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सूरजभान, पप्पू यादव से शहाबुद्दीन तक, बिहार के 'बाहुबली' कब और कैसे बने 'माननीय'?

Bihar की सियासत में एक समय राजनेता चुनाव जीतने के लिए बाहुबलियों का सहारा लेते थे. साल 1977 के बाद से ये सिलसिला बदल गया. बाहुबली खुद माननीय बनने का सपना देखने लगे. इनमें से कई लोग तो अपने रसूख के दम पर निर्दलीय विधानसभा तक पहुंच भी गए.

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सूरजभान, पप्पू यादव और शहाबुद्दीन पहली बार निर्दलीय विधायक बने थे. (फाइल फोटो, इंडिया टुडे)
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आनंद कुमार
26 सितंबर 2025 (Updated: 26 सितंबर 2025, 05:52 PM IST)
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साल 1957 का बिहार विधानसभा चुनाव. बेगूसराय जिले का रचियाही गांव बूथ लूट के लिए चर्चा में आया. तब से बिहार में ये ट्रेंड सा बन गया. नेता अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए बूथ लूटवाते थे. इसमें उनकी मदद करते थे स्थानीय 'बाहुबली'. बदले में नेता उनको संरक्षण देते थे. ये सिलसिला साल 1970 के दशक की शुरुआत तक चला. लेकिन फिर राजनेताओं की ताकत और रसूख देख बाहुबलियों का मन भी मचल गया. वो नेताओं की जीत के लिए जोर आजमाइश लगाने के बजाय खुद ही सियासत की पिच पर उतरने लगे. 

हालांकि तब राजनीतिक पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देने से बचती थीं. लेकिन अपने भय के साम्राज्य के सहारे ये बाहुबली निर्दलीय ही चुनाव में उतरने लगे. इनमें से कुछ शुरुआत में असफल हुए. लेकिन फिर सफलता भी मिली और राजनीतिक दलों का साथ भी. पहली बार निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर विधानसभा पहुंचने वाले ऐसे प्रत्याशियों की एक लंबी फेहरिस्त है. इनमें सूरजभान सिंह, शहाबुद्दीन, मुन्ना शुक्ला, पप्पू यादव और राजन तिवारी जैसे कई नाम हैं. लेकिन ये सिलसिला शुरू किया वीरेंद्र सिंह उर्फ वीर महोबिया और वीर बहादुर सिंह जैसे बाहुबलियों ने. इस लिस्ट में काली पांडे का नाम भी जोड़ सकते हैं. लेकिन उन्होंने साल 1980 में निर्दलीय लोकसभा का चुनाव जीता था.

'वीर महोबिया कड़ाम-कड़ाम, वोट गिरेगा धड़ाम-धड़ाम'

वीरेंद्र सिंह उर्फ ‘वीर महोबिया’ वैशाली के बड़े बाहुबली थे. महोबिया दसों अंगुलियों में अंगूठी पहनते थे. और उन्हें हाथी पालने का शौक था. लाइव सिटीज से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर एक किस्सा बताते हैं. जिससे उनके दबदबे का पता चलता है. वीर महोबिया की बेटी की शादी होनी थी. जनवासे (जहां बारात ठहराया जाता है) की जगह पर पानी की समस्या थी. महोबिया के लोगों ने उनको समस्या के बारे में बताया. महोबिया तत्काल पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट (PHED) के अधिकारियों के पास पहुंच गए. समस्या बताई और कहा रास्ता निकालना आपका काम है. यह कह कर वो वहां से चले गए. फिर रातोरात जनवासे की जगह पर 150 से ज्यादा नल लगा दिए गए.

वीर महोबिया कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के करीबी माने जाते थे. चुनावों में उनके लिए बूथ लूटने का आरोप भी लगता था. साल 1977 आते-आते उनकी भी राजनीतिक महत्कांक्षा परवान चढ़ी. उन्होंने कांग्रेस से टिकट लेने की कोशिश की. लेकिन जगन्नाथ मिश्रा भी उनको टिकट नहीं दिला सके. महोबिया निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे. लेकिन बुरी तरह हार गए. वो पांचवें स्थान पर रहे. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. फिर से चुनाव की तैयारी में जुट गए. इस बार उन्होंने अपने तेवर बेहद सख्त कर लिए. वो गांव में वोट मांगने जाते तो लोगों से कहते, “आप मेरे भाई हैं. चाचा है. आपके यहां से वोट नहीं मिला तो बाद में समझिएगा.” 

इस चुनाव में उनके समर्थक नारे लगाते थे ‘वीर महोबिया कड़ाम-कड़ाम, वोट गिरेगा धड़ाम-धड़ाम.’ वीर महोबिया की ट्रिक काम कर गई. और इस चुनाव में वो सफल रहे. उन्होंने करीबी मुकाबले में जनता पार्टी सेक्युलर के प्रत्याशी शिव प्रसाद सिंह को 1687 वोटों से पराजित किया.

पिता की हत्या के बाद बने बाहुबली

साल 1977 में जेपी आंदोलन की लहर पर सवार होकर बिहार में जनता पार्टी की सरकार बनी. लेकिन जनता दल में शामिल दलों और नेताओं की आपसी फूट के चलते सरकार चल नहीं पाई. जनता पार्टी अलग-अलग धड़ो में बिखर गई. साल 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए. एक बार फिर से इंदिरा गांधी की लहर चली. अब येन केन प्रकारेण जीत ही पार्टियों का एकमात्र मकसद रह गया. इस दौर में उनको भी अपने लिए मौका दिखा जो अब तक नेताओं के लिए बूथ लूटते थे. और जिन्हें बाहुबली का तगमा दिया जाता था. 

ऐसे ही एक बाहुबली थे बिहार के बक्सर जिले के रहने वाले वीर बहादुर सिंह. उनके पिता बक्सर के बगेन गांव के बड़े किसान थे. नक्सलियों ने उनकी हत्या कर दी थी. इसके बाद वीर बहादुर ने बंदूक पकड़ ली. शुरुआत में उनकी लड़ाई नक्सलियों से रही. लेकिन जल्दी ही उनकी पहचान एक जातीय नेता के तौर पर हो गई. राजपूत समुदाय उनको नायक मानने लगा.

 इसके बाद वीर बहादुर सिंह ने अपनी धमक कायम रखने के लिए हिंसा का सहारा लिया. उन पर 50 से ज्यादा नक्सलियों की हत्या का आरोप लगा. इस बीच साल 1977 का चुनाव आया. उन्होंने किस्मत आजमाने की सोची. वो जगदीशपुर विधानसभा सीट से निर्दलीय खड़ा हुए. लेकिन करीबी मुकाबले में चार हजार वोटों से हार गए. जीतने वाले उम्मीदवार भी निर्दलीय थे. नाम था सत्य नारायण सिंह. इस हार ने वीर बहादुर को हौसला दिया कि आगे वो सफल हो सकते हैं.

1977 में मिली हार के बाद वीर बहादुर सिहं ने अपने क्षेत्र के चुनावी समीकरण पर गौर किया. उन्हें पता चला कि इस विधानसभा में यादव और कोइरी समुदाय के बराबर वोट है. लेकिन दोनों जातियों की आपस में नहीं बनती. और इस सीट से कभी यादव तो कभी कोइरी उम्मीदवार को जीत मिलती थी. जब यादव जीतते तो कोईरी समुदाय आहत महसूस करता था. 

उन्होंने इस जातीय समीकरण को साधने पर जोर दिया. वो कोइरी बहुल गांवों में जाकर लोगों से मिलने जुलने लगे. कोइरी समुदाय ने यादवों को हराने के लिए उनको समर्थन किया. और साल 1980 के विधानसभा चुनाव में राजपूत-कोइरी समीकरण का जादू चला. वीर बहादुर सिंह को 19 हजार 796 वोट मिले. उन्होंने करीब चार हजार वोटों से जनता पार्टी सेकुलर के हरि नारायण सिंह को हराया था.

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प्रभुनाथ सिंह फिलहाल जेल में बंद हैं. (इंडिया टुडे)
मशरक से निर्दलीय जीते प्रभुनाथ सिंह 

बिहार में 1970 और 80 का दशक काफी हलचल भरा था. इस दौर में कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाती थी. सियासत में लाठी, बंदूक और बमों की बरसात के साथ बूथ कैप्चर करके अपने पसंदीदा प्रत्याशी को जिताने की रवायत चरम पर थी. ऐसे में लोगों को मकान बनाने के लिए सीमेंट पहुंचाने वाले कारोबारी प्रभुनाथ सिंह भी इससे अछूते नहीं रह पाए. सीमेंट कारोबारी से उनकी दुनिया ठेकेदारी और अपराध के साथ पैबस्त होने लगी. और उनका रास्ता धीरे-धीरे राजनीति की ओर बढ़ने लगा. 

प्रभुनाथ सिंह छपरा (अब सारण जिले) के रहने वाले हैं. साल 1980 में पहली बार उनका नाम सुर्खियों में आया जब मशरक विधानसभा से विधायक रामदेव सिंह काका की हत्या हो गई. हत्या के आरोप के घेरे में प्रभुनाथ सिंह आ गए. कहा गया अपनी चुनावी महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए उन्होंने रामदेव सिंह को रास्ते से हटा दिया. रामदेव सिंह की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में सहानुभूति की लहर पर सवार उनके बेटे हरेंद्र सिंह को जीत मिली. प्रभुनाथ चुनावी मैदान से दूर रहे. लेकिन साल 1985 में वो निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर उतर गए. और अपने धन-बल और बाहुबल के जोर पर निर्दलीय चुनाव जीत गए. 

इसके बाद साल 1990 में उनको जनता पार्टी का साथ मिला. और वो एक बार फिर से विधायक बने. इसके बाद साल 1998 में उन्होंने समता पार्टी के टिकट पर महाराजगंज से सांसदी भी जीती. और फिर दूसरी बार 1999 में जदयू के टिकट पर लोकसभा पहुंचे. 

सुप्रीम कोर्ट ने सुनाई उम्रकैद की सजा

30 अगस्त 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने प्रभुनाथ सिंह को साल 1995 के एक डबल मर्डर केस में उम्र कैद की सजा सुनाई. आरोपों के मुताबिक प्रभुनाथ सिंह ने दूसरी पार्टी को वोट देने वाले दो लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. इसके बाद से प्रभुनाथ सिंह जेल में बंद हैं.

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पप्पू यादव 23 साल की उम्र में ही विधायक बन गए थे. (इंडिया टुडे)
पप्पू यादव मात्र 23 साल की उम्र में विधायक बने

साल 1988. बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष कर्पूरी ठाकुर की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो जाती है. इसके बाद नेता प्रतिपक्ष का पद खाली हुआ. लालू यादव की हसरत नेता प्रतिपक्ष बनने की थी. युवा लालू यादव के सामने अनूप लाल यादव जैसे दिग्गज राजनेता की चुनौती थी. लेकिन नीतीश कुमार और शरद यादव जैसे सहयोगियों के दम पर उन्होंने अनूप यादव को पटखनी दे दी. उस समय 21 साल का एक और नौजवान था. जो दावा करता है कि उसने लालू यादव की मदद की थी. इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े संतोष सिंह ने अपनी किताब ‘कितना राज कितना राज’ (लालू और नीतीश का बिहार) किताब में उस नेता के हवाले से इस वाकये का जिक्र किया है. उस नौजवान का नाम था, पप्पू यादव.

इस उम्र में ही पप्पू यादव की गिनती बिहार के बाहुबलियों में होने लगी थी. कोसी और सीमांचल में उन्होंने अपनी समानांतर सत्ता स्थापित कर ली थी. पूरा इलाका उनके और आनंद मोहन के बीच के वर्चस्व की लड़ाई का अखाड़ा बन चुका था. 

पप्पू यादव लालू यादव को अपना नेता मानते थे. और उनका दावा था कि उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में उनकी मदद भी की थी. इसके बदले पप्पू यादव साल 1990 में जनता दल से विधानसभा का टिकट चाहते थे. लेकिन उनको टिकट नहीं मिला. इसके बाद पप्पू यादव निर्दलीय मधेपुरा के सिंघेश्वर विधानसभा सीट से बड़े अंतर से जीत कर विधानसभा पहुंच गए. हैरत की बात है कि उस वक्त पप्पू यादव की उम्र मात्र 23 साल थी. जबकि विधानसभा चुनाव लड़ने की न्यूनतम उम्र 25 साल होती है. पप्पू यादव इस बाबत बताते हैं कि उनका जन्म 24 दिसंबर 1967 को हुआ था. लेकिन उस वक्त एफिडेविट पर नामांकन हो जाता था. हो सकता है कि उनके समर्थकों ने उनकी उम्र बढ़ाकर 25 साल लिख दिया हो.

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शहाबुद्दीन पहली बार निर्दलीय विधायक बने थे. (इंडिया टुडे)
शहाबुद्दीन भी पहली बार निर्दलीय विधायक बने

साल 1980 के दशक के आखिरी कुछ साल. सिवान के डीएवी कॉलेज में पढ़ने वाला एक नौजवान अपराध और जुर्म की दुनिया में अपना मकाम बना रहा था. और उस दौर के दूसरे बाहुबलियों की तरह सियासत का हाथ थामने की तैयारी में था. नाम था, मोहम्मद शहाबुद्दीन

साल 1990 के विधानसभा चुनाव से पहले 26 मई 1989 को शहाबुद्दीन पर अटेंप्ट टू मर्डर और आर्म्स एक्ट के तहत एक मुकदमा दर्ज किया गया. इसके बाद सिवान पुलिस ने शहाबुद्दीन को हिस्ट्रीशीटर घोषित कर दिया. मुकदमा दर्ज होने के बाद वो जेल भी गए. लेकिन किसी मामले में अपराध तय नहीं हुआ. क्योंकि खौफ ऐसा था कि कोई भी गवाही देने को तैयार नहीं होता. बहरहाल चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे शहाबुद्दीन ने जेल से ही निर्दलीय पर्चा दाखिल किया और कांग्रेस विधायक कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह के खिलाफ मैदान में उतर गए.

शहाबुद्दीन के चुनाव लड़ने के फैसले के पीछे भी एक कहानी है. हिस्ट्रीशीटर घोषित किए जाने के बाद वो मदद मांगने त्रिभुवन नारायण सिंह के पास पहुंचे थे. लेकिन त्रिभुवन नारायण सिंह ने साफ-साफ कहा कि वो बदमाशों और अपराधियों की पैरवी नहीं करते. इसके बाद से ही शहाबुद्दीन उनसे खार खाए हुए थे.

इसके बाद शहाबुद्दीन ने अपने किसी जानकार की मदद से लालू यादव से मुलाकात की. और उनसे मदद मांगी. यादव ने मदद का आश्वासन दिया. साथ ही ये हिदायत भी कि वो शांत रहें. इसके साथ ही शहाबुद्दीन ने लालू यादव से जनता दल से टिकट देने की दरख्वास्त भी की. लेकिन तब लालू यादव ने इस पर उतना ध्यान नहीं दिया. उन्होंने जनता दल के टिकट पर राधिका देवी को जीरादेई से टिकट दिया था. लालू यादव से मदद के भरोसे शहाबुद्दीन ने सरेंडर कर दिया. और जेल से ही निर्दलीय पर्चा भरा. इस चुनाव में शहाबुद्दीन के समर्थकों की तरफ से जमकर बोगस वोटिंग हुई. और उन्होंने निर्दलीय ही कांग्रेस के सिटिंग विधायक को हरा दिया. 

यहीं से उनके अपराधी से राजनेता बनने का सफर शुरू हुआ. इस चुनाव के बाद लालू यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने. उनकी सरकार बीजेपी और लेफ्ट के समर्थन से चल रही थी. ऐसे में उनको अपने भरोसे के लोग चाहिए थे. और शहाबुद्दीन को उनकी छत्रछाया. शहाबुद्दीन ने लालू यादव की सरकार को समर्थन दिया. और इसके बाद से उनके करीबी होते चले गए. और उनकी पार्टी से लोकसभा भी पहुंचे.

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सूरजभान सिंह अनंत सिंह के भाई दिलीप सिंह को हराकर पहली बार विधायक बने थे. (इंडिया टुडे)
सूरजभान ने अनंत सिंह के भाई को निर्दलीय हराया

साल 1985 में मोकामा से श्यामसुंदर सिंह धीरज विधायक बने. मोकामा के ही दिलीप सिंह उनके लिए बूथ कब्जा करते थे. एक दिन दिलीप सिंह दिन में धीरज के पटना आवास पर मिलने पहुंच गए. धीरज इस पर बिफर गए. उन्होंने दिलीप सिंह को डांटते हुए कहा, "तुम कोई अच्छे आदमी तो हो नहीं, रात के अंधेरे में आया करो. आइंदा दिनदहाड़े मत आना." बात दिलीप सिंह को लग गई. वो 1985 में धीरज के खिलाफ चुनाव लड़ गए. लेकिन करीबी मुकाबले में हार मिली. फिर साल 1990 में लालू यादव की मदद से उन्होंने धीरज को परास्त कर दिया. लेकिन लालू यादव ने उन्हें मंत्री बनाया. साल 1995 में वो फिर जीते. इस बार मंत्री बने. 

1990 के आसपास से उनके खेमे में मोकामा का एक उभरता हुआ बाहुबली सूरजभान सिंह भी शामिल हो चुका था. और उनके छोटे भाई अनंत सिंह के साथ मिलकर दिलीप सिंह के लिए रंगदारी और वसूली का काम कर रहा था. साल 1997 में बाढ़ के एसपी रहे अमिताभ दास के मुताबिक, दिलीप सिंह के ऊपर कोई जघन्य अपराध का मामला नहीं था. लेकिन अनंत सिंह और सूरजभान के दम पर इलाके में उनकी धाक जमी थी.

सूरजभान की जिम्मेदारी दिलीप सिंह के लिए वसूली करना, बूथ लूटना और जरूरत पड़ने पर मर्डर भी करना था. अब दिलीप सिंह भी जुर्म की दुनिया से होते हुए ही सफेदपोश हुए थे. इसीलिए सूरजभान ने भी वही ख्वाब पाल लिए. इधर दिलीप सिंह से लगातार दो बार मात खाए श्याम सुंदर सिंह धीरज को एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो दिलीप सिंह के साम्राज्य को चुनौती दे सके. और फिर से उनके लिए रास्ता बना सके. उनकी नजर टिकी सूरजभान सिंह पर.

साल 1995 विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने सूरजभान सिंह को अपने खेमे में शामिल कर लिया. सिर से दिलीप सिंह का हाथ उठते ही सूरजभान को किसी मामले में जेल भेज दिया गया. लेकिन अंदर से वो अपनी बिसात बिछाते रहे. इधर श्यामसुंदर सिंह धीरज को उम्मीद थी कि सूरजभान की मदद से वो इस बार चुनाव निकाल लेंगे. लेकिन सूरजभान के दिमाग में कुछ और चल रहा था. 

उस वक्त तक मोकामा के गंगा घाट में भी बहुत पानी बह चुका था. और बिहार की राजनीति भी अलग करवट ले रही थी. लालू यादव के पुराने साथी नीतीश कुमार उनके खिलाफ ताल ठोक रहे थे. उनको मोकामा सीट से भी एक मजबूत प्रत्याशी की जरूरत थी. 

उस वक्त तक भूमिहारों का बड़ा हिस्सा भी लालू यादव के खिलाफ हो चुका था. ऐसे में नीतीश कुमार के दोस्त राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने सूरजभान को अपने पाले में किया. हालांकि सूरजभान को समता पार्टी का सिंबल नहीं मिला. लेकिन नीतीश कुमार का समर्थन उनके साथ था. वो निर्दलीय ही चुनावी मैदान में उतरे. और दिलीप सिंह को लगभग 70 हजार वोटों से हरा दिया. इस तरह से सूरजभान भी बाहुबली से माननीय हो गए.

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मुन्ना शुक्ला को बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड में उम्रकैद की सजा हो चुकी है. (इंडिया टुडे)
भाई की हत्या के बाद मुन्ना शुक्ला भी राजनीति में आए

13 जून 1998. पटना का IGIMS इमरजेंसी वार्ड के बाहर पिस्टल और गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा. तत्कालीन राबड़ी देवी सरकार में मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की गोलियों से भून कर हत्या कर दी गई. हत्या में नाम आया मुन्ना शुक्ला, भूपेंद्र दुबे, मंटू तिवारी, राजन तिवारी, श्रीप्रकाश शुक्ला, सुधीर त्रिपाठी और अनुज प्रताप सिंह का.

इस हत्या को छोटन शुक्ला हत्याकांड का बदला बताया गया. छोटन शुक्ला की 4 दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में हत्या कर दी गई थी. उस वक्त वो केसरिया विधानसभा से आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे. छोटन शुक्ला की हत्या बृज बिहारी प्रसाद के घर के पास ही कर दी गई थी. इस हत्या का आरोप भी बृज बिहारी प्रसाद पर ही लगा था. इसके अलावा अगस्त 1997 में छोटन के भाई भुटकुन शुक्ला की भी हत्या कर दी गई थी. भुटकुन के बॉडीगार्ड दीपक सिंह ने उनके घर पर ही AK47 से उनकी हत्या कर दी थी. इस हत्या के बाद बृजबिहारी कैंप में जश्न भी मनाया गया. छोटन शुक्ला और भुटकुल शुक्ला भी जुर्म की दुनिया से जुड़े हुए थे. 

अब लौटते हैं बृज बिहारी प्रसाद की हत्या पर. इस हत्या के आरोपियों में एक नाम विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला का था. मुन्ना के बारे में कहा जाता है कि अपने भाइयों की हत्या के वक्त वो अपराध की दुनिया में नहीं थे. उनका काम था छोटन शुक्ला के लिए टेंडर पर काम करना. लेकिन छोटन और भुटकुन की हत्या के बाद उन्होंने भाइयों की विरासत संभाली. और बृजबिहारी से बदला लेने की कवायद में जुट गए. इस काम में उनको मदद मिली सूरजभान सिंह, राजन तिवारी और श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे गैंगस्टर्स का. क्योंकि सीधे या परोक्ष तौर पर इन सबको बृजबिहारी से अपना स्कोर सेटल करना था. 

बृजबिहारी की हत्या के बाद मुन्ना शुक्ला को लगा कि सिर्फ गैंगस्टर बने रहने से आगे का रास्ता मुश्किल हो सकता है. इसलिए सूरजभान सिंह की तरह उन्होंने भी जेल से ही चुनाव लड़ने का फैसला किया. और लालगंज विधानसभा सीट से निर्दलीय ताल ठोक दी. विजय शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला ने इस चुनाव में राजद के राज कुमार शाह को 52 हजार से ज्यादा वोटों से हराया. और विधायक बने.

3 अक्टूबर 2024 को बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया. इस मामले में कोर्ट ने पूर्व विधायक मुन्ना शुक्ला समेत दो अभियुक्तों को दोषी ठहराते हुए उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई है. वहीं पूर्व सांसद सूरजभान सिंह को इस हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया.

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राजन तिवारी गोविंदगंज सीट से पहली बार विधायक चुने गए. (इंडिया टुडे)
गोरखपुर से आकर बिहार में विधायक बने राजन तिवारी

बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड में मुन्ना शुक्ला के अलावा जिन लोगों पर आरोप लगे थे उनमें भूपेंद्र दुबे और राजन तिवारी का भी नाम शामिल था. राजन तिवारी की सीधे तौर पर बृजबिहारी से कोई दुश्मनी नहीं थी. लेकिन वह श्रीप्रकाश शुक्ला के गैंग से जुड़े हुए थे. और श्रीप्रकाश की तरह गोरखपुर के ही रहने वाले थे. साल 1996 में बीरेंद्र प्रताप शाही पर हुए असफल हमले में पहली बार श्रीप्रकाश शुक्ला के साथ राजन तिवारी का नाम सामने आया था. बाद में श्रीप्रकाश ने शाही की हत्या कर दी थी. 

साल 1998 में यूपी एटीएस ने श्रीप्रकाश शुक्ला का एनकाउंटर कर दिया. और राजन तिवारी के पीछे भी हाथ धोकर पड़ गई. इसके बाद राजन तिवारी जान बचाने के लिए बिहार भाग आए. 

साल 2000 में सूरजभान और मुन्ना शुक्ला की तरह राजन तिवारी ने भी राजनीति में उतरने का फैसला किया. सीट चुनी पूर्वी चंपारण की गोविंदगंज विधानसभा. इसके पीछे भी एक कहानी है. इस सीट से भूपेंद्र नाथ दुबे विधायक थे. वो भी बृजबिहारी हत्याकांड में आरोपी थे. क्योंकि उनके भाई देवेंद्र दुबे की हत्या करवाने का आरोप भी बृजबिहारी प्रसाद पर ही था. देवेंद्र दुबे 1995 में गोविंदगंज सीट से समता पार्टी के सिंबल से विधायक बने थे. उस वक्त उन पर आर्म्स एक्ट और हत्या के 35 मुकदमे दर्ज हो चुके थे. 

साल 1996 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव ने पूर्वी चंपारण से बृजबिहारी की पत्नी रमा देवी को टिकट दिया. देवेंद्र दुबे ने भी वहां से चुनाव लड़ने का एलान किया. और समाजवादी पार्टी के सिंबल पर मैदान में उतर गए. वहीं बीजेपी से राधामोहन सिंह इस सीट से चुनाव लड़ रहे थे. अगड़ी जातियों का वोट राधामोहन सिंह और देवेंद्र दुबे के बीच बंट गया. और रमा देवी चुनाव जीत गईं. लेकिन चुनाव नतीजों से पहले ही देवेंद्र दुबे की हत्या कर दी गई. इस हत्याकांड के बाद देवेंद्र दुबे के भतीजे मंटू तिवारी और भूपेंद्र दुबे ने बृजबिहारी प्रसाद से हत्या का बदला लेने की योजना बनाई. इसके लिए एक टीम बनी. इस टीम का हिस्सा बने भूपेंद्र दुबे, मंटू तिवारी, मुन्ना शुक्ला और देवेंद्र दुबे के दोस्त श्रीप्रकाश शुक्ला और राजन तिवारी. 

साल 2000 में राजन तिवारी अपने दोस्त देवेंद्र दुबे की सीट से ताल ठोक रहे थे. और उनके सामने थे देवेंद्र दुबे के भाई भूपेंद्र नाथ दुबे. लेकिन जनता ने देवेंद्र दुबे के भाई की जगह उनके दोस्त पर भरोसा जताया. और राजन तिवारी को भी विधानसभा पहुंचा दिया.

वीडियो: पप्पू यादव ने मंच पर पीएम मोदी के कान में क्या कहा?

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