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जब खुद PM रहते जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को पेश करना पड़ा था बजट

आजाद भारत के पहले दो दशकों के दौरान वित्त मंत्री किसी न किसी वजह के चलते नाराज होकर इस्तीफा दे देते थे.

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Indira Gandhi Jawaharlal Nehru
इंदिरा गांधी और जवाहर लाल नेहरू. (फोटो: PTI)
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30 जनवरी 2023 (Updated: 31 जनवरी 2023, 13:39 IST)
Updated: 31 जनवरी 2023 13:39 IST
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इस वित्त वर्ष का बजट पेश होने वाला है. ऐसे में हम बजट से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं की बात कर रहे हैं. मसलन, बजट को बजट क्यों कहते हैं, अंतरिम बजट क्या होता है, आजादी से पहले तक का भारतीय बजट का इतिहास और आजाद भारत के शुरुआती कुछ बजट. अब हम बात करेंगे, आजाद भारत के पहले दो दशकों के दौरान वित्त मंत्री रहे नेताओं की, जो किसी न किसी वजह के चलते नाराज होकर सरकार से इस्तीफा देते रहे और इस कारण पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को बजट पेश करना पड़ा. साथ ही जानेंगे ऐसे बजट के बारे में, जिसे कोयले के चलते ‘काला बजट’ कहा गया. इसके अलावा, बात करेंगे इमरजेंसी की और ये भी कि क्या कारण था कि ‘प्रणब दा’ से पहले कोई भी वित्त मंत्री राज्य सभा से नहीं आया था.

पढ़ें- भारत सरकार का पहला बजट पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ने क्यों पेश किया?

इस्तीफों का दौर

पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कैसे ‘वेस्टेड इंट्रेस्ट’ के मुद्दे पर सवाल किए जाने से देश के पहले वित्त मंत्री आरके शनमुखम चेट्टी ने कैबिनेट छोड़ दी थी. इसके बाद केवल 35 दिनों के लिए वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला दूसरे वित्त मंत्री क्षितिश चंद्र नियोगी ने. उनके जाने की वजह भी नाराजगी रही. हालांकि वो नाराजगी जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की देन बताई जाती है. फिर देश के तीसरे वित्त मंत्री बने जॉन मथाई. वे ‘योजना आयोग’ वाले मुद्दे के चलते नाराज हुए और कैबिनेट छोड़कर गए. फिर नाराज होने की बारी थी चौथे वित्त मंत्री सी डी देशमुख री. वे इस बात को लेकर नाराज थे-

भारत सरकार एक विधेयक लाने वाली थी. इसके अनुसार, बंबई (जो अब मुंबई है) को चंडीगढ़ की तरह एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाना था और उसे (राज्य/केंद्रशासित प्रदेश के रूप में) गुजरात और महाराष्ट्र के बीच बांटा जाना था. इसी प्रस्ताव के विरोध में सी डी देशमुख मंत्रिमंडल छोड़ दिया था.

तस्वीर 18 नवंबर, 1957 की है. तत्कालीन वित्त मंत्री श्री, टीटी कृष्णमाचारी वित्त मंत्री सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे हैं. योजना आयोग के अन्य मेंबर्स के साथ तस्वीर में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री, पंडित गोविंद बल्लभ पंत भी दिखाई डेक रहे हैं. (तस्वीर: भारत सरकार)
तस्वीर 18 नवंबर, 1957 की है. तत्कालीन वित्त मंत्री श्री, टीटी कृष्णमाचारी वित्त मंत्री सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे हैं. योजना आयोग के अन्य मेंबर्स के साथ तस्वीर में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री, पंडित गोविंद बल्लभ पंत भी दिखाई डेक रहे हैं. (तस्वीर: भारत सरकार)

देशमुख के बाद पांचवे वित्त मंत्री टी टी कृष्णमाचारी हुए. उनकी विदाई भी ‘फेयरवेल’ वाली कैटेगरी में नहीं आई. कृष्णमाचारी पर देश के पहले शेयर घोटाले में शामिल होने का आरोप था. हरिदास मूंदड़ा वाला घोटाला. बताया जाता है कि इसी घोटाले के चलते जवाहरलाल नेहरू और उनके दामाद फिरोज गांधी के बीच काफी तनातनी वाली स्थिति पैदा हो गई थी-

फिरोज गांधी उस वक्त भ्रष्टाचार निरोधक आंदोलन के झंडाबरदार नेता थे. वे चाहते थे कि घोटाले की तह तक जाया जाए. दूसरी तरफ, नेहरू को चिंता थी कि इससे मंत्रिमंडल की बदनामी होगी. इसलिए वे मुद्दे को ज्यादा फैलने से पहले हल कर लेना चाह रहे थे. उस वक्त इंदिरा गांधी और फिरोज के रिश्ते भी कुछ खास अच्छे नहीं चल रहे थे. इसके चलते इंदिरा-नेहरू-फिरोज वाला मामला और हरिदास-कृष्णमाचारी का मुद्दा मीडिया की पहली पसंद बन गया था. अंत में कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा.

हालांकि कृष्णमाचारी बाद में फिर मंत्रिमंडल में शामिल हुए और फिर से वित्त मंत्री बने. लेकिन टाइमलाइन के हिसाब से चलें तो उनके इस्तीफे के बाद छठे वित्त मंत्री बने मोरारजी देसाई. भारतीय राजनीति में रुचि रखने वाले लोग उनकी विदाई के कारण के बारे में जानते हैं. वे बताते हैं कि नेहरू के निधन के बाद मोरारजी देसाई उम्मीद लगाए बैठे थे कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे. लेकिन पहले लाल बहादुर शास्त्री और उसके बाद खुद इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने से मोरारजी थोड़ा नाराज चलने लगे. फिर इंदिरा गांधी से मतभेदों के चलते यह नाराजगी बढ़ती चली गई.
1969 में इंदिरा ने मोरारजी को बिना बताए उनसे वित्त मंत्रालय का प्रभार वापस ले लिया था, जबकि वे उस समय उपप्रधानमंत्री थे. इंदिरा गांधी के इस कदम से मोरारजी इतने नाराज हुए कि उपप्रधानमंत्री पद भी छोड़ दिया. इस तरह कांग्रेस पार्टी दो फाड़ हो गई. कुछ जानकार बताते हैं कि इंदिरा गांधी के बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के फैसले से भी मोरारजी देसाई उनसे नाराज थे. बहरहाल, विदाई से पहले देसाई सबसे लंबे कार्यकाल वाले वित्त मंत्री रहे.

फ़िरोज़ गांधी और इंदिरा गांधी की शादी की तस्वीर. (तस्वीर: आज तक)
फ़िरोज़ गांधी और इंदिरा गांधी की शादी की तस्वीर. (तस्वीर: आज तक)
 

इन जानकारियों से पता चलता है कि 1947 से 1969 तक वित्त मंत्री रहे नेता किसी न किसी वजह से नाराज रहे और पद छोड़ते रहे. इन 22 वर्षों के दौरान वित्त मंत्रालय और बजट के हाल यूं रहे-

सी डी देशमुख 1950 से 1956 तक वित्त मंत्री रहे.

1950 और 1955 के बीच सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 18% की वृद्धि हुई थी. कारण था खाद्य उत्पादन के आयात में तेजी से आई कमी, चाय और जूट के निर्यात में उछाल, चालू खाते में 25 करोड़ रुपये का अधिशेष और स्टर्लिंग रिजर्व 735 करोड़ तक पहुंचना.

कृष्णमाचारी ने जो 1957-58 का बजट पेश किया. उसमें महत्वपूर्ण था-

‘सक्रिय आय’ और ‘निष्क्रिय आय’ के बीच अंतर करने का प्रयास. सक्रिय आय मतलब, जॉब या व्यापार से होने वाली आय. निष्क्रिय आय मतलब, रेंट, इंट्रेस्ट वगैरा. उन्होंने आयात के लिए लाइसेन्स को जरूरी कर दिया. वेल्थ टैक्स लगाया गया और एक्साइज ड्यूटी 400% तक कर दी.

इसके बाद वित्तीय वर्ष 1958-59 के बजट की तैयारी चल रही थी कि कृष्णमाचारी का इस्तीफा आ गया. इसलिए ये बजट नेहरू को पेश करना पड़ा था. मोरारजी देसाई छठे पूर्णकालिक वित्त मंत्री थे. लेकिन उनसे पहले नेहरू ने खुद भी दो बार वित्त मंत्री का अतिरिक्त कार्यभार संभाला था. देशमुख-कृष्णमाचारी के बीच में और कृष्णमाचारी-मोरारजी के बीच में.

जवाहर लाल नेहरू न केवल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे, बल्कि पहले ऐसे प्रधानमंत्री भी थे जिन्होंने बजट पेश किया था. (तस्वीर: PTI)
जवाहर लाल नेहरू न केवल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे, बल्कि पहले ऐसे प्रधानमंत्री भी थे जिन्होंने बजट पेश किया था. (तस्वीर: PTI)

मोरारजी ने इसके बाद कुल 10 बजट पेश किए, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. यहां एक दिलचस्प बात बताते हैं. मोरारजी देसाई का जन्मदिन 29 फरवरी को होता है, जो चार साल में एक बार आता है. फिर भी दो बजट ऐसे थे, जो मोरारजी ने अपने जन्मदिन के दिन ही पेश किए. 1964 और 1968 में. यह भी बता दें कि मोरारजी ने दस के दस बजट लगातार पेश नहीं किए थे. बीच में सच्चिंद्र चौधरी और दोबारा कृष्णमाचारी वित्त मंत्री बने थे.
29 फरवरी, 1968 को मोरारजी ने जो, बजट पेश किया, उसे उन्होंने ‘जन-संवेदनशील बजट’ कहा. इसमें उन्होंने-

सामानों पर सरकारी मुहर लगाने वाले नियम को समाप्त कर दिया. यह नियम ऐसा ही था जैसे फिल्मों को सेंसर बोर्ड द्वारा प्रमाणित किया जाना. मोरारजी ने सामान के लिए ‘सेल्फ सेंसरशिप’ लागू कर दी. इससे प्रॉडक्शन में तेजी आई. देसाई की एक और प्रमुख घोषणा यह थी कि उन्होंने ‘पति/पत्नी भत्ता’ समाप्त कर दिया. यह कदम, ‘शादी के रिश्ते पर अनायास तनाव' को हटाने के लिए लिया गया था. मोरारजी का कहना था कि कोई बाहरी व्यक्ति ये तय नहीं कर सकता है कि पति-पत्नी के रिश्ते में कौन किस पर निर्भर है.

1969 में जब मोरारजी देसाई ने इंदिरा के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तो वे पहली महिला बनीं, जिन्होंने बजट पेश किया था. इस तरह वे बजट पेश करने वाली दूसरी प्रधानमंत्री भी बनीं. ये 1970-71 का बजट था.

‘काला बजट’

मोरारजी देसाई के बाद यशवंत चव्हाण को वित्त मंत्री बनाया गया. उनके कार्यकाल के दौरान भारत पहली बार मंदी के दौर से गुजरा. तब 1972 में GDP आधा प्रतिशत के करीब रह गई थी. बतौर वित्त मंत्री यशवंत चव्हाण का 1973-74 का बजट, ‘ब्लैक बजट’ के नाम से जाना जाता है.

क्योंकि इस बजट में 550 करोड़ रुपये से ज्यादा का राजकोषीय-घाटा दिखाया गया था. यह उस समय के हिसाब से अभूतपूर्व था. इस बजट में कोयला खदानों, सामान्य बीमा कंपनियों और इंडियन कॉपर कॉर्पोरेशन का राष्ट्रीयकरण किया गया था. इसके लिए 56 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था. बाद में राष्ट्रीयकृत कोयला खदानों का नुकसान में जाना भी इसी बजट का 'कोलेट्रल डैमेज' था. कोयले से जुड़ी प्रतियोगिता का खत्म होना और आज तक इसके लिए आयात पर निर्भर रहना, इसी 'ऐतिहासिक भूल' के दुष्परिणाम बताए जाते हैं.

काला रे, बजट काला रे... (तस्वीर में: यशवंतराव बलवंतराव चव्हाण)
काला रे, बजट काला रे... (तस्वीर में: यशवंतराव बलवंतराव चव्हाण)

11 अक्टूबर, 1974 को यशवंत चव्हाण विदेश मंत्री बना दिए गए. फिर हरित क्रांति के जनक, चिदंबरम सुब्रमण्यम को वित्त मंत्री बनाया गया. वे इंदिरा गांधी के करीबी थे. इसका पता इस बात से लगता है कि 1969 में जब कांग्रेस दो हिस्सों में बंटी तो सुब्रमण्यम को ‘इंदिरा कांग्रेस’ का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था. 25 जून, 1975 को जब आपातकाल लागू हुआ तो उस दौरान भी चिदंबरम ही देश के वित्त मंत्री रहे थे. लेकिन इमरजेंसी के बाद उन्होंने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था. आगे चलकर 1998 में ‘हरित क्रांति’ के क्षेत्र में किए गए कार्यों के लिए चिदंबरम को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था.

चिदंबरम सुब्रमण्यम ने खाद्य उत्पादन के मामले में भारत की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की. इमरजेंसी के दौरान भी सुब्रमण्यम ने टैक्स दरों को कम किया. उन्होंने कर कानूनों के अपने 1976 के संशोधनों में ‘सोर्स-बेस्ड टैक्स’ की अवधारणा पेश की. इकनॉमिक टाइम्स के अनुसार-

इन परिवर्तनों का प्रभाव तीन दशकों के बाद भी बना रहा. वोडाफोन और कर अधिकारियों के बीच चली लंबी कानूनी लड़ाई इसका उदाहरण है, जिसमें टेलीकॉम कंपनी की जीत हुई थी. मामला इस सवाल पर आधारित था कि ‘क्या कर अधिकारियों को अधिकार है कि वे भारतीय टेलीकॉम फर्म में वोडाफोन के अप्रत्यक्ष अधिग्रहण पर टैक्स लगाएं?’

1977 के मार्च महीने में आम चुनाव हुए. इसी महीने इमरजेंसी भी खत्म हो गई. 24 मार्च, 1977 को मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. तब हीरूभाई एम पटेल को वित्त मंत्री बनाया गया. वे किसी गैर कांग्रेसी सरकार के पहले वित्त मंत्री थे. उनकी 1977-78 के अंतरिम बजट की स्पीच को आज तक की सबसे छोटी स्पीच कहा जाता है. यह बजट भाषण केवल 800 शब्दों का था. फिर उन्होंने 1978-79 का पूर्णकालिक बजट भी प्रस्तुत किया. एच एम पटेल ने नीति बनाई कि-

सभी विदेशी कंपनियों को किसी भारतीय कंपनी के साथ मिलकर ही भारत में बिजनेस करना चाहिए.

‘लहर-पेप्सी’ और बाद में 'मारुति-सुजुकी', 'हीरो-होंडा' जैसे नाम इसी नीति के चलते अस्तित्व में आए. इसी नीति के कारण ‘कोका-कोला’ का अस्तित्व समाप्त हो गया था, क्यूंकि कंपनी ने इस नियम को मानने से इन्कार कर दिया था.

एच एम पटेल के बाद उप-प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को वित्त मंत्रालय दे दिया गया. 1979-80 का बजट उन्होंने ही प्रस्तुत किया. जब मोरारजी देसाई की सरकार गिरी तो चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने. लेकिन उनका कार्यकाल छह महीने से भी कम का था. इस कार्यकाल में फरवरी का महीना नहीं था. यानी कोई बजट पेश नहीं हुआ. उस वक्त के वित्त मंत्री हेमवंती नंदन बहुगुणा देश के ऐसे दूसरे वित्त मंत्री बने, जो बजट पेश नहीं कर पाए.

मोररजी देसाई ने कुल 10 बजट पेश किए. 8 पूर्णकालिक और 2 अंतरिम. (तस्वीर: US एंबेसी)
मोररजी देसाई ने कुल 10 बजट पेश किए. 8 पूर्णकालिक और 2 अंतरिम. (तस्वीर: US एंबेसी)
राज्यसभा वाले वित्त मंत्री

14 जनवरी, 1980 को इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई. उनके इस कार्यकाल के दौरान दो ऐसे व्यक्तियों ने बजट पेश किया, जो आगे चलकर देश के राष्ट्रपति बने. पहले थे आर वेंकटरमण और दूसरे प्रणब मुखर्जी. उन्होंने (प्रणब मुखर्जी) 1982–83, 1983–84 और 1984–85 का बजट पेश किया था.

तस्वीर में इंदिरा गांधी और प्रणब मुखर्जी. एक बार प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि इंदिरा की मृत्यु में बाद मैं ‘ज़िंदा लाश’ सरीखा हो गया था. (तस्वीर: इंडिया टुडे)
तस्वीर में इंदिरा गांधी और प्रणब मुखर्जी. एक बार प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि इंदिरा की मृत्यु में बाद मैं ‘ज़िंदा लाश’ सरीखा हो गया था. (तस्वीर: इंडिया टुडे)

प्रणब मुखर्जी के रूप में देश को पहला ऐसा वित्त मंत्री मिला था, जो राज्यसभा से था. यह इस मायने में भी महत्वपूर्ण था कि बजट को लेकर राज्यसभा के अधिकार बहुत सीमित या कहें कि न के बराबर होते हैं. यह बड़ा कारण है कि प्रणब मुखर्जी से पहले कोई राज्यसभा सदस्य देश का वित्त मंत्री नहीं बना. इस बारे में दि हिंदू बिजनेस लाइन के सीनियर डिप्टी एडिटर शिशिर सिन्हा राज्यसभा टीवी को दिए एक इंटरव्यू में बताते हैं-

"संसद में पेश होने के 75 दिनों के भीतर बजट पारित कराना जरूरी होता है. तो जितने भी ‘कर’ के प्रावधान होते हैं, उसकी मंजूरी लोकसभा से ली जाती है. लोकसभा से मंजूर होने के बाद ये राज्यसभा को भेजा जाता है. राज्यसभा उस पर बहस कर सकती है, लेकिन उसमें कोई बदलाव नहीं कर सकती. ज्यादा से ज्यादा किसी बदलाव की सिफारिश कर सकती है. इसे मानना या न मानना, लोकसभा पर निर्भर करता है. राज्यसभा से जब वो वापस आ जाता है, उसके बाद मान लिया जाता है कि संसद के दोनों सदनों से ये पारित हो गया है. अगर राज्यसभा 14 दिनों के भीतर उसे वापस नहीं करती है तो उसे पारित मान लिया जाता है."

पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमन की जयंती पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए. (फ़ाइल फ़ोटो/PTI)
पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमन की जयंती पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए. (फ़ाइल फ़ोटो/PTI)

 

इकनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार-

1980-81 के बजट में वेंकटरमण ने एक्साइज से जुड़ी उन सभी चीजों को पहले जैसा)कर दिया था, जो चरण सिंह सरकार में लागू हुई थीं. जीवन रक्षक दवाओं को उत्पाद शुल्क से मुक्त किया गया. ऐसे ही साइकिल और उसके पार्ट्स, टूथपेस्ट, सिलाई मशीन, प्रेशर-कुकर और सस्ते किस्म के साबुनों को भी उत्पाद शुल्क से मुक्त किया गया. इसी बजट में आयकर छूट की सीमा को 8,000 रुपये से बढ़ाकर 12,000 रुपये कर दिया गया था. दूसरे बजट में इसे 15,000 रुपये तक कर दिया गया. उनके दो बजटों के बाद मुद्रास्फीति 2.5% तक गिर गई थी. वहीं, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल की बात करें तो उनका सबसे महत्वपूर्ण निर्णय यह था कि IMF से 1.1 अरब डॉलर का लोन नहीं लिया जाएगा.

दरअसल आर वेंकटरमन ने अपने कार्यकाल के दौरान IMF के साथ विशेष आहरण अधिकार यानी स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स (SDR) के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. 5 अरब अमेरिकी डॉलर के इस SDR समझौते के अनुसार, प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के दौरान भारत को 1.1 अरब डॉलर की पहली किस्त डिसबर्स की जानी थी. ये फैसला इस मायने में महत्वपूर्ण था कि जहां विश्व बैंक से लिया जाने वाला लोन किसी देश की आर्थिक प्रगति को दर्शाता है, वहीं IMF से लिया गया लोन न केवल शॉर्ट-टर्म और ज्यादा ब्याज वाला होता है, बल्कि इससे सिद्ध होता है कि देश की आर्थिक हालत खस्ता है.


आगे जानेंगे उदारीकरण और वे परिस्थितियां, जिनके चलते ये जरूरी हो गया था.


(ये स्टोरी हमारे साथी रहे दर्पण साह की लिखी है)

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