आशीष झूठ बोल रहे हैं. उनके मुताबिक आशीष ने 35,000 रुपए लेकर फिल्म के राइट्स और 15 पर्सेंट मुनाफा छोड़ दिया था. मामला कोर्ट में चलता रहा. कुछ समय बाद आशीष ने अपनी शिकायत वापस ले ली. इस कानूनी रस्साकशी से किसी का भला नहीं हुआ.   

हिंदी सिनेमा के इतिहास की किताब बिना ‘जय संतोषी मां’ के पूरी नहीं हो सकती. जिस वक्त ‘शोले’ सिनेमाघरों में चिंघाड़ रही थी, उस वक्त ये फिल्म बिना किसी स्टार पावर के दम पर हाउस फुल कर रही थी. उसके कलाकारों के जीवन को कुछ समय तक चकाचौंध से भर दिया. बस इसकी लेगसी उतनी सुंदर नहीं रह पाई. फिल्म से जुड़े लोगों के लिए आज की तारीख में उसे याद करना चुभनेवाला अनुभव बन गया.

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