साल 2000 के बाद से बिहार में निर्दलीय कैंडिडेट्स की दाल गलनी क्यों बंद हो गई?
साल 2000 के बाद हुए पांच विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो Independent Candidates के सीट जीतने की क्षमता में तेजी से गिरावट हुई है. फरवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में 17 लोग निर्दलीय विधायक बने. वहीं साल 2020 के विधानसभा चुनाव में महज एक निर्दलीय प्रत्याशी Sumit Singh ही जीत दर्ज कर सके.

साल 2000. बिहार विधानसभा चुनाव. किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हुई. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) की सरकार थी. राज्यपाल विपिन चंद्र पांडे ने समता पार्टी के नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को सरकार बनाने के लिए बुलाया. शपथ लेने के बाद एक तस्वीर वायरल हुई. तस्वीर में नीतीश कुमार थे. और उनके साथ सूरजभान सिंह, मुन्ना शुक्ला, सुनील पांडेय, राजन तिवारी और रामा सिंह जैसे कुख्यात. जिन पर हत्या, अपहरण, लूट और डकैती जैसे गंभीर आपराधिक मुकदमे थे. ये निर्दलीय जीत कर आए थे. और इन्होंने नीतीश कुमार को समर्थन दिया था. हालांकि नीतीश कुमार बहुमत साबित नहीं कर पाए. और 7 दिनों में सरकार गिर गई.
ये बिहार की राजनीति में आखिरी ऐसा मौका था. जब निर्दलीय विधायक सरकार बनाने के लिए अहम थे. और स्थापित पार्टियों को इनकी जरूरत थी. साल 2000 के बाद के विधानसभा चुनाव से निर्दलीय विधायकों की संख्या भी कम होने लगी और सरकार बनाने में इनकी भूमिका भी प्रभावी नहीं रही. 2000 के बाद की राजनीति पर बात करने से पहले एक बाद आजादी के बाद से 2000 तक हुए विधानसभा चुनावों में निर्दलीय विधायकों की स्थिति पर नजर डाल लेते हैं.
1952 से 2020 तक सक्सेस रेट 1 प्रतिशतआजादी के बाद साल 1952 में हुए पहले चुनाव से साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव तक राज्य में कुल 27 हजार 138 निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखाड़े में उतरे. इनमें से 26 हजार 101 की जमानत नहीं बची. यानी 96.17 फीसदी बस नाम दर्ज कराने के लिए चुनाव लड़े. कुल निर्दलीय उम्मीदवारों में उस वक्त तक 292 लोग ही विधानसभा पहुंच पाए थे. यानी कुल उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत रहा मात्र 1.07 फीसदी. साल 1967 में सबसे ज्यादा निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की. वहीं साल 1995 में रिकॉर्ड 5674 निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा.
1967 में निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री बनेसाल 1952 में हुए पहले बिहार विधानसभा चुनाव में 638 निर्दलीय प्रत्याशियों ने पर्चा भरा. इसमें से 14 को जीत मिली. 513 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. साल 1957 में निर्दलीय लड़ने वालों की संख्या 527 रह गई. लेकिन इस बार 16 लोग विधानसभा पहुंचने में कामयाब रहे. साल 1967 में 738 लोगों ने निर्दलीय पर्चा भरा. और 33 लोगों ने जीत दर्ज की. कमाल ये रहा कि मुख्यमंत्री बनने वाले उम्मीदवार ने भी निर्दलीय ही चुनाव लड़ा था. और उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री को पटखनी दी थी.
तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय को निर्दलीय ताल ठोंक रहे महामाया प्रसाद सिन्हा ने पटना पश्चिमी सीट (वर्तमान बांकीपुर) से हरा दिया था. हालांकि जीत के बाद उन्होंने रामगढ़ के महाराजा कामाख्या नारायण सिंह की जन क्रांति दल की सदस्यता ले ली. इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस पार्टी बहुमत से दूर रह गई थी. और विपक्षी पार्टियों के संयुक्त गठबंधन ने महामाया सिन्हा के नेतृत्व में सरकार गठन किया. इस सरकार को संयुक्त विधायक दल (संविद सरकार) के नाम से जाना गया. इस गठबंधन में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनक्रांति दल, सीपीआई, झारखंड पार्टी और स्वतंत्र पार्टी शामिल थी.
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1969 से 2000 तक घटते बढ़ते रहा आंकड़ा1967 में बनी महामाया सरकार और फिर उसको गिराकर कांग्रेस के सहयोग से बनी बीपी मंडल सरकार ज्यादा दिन चल नहीं पाई. साल 1969 में फिर से चुनाव हुए. इस चुनाव में 426 निर्दलीय उम्मीदवारों ने ताल ठोंका. 24 लोगों को सफलता मिली. वहीं 373 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई.
1969 के बाद भी बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी रहा. जिसके चलते 3 साल बाद ही चुनाव कराने पड़े. साल 1972 में हुए विधानसभा चुनाव में 579 निर्दलीय चुनाव में उतरे. जिसमें 17 उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे. वहीं 511 की जमानत जब्त हो गई.
साल 1977 में हुए चुनाव में पहली बार निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या हजार के पार गई. इस बार 2206 लोगों ने निर्दल पर्चा भरा. इसमें से 24 लोगों की जीत हासिल हुई. वहीं 2105 लोगों की जमानत जब्त हो गई. साल 1977 में इमरजेंसी के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार बनी थी. इसमें कई सोशलिस्ट धड़ों के साथ जनसंघ भी शामिल था. लेकिन ये एकता ज्यादा दिन नहीं टिक पाई. साल 1980 में इनकी सरकार गिर गई. इसके बाद 1980 में हुए विधानसभा चुनावों में 1347 उम्मीदवार खड़े हुए. इसमें से 23 ने जीत दर्ज की. वहीं 1278 की जमानत जब्त हो गई.
साल 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में निर्दलीय लड़ने वालों की संख्या 2804 पहुंच गई. इसमें से 29 लोग विधायक बने. वहीं 2725 लोगों की जमानत जब्त हो गई. साल 1990 में निर्दल दांव आजमाने वाले उम्मीदवारों की संख्या 4320 तक पहुंच गई. इसमें से 30 उम्मीदवार सफल हुए. जबकि 4244 लोगों की जमानत जब्त हो गई.
साल 1995 में तो निर्दलीय लड़ने वाले उम्मीदवारों की बाढ़ सी आ गई. 5674 लोगों ने पर्चा भरा. ये 1952 से 2020 तक के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा है. इनमें से मात्र 12 लोग ही जीत हासिल कर पाए. 5635 लोगों की जमानत जब्त हो गई. इस चुनाव में लालू यादव की जनता दल को अकेले दम पर बहुमत मिला था. वहीं CPI (ML) के साथ गठबंधन में उतरे नीतीश कुमार की समता पार्टी को मात्र 7 सीटें मिली. इसके बाद ही साल 1996 में नीतीश कुमार की समता पार्टी और बीजेपी का गठबंधन हुआ.
साल 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में निर्दलीय चुनाव लड़ने वालों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई. ये आंकड़ा 5674 से गिरकर 1482 पर आ गया. इसमें से 20 उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई. इन चुनाव नतीजों के बाद किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला.
324 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में राजद को 124 सीटें मिलीं. बीजेपी को 67, नीतीश और जॉर्ज की समता पार्टी को 34, शरद यादव की जदयू को 21 और कांग्रेस को 23 सीटें मिलीं. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. राज्यपाल थे विपिन चंद्र पांडेय. दिल्ली से आदेश आया. समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने का. नीतीश कुमार सीएम बने. इस दौरान उनको निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन मिला.
जिसमे से अधिकतर अपराधी और हिस्ट्रीशीटर थे. इनमें सूरजभान सिंह, सुनील पांडेय, रामा सिंह और राजन तिवारी जैसे नाम शामिल हैं. इन लोगों ने नीतीश कुमार को दिलासा दिलाया कि वो उनके लिए बहुमत का जरूरी आंकड़ा जुटा देंगे. लेकिन नीतीश कुमार बहुमत के लिए जरूरी 163 विधायकों का आंकड़ा नहीं जुटा पाए. और बहुमत परीक्षण से पहले ही नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया. वो मात्र सात दिन तक मुख्यमंत्री रहे. इसके बाद लालू यादव कांग्रेस की मदद से एक बार फिर से सरकार बनाने में सफल रहे.
साल 2000 में झारखंड बिहार से अलग हो गया. और बिहार के हिस्से में 324 से घटकर विधानसभा की 243 रह गईं. साल 2000 के बाद हुए पांच विधानसभा के आंकड़ों पर गौर करें तो निर्दलीय उम्मीदवारों के सीट जीतने की क्षमता में तेजी से गिरावट हुई है.
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फरवरी 2005 से लगातार घट रही संख्याफरवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में 1493 लोगों ने निर्दलीय ताल ठोंका. इनमें 17 लोग विधायक बने. इसके बाद से चुनाव दर चुनाव निर्दलीय जीतने वाले विधायकों की संख्या में गिरावट होती गई. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में महज एक निर्दलीय प्रत्याशी सुमित सिंह ही जीत दर्ज कर सके. वो भी मात्र 551 वोट से. बाद में वह जदयू में चले गए. और मंत्री भी बन गए.
साल 2005 में हुए दो विधानसभा चुनाव, कुल 27 निर्दलीय जीते
साल 2005 में छह महीने के अंतराल में दो चुनाव हुए. फरवरी 2005 में हुए चुनाव में 17 विधायकों ने जीत दर्ज की. इसमें बछवाड़ा से रामदेव राय, बहादुरगंज से मोहम्मद तौसिफ आलम, बिस्फी से हरिभूषण ठाकुर, गरखा से रघुनंदन मांझी, गया मुफस्सिल से अवधेश कुमार सिंह, घोसी से जगदीश शर्मा, गोबिंदपुर से कौशल यादव, मधेपुरा से रूप नारायण झा, महिषी से सुरेंद्र यादव, मढ़ौरा से लालबाबू राय, मशरख से तारकेश्वर सिंह, मटिहानी से नरेंद्र कुमार सिंह उर्फ बोगो सिंह, मुजफ्फरपुर से विजेंद्र चौधरी, नवादा से पूर्णिमा यादव, रघुनाथपुर से जगमातो देवी, सिकटी से मुरलीधर मंडल और सोनबरसा से किशोर कुमार निर्दलीय जीते.
इस चुनाव में भी किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला, जिसके चलते राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. और अक्तूबर 2005 में फिर से विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में निर्दल पर्चा भरने वालों की संख्या फिर से एक हजार के नीचे आ गया. 746 लोगों ने पर्चा भरा. जिसमें केवल 10 लोग विधायक बन पाए.
बाइसी से सैय्यद रुकनुदीन, बिस्फी से हरिभूषण ठाकुर, डेहरी से प्रदीप कुमार जोशी, गोबिंदपुर से कौशल यादव, मढ़ौरा से लालबाबू राय, मटिहानी से नरेद्र कुमार सिंह, मुजफ्फरपुर से विजेंद्र चौधरी, नवादा से पूर्णिमा यादव, सोनबरसा से किशोर कुमार और वारसलिगंज से प्रदीप कुमार ने निर्दलीय जीत दर्ज की. इस चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन को बहुमत मिला. और लालू यादव की 15 साल बाद सत्ता से रुखसती हो गई.
इसके बाद साल 2010 में हुए चुनाव में 1342 लोग निर्दलीय चुनाव में खड़े हुए. लेकिन मात्र 6 लोग विधानसभा पहुंच पाए. बलरामपुर से दुलाल चंद्र गोस्वामी, डेहरी से ज्योति रश्मि, ढाका से पवन कुमार जायसवाल, लौरिया से विनय बिहारी, ओबरा से सोमप्रकाश सिंह और सिकटा से दिलीप वर्मा निर्दलीय जीते.
इस चुनाव में नीतीश कुमार के एनडीए गठबंधन की जबरदस्त जीत हुई. उनके गठबंधन को 243 में से 206 सीटें हासिल हुई. इस चुनाव में राजद के विधायकों की संख्या 22 रह गई. वहीं कांग्रेस तो दहाई से भी नीचे 4 पर पहुंच गई.
साल 2015 में सत्ता के समीकरण बदल चुके थे. एनडीए बिखर चुका था. नीतीश कुमार उनसे अलग हो चुके थे. इस चुनाव में उनका गठबंधन राजद और कांग्रेस से था, जिसे महागठबंधन नाम दिया गया था. जबकि बीजेपी रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और जीतन राम मांझी की हम के साथ गठबंधन कर चुनाव में उतरी थी.
इस चुनाव में महागठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की. इस बार 1150 निर्दलीय उम्मीदवारों ने अपनी किस्मत आजमाई. इसमें सिर्फ 4 लोगों को जीत हासिल हुई. बोचहां सुरक्षित सीट से बेबी कुमारी, कांटी से अशोक कुमार चौधरी, मोकामा से अनंत सिंह और वाल्मिकीनगर से धीरेंद्र प्रताप सिंह उर्फ रिंकू सिंह ने निर्दलीय जीत दर्ज की.
साल 2020 में नीतीश कुमार एक बार फिर से बीजेपी के साथ आए. इस चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच मुकाबला हुआ. चिराग पासवान एनडीए से बगावत करके अकेले चुनाव में गए. इस चुनाव में कांटे की टक्कर रही. एनडीए को 125 सीट मिली. बहुमत के आंकडे़ 122 से मात्र 3 सीट ज्यादा. वहीं महागठबंधन भी 110 सीट जितने में सफल रहा. ये चुनाव निर्दलीय लड़ रहे प्रत्याशियों के लिए किसी बुरे सपने की तरह साबित हुआ. 1299 लोगों ने पर्चा भरा. इसमें मात्र 1 प्रत्याशी जीत पाए. चकाई सीट से सुमित सिंह वो भी मात्र 551 वोट से.
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जीत के बाद दलों से मिल जाते हैं निर्दलीयबिहार चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों का अपना अभेद्य दुर्ग रहा है. जिसे भेदने में राजनीतिक पार्टियों के दिग्गजों के पसीने छूट गए. घोसी से जगदीश शर्मा, मोकामा से अनंत सिंह, मुजफ्फरपुर से विजेंद्र चौधरी, बिस्फी से हरिभूषण ठाकुर, सोनबरसा से किशोर कुमार और रूपौली से बीमा भारती समेत कई ऐसे नाम हैं. लेकिन इनमें से कई लोग बाद में राजनीतिक दलों में शामिल हो गए. और फिर पार्टी के टिकट पर चुनाव लडने लगे.
दरअसल राजनीतिक दलों को ऐसे मजबूत प्रत्याशियों की दरकार होती है, जिनका अपना वोट बैंक यानी मजबूत जनाधार हो. ऐसे में निर्दलीय जीतकर आए उम्मीदवार उनकी पहली पसंद बन जाते हैं. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या कम होने के पीछे कई कारण हैं. इसमें एक अहम कारण आम लोगों की दलीय निष्ठा है. जनता जिस राजनीतिक दल की समर्थक होती है. उनके किसी भी उम्मीदवार को आसानी से वोट दे देती है.
दूसरा कारण दिन ब दिन चुनाव का महंगा होता जाना है. राजनीतिक दलों से जुड़ने से राजनीतिक दलों को चुनावी खर्चे के रूप में सहयोग राशि मिल जाती है. साथ ही जीत की गारंटी भी बढ़ जाती है. जबकि वहीं निर्दल प्रत्याशी सफल हो पाते हैं जिनकी जनता में मजबूत पकड़ हो और आर्थिक रूप से भी सक्षम हों.
निर्दलीय प्रत्याशियों से जनता की निराशा का एक और बेहद अहम कारण है. चुनाव जीतने के बाद निर्दलीय प्रत्याशी आम तौर पर सरकार का ही समर्थन कर देते हैं. ऐसे में जो मतदाता सरकार या विपक्ष के खिलाफ उनको जीत दिलाते हैं. वे अपने विधायक द्वारा सरकार को समर्थन किए जाने से ठगा महसूस करते हैं. यही कारण है कि अब निर्दलीय में भी इक्का दुक्का उन्हीं लोगों को जीत मिलती है जो पहले से किसी न किसी दल के साथ जुड़े होते हैं. और टिकट नहीं मिलने की सूरत में अपने दम पर चुनावी मैदान में उतर जाते हैं.
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