वेब सीरीज़ रिव्यू - 1962: द वॉर इन द हिल्स
कैसी है 1962 की भारत-चीन जंग पर बनी ये सीरीज़?
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मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में 1962 की जंग को ज़्यादा स्पेस नहीं मिला. उसी जंग पर बनी ये सीरीज़ क्या कारगर साबित हुई?
डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर एक वेब सीरीज़ आई है. ‘1962: द वॉर इन द हिल्स’. नाम से ही शो की थीम बड़ी क्लियर है. 1962 में हुआ इंडो-चाइना युद्ध. वो युद्ध, जिसे हमारे मेनस्ट्रीम सिनेमा में ज़्यादा जगह नहीं मिली. ज़्यादातर फिल्मों ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जंग पर ही अपना फोकस रखा. एक वजह ये भी हो सकती है कि 1962 की जंग में हमें बड़ी क्षति पहुंची थी. लेकिन अब ये वेब सीरीज़ आ रही है. ये कोशिश कितनी कारगर साबित हुई है, इस पर बात करेंगे. जानेंगे शो से जुड़े तमाम पहलू.
1962 जंग को बैकड्रॉप लेकर बनाई गई सीरीज़.
# कहानी क्या है 1962: The War in the Hills की? शो के शुरुआत में डिस्क्लेमर आता है. कि ये शो 1962 की जंग पर आधारित नहीं, बल्कि उसका बैकड्रॉप लेकर बनाया गया है. यानि उस समय के हालात को लेकर एक काल्पनिक कहानी रची गई है. कहानी है मेजर सूरज सिंह और उसकी सी-कंपनी की. वो 125 जवान, जिन्होंने 3000 चीनी सैनिकों का मुकाबला किया. वो भी लद्दाख की चरम ठंड में. जहां न उनके पास सर्दी के कपड़े थे, न ही उस समय के हिसाब से मॉडर्न बंदूकें.

कहानी 1962 और 2020 के बीच जम्प करती है.
ये कहानी है उन परिवारों की जिनके भाई, पिता, बेटे दुश्मन से लड़ने निकल पड़े. और ये पीछे रह गए. अकेलेपन और इंतज़ार के साथ. ये कहानी है उन जवानों की जिनका दुश्मन सिर्फ सामने खड़ा चीनी सैनिक नहीं. बल्कि वो अनगिनत चीज़ें हैं जिनसे वो अपने दिमाग में जूझ रहे हैं. लड़ रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो शो को इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि ये सिर्फ जंग के मैदान तक ही सिमट के न रह जाए. उसके बाहर की दुनिया इन जवानों के लिए कैसी है, ये भी ऑडियंस को दिखा सकें. पर क्या मेकर्स अपनी कोशिश में कामयाब हो पाए? तो जवाब है नहीं. और इसके क्या कारण रहे, अब उन्हीं को जानेंगे. # अपने ही सब-प्लॉट में खो गए शो 1962 और 2020 के बीच जम्प करता रहता है. 2020 में हुए इंडिया और चाइना के बॉर्डर तनाव की न्यूज़ देख मेजर सूरज की बीवी शगुन को 1962 की जंग याद आ जाती है. जिसके बाद वो अपने परिवार को उस युद्ध के किस्से बताने लगती है. शो मेजर सूरज से खुलता है. और धीरे-धीरे उनकी कंपनी के सिपाहियों की कहानियां बताने लगता है. जितने ज़्यादा किरदार जुडते हैं, उतने ही सब-प्लॉटस में बढ़ोतरी होती है. लेकिन शो ने इन सारे सब-प्लॉटस के साथ इंसाफ नहीं किया. कुछ को ज़रूरत से ज़्यादा फुटेज दी, तो कुछ के तार जोड़ना ही भूल गए. और ये शिकायत है शो के राइटर चारुदत्त आचार्य से.

मेन प्लॉट से हटकर सब-प्लॉट पर ज़्यादा ध्यान दिया.
अक्सर पुराने समय पर बने शोज़ और मूवीज़ में एक चीज़ देखी जाती है. कि उस समय के किरदार आज की मानसिकता के साथ लिख दिए जाते हैं. अगर उन्हें अपने समय के हिसाब से लिखा भी जाता है तो रेफरेंस के लिए उस समय के फिल्मी किरदार उठा लिए जाते हैं. यहां भी ऐसा कई मौकों पर देखने को मिलेगा. एक ऐसा ही सीन बताते हैं. एक लड़का और लड़की प्यार में हैं. लड़की बड़े घर की, और लड़का घास काटने वाले का बेटा. लड़के के घरवाले लड़की के घर जाते हैं. शादी की बात करने. वहां लड़की के घरवाले इन्हें नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जो कि एक पॉइंट के बाद क्रिंज लगने लगता है. यहां तक कि 70 के दशक के टिपिकल डायलॉग तक यूज़ किए हैं. सबसे फेमस वाला भी. कि जितना तुम्हारा बेटा कमाता है, उतना तो हमारी बेटी के एक हफ्ते का खर्चा है. तब की फिल्मों में शायद ये डायलॉग पसंद किए जाते होंगे, पर रिएलिटी से कोसों दूर लगते हैं. # हैप्पी एंडिंग की ज़िद मेनस्ट्रीम सिनेमा में एक समय ये धारणा बड़ी कॉमन थी. अगर आपकी फिल्म हैप्पी नोट पर खत्म हुई तो पैसा छापेगी. और अगर सैड नोट पर खत्म हुई तो बस फिल्म फेस्टिवल्स के चक्कर ही काटेगी. लेकिन पिछले कुछ सालों में आई कंटेंट की बाढ़ ने ये बदल दिया है. कितने ही शोज़ और फिल्में हैं, जिनके एंड पर जनता रोई और उन्हें दिल से अपना लिया. लेकिन इस शो के मेकर्स ये बात नहीं समझे.

शो की कास्ट उसकी सबसे बड़ी ताकत है.
कायदे से शो की कहानी को युद्ध के परिणाम पर खत्म हो जाना चाहिए था. वो परिणाम जो भारत के फ़ेवर में नहीं आया था. और ये कोई स्पॉइलर नहीं है. लेकिन फिर भी इसकी एंडिंग के साथ ज़बरदस्ती की खींच-तान की गई. एक हैप्पी एंडिंग देने के लिए. ताकि शो खत्म होने के बाद जनता खुशी-खुशी अपनी स्क्रीन ऑफ करे. सच कहूं तो ‘नटसम्राट’, ‘वास्तव’ और ‘शिक्षणाच्या आयचा घो’ जैसी फिल्में डायरेक्ट करने वाले महेश मांजरेकर से ये उम्मीद नहीं थी. शो के टोटल 10 एपिसोडस इन्होंने ही डायरेक्ट किए हैं. # सबसे मज़बूत पिलर है कास्ट शो की राइटिंग और एक्ज़िक्यूशन के साथ लिए फैसले शायद ढीले हैं, लेकिन कास्ट के मामले में ऐसा कहना सरासर गलत होगा. शो की कास्ट ऐसी है कि किसे गिनें और किसे छोड़ें. सबसे पहले बात सी-कंपनी के मेजर सूरज की. जिनका रोल निभाया है अभय देओल ने. एक नैचुरल एक्टर. अपने हर किरदार की स्किन में कम्फर्टेबल हो जाते हैं. यहां एक आदर्शवादी लीडर के रोल में दिखे. जिसे खुद के चैन से पहले देश की चिंता है. स्क्रीन पर जितनी देर रहे, एफर्टलेस एक्टिंग का नमूना पेश करते रहे. कहानी की नैरेटर और उनकी पत्नी शगुन बनी हैं माही गिल. ‘देव डी’ के बाद दोनों फिर स्क्रीन शेयर कर रहे हैं. शगुन एक ऐसा किरदार है, जो अपने पति की ज़िम्मेदारियों को बखूबी समझती है. घर से बाहर की ज़िम्मेदारियों को. और माही को ये स्ट्रॉन्ग फीमेल किरदार निभाने में कहीं मुश्किल नहीं हुई.

मियांग चैंग पहली बार विलेन बने और अपनी छाप छोड़ गए.
इंडियन वेब सीरीज़ वर्ल्ड के पॉपुलर फेस सुमित व्यास भी शो का हिस्सा हैं. सूरज की कंपनी के सिपाही बने हैं. एक और फैमिलियर फेस आपको देखने को मिलेगा. मराठी फिल्म ‘सैराट’ फ़ेम आकाश ठोसर का. यहां उन्होंने सिपाही किशन का किरदार निभाया है. आकाश ने अपने सारे डायलॉग्स हिंदी में बोले हैं. और ना चाहते हुए भी मुझे उनकी हिंदी सुनकर ‘रांझणा’ वाले धनुष की हिंदी याद आ रही थी.

'सैराट' वाले आकाश ठोसर भी शो का हिस्सा हैं.
अब ज़रा बात दुश्मन पार्टी की. खासतौर पर उनके एक मेजर लिन की. जिसे निभाया मियांग चैंग ने. चैंग को आपने पहले भी देखा है. ‘बदमाश कंपनी’ और ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ जैसी फिल्मों में. लेकिन यहां इनका किरदार एकदम हटके है. विलेन लेकिन उसूलों वाला विलेन. ऐसा किरदार कि अगर दुशमन फौज में नहीं होता तो पक्का आप इसके फैन हो जाएं. सिपाही चाहे इधर का हो या उधर का, लिन उसे पूरी इज़्ज़त देना जानता है. स्क्रीन पर टिपिकल ब्लैक किरदारों को देखने के बाद ऐसे किसी किरदार को देखना रिफ्रेशिंग था. और जिस आसानी से चैंग ने लिन के किरदार पर पकड़ बनाई, उसका तो क्या ही कहना. उन्हें देखकर आप दुआ करते हैं कि चैंग आगे जाकर और भी ग्रे किरदारों को अपनी फिल्मी जर्नी का हिस्सा बनाएं. # दी लल्लनटॉप टेक 1964 में धर्मेन्द्र और बलराज साहनी की एक फिल्म आई थी. ‘हकीकत’. 1962 की इंडो-चाइना जंग पर ही आधारित थी. फिल्म कुछ खास चली नहीं. उसके बाद 1962 की लड़ाई को परदे पर दिखाना शायद किसी ने ज़रूरी नहीं समझा. वॉर फिल्म्स के नाम पर हम इंडिया-पाकिस्तान में ही लगे रहे. जब ये सीरीज़ आई तो लगा कि अपना मार्क छोड़ेगी. 1962 की लड़ाई पर बने गिने-चुने प्रोजेक्ट्स में अपना नाम टॉप पर दर्ज करवाएगी. लेकिन ये उम्मीद रखना गलत ही साबित हुआ.

शो को लेकर हम 'योर टाइम, योर चॉइस' वाली नसीहत ही दे सकते हैं.
शो ने इतनी चीज़ें फैला दी जिन्हें समेटना मुश्किल हो गया. एक्शन सीन वाले एपिसोडस के अलावा कोई भी एपिसोड आपका अटेंशन बरकरार नहीं रख पाएगा. जहां किसी इमोशनल सीन की उम्मीद होने लगती, वहां धम से म्यूज़िक तेज़ हो जाता. और पूरे सीन पर मिट्टी फेर जाता है. शो डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रहा है. अगर देखना चाहें तो आपकी मर्ज़ी. नहीं भी देखेंगे, तो किसी नुकसान में नहीं रहेंगे. फैसला आपका.

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